सम्पादकीय

मोदी सरकार के निशाने पर फिर से POK, आखिर क्या हैं जितेन्द्र सिंह के बयान के मायने?

Rani Sahu
22 March 2022 11:03 AM GMT
मोदी सरकार के निशाने पर फिर से POK, आखिर क्या हैं जितेन्द्र सिंह के बयान के मायने?
x
ढाई दशक का वक्त कम नहीं होता है

प्रवीण कुमार

ढाई दशक का वक्त कम नहीं होता है देश की राष्ट्रीय सुरक्षा और अखंडता से जुड़े मसले को हल करने के लिए. इस दौरान केंद्र में संयुक्त मोर्चा, बीजेपी नीत एनडीए, कांग्रेस नीत यूपीए और 2014 से बीजेपी की सरकार है, लेकिन अभी तक किसी भी सरकार की तरफ से देश को यह बताने की चेष्टा नहीं हुई कि पाक के कब्जे वाली कश्मीर यानि पीओके (POK) पर 22 फरवरी 1994 को संसद में जो प्रस्ताव पारित किया गया था उसका क्या हुआ? हां, 15 मार्च 2013 को कांग्रेस (Congress) नीत यूपीए सरकार ने संसद में एक प्रस्ताव पारित कर जरूर दोहराया था कि पीओके समेत पूरा जम्मू-कश्मीर (Jammu And Kashmir) राज्य भारत का अभिन्न हिस्सा है. यह प्रस्ताव तब पारित किया गया था जब पाकिस्तानी संसद ने भारत में अफजल गुरु को फांसी दिए जाने की निंदा करते हुए अपना पुराना राग दोहराया था, कि कश्मीरी जनता को आत्मनिर्णय का अधिकार मिलना चाहिए.
इसके बाद अगस्त 2019 में संसद में धारा-370 पर बहस के दौरान केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने भी कहा था कि अक्साई चीन और पीओके भारत का अभिन्न हिस्सा है और इसे हासिल करने के लिए हम जान भी दे देंगे. उसके बाद से बीते तीन वर्षों में पीओके को लेकर बयानों की झड़ी लग गई. रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, विदेश मंत्री एस. जयशंकर, केंद्रीय मंत्री जितेन्द्र सिंह समेत कई मंत्रियों व बीजेपी नेताओं की लंबी फेहरिस्त है जिन्होंने पीओके को लेकर बीजेपी और केंद्र सरकार की प्रतिबद्धता दोहराई.
जहां तक केंद्रीय मंत्री जितेन्द्र सिंह का कश्मीर के कठुआ में दिए गए ताजा बयान की बात है तो इसमें भी कुछ ऐसा नहीं कहा गया है जिससे लगे कि भारत पीओके को लेकर एक्शन मोड में आ गया है. हां एक बात जरूर है कि मौजूदा सरकार के पास धारा-370 को हटाने का ऐतिहासिक उदाहरण है और इसी का हवाला देकर जितेन्द्र सिंह ने देश को आश्वस्त करने की कोशिश की है कि पीओके को हर हाल में हासिल किया जाएगा. अब यहां से दो सवाल पैदा होते हैं. पहला यह कि अगर 1994 में संसद से पारित प्रस्ताव को लेकर सरकार आगे बढ़ती है तो 1972 के शिमला समझौते का क्या होगा? और दूसरा सवाल यह कि जितेन्द्र सिंह का ताजा बयान कहीं जम्मू और कश्मीर में आने वाले वक्त में जो चुनाव होने हैं उसकी रणनीति का हिस्सा तो नहीं है?
पीओके पर संसद से पारित प्रस्ताव में क्या है?
देश में तब कांग्रेस पार्टी की सरकार थी. पी.वी. नरसिम्हा राव देश के प्रधानमंत्री थे. संसद के दोनों सदनों ने 22 फरवरी 1994 को ध्वनिमत से पारित एक प्रस्ताव में पाकिस्तान के कब्जे वाली कश्मीर यानि पीओके पर अपना हक जताते हुए कहा था कि ये भारत का अटूट अंग है. पाकिस्तान को उस भाग को छोड़ना होगा जिस पर उसने कब्जा जमाया हुआ है. 'ये सदन पाकिस्तान और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में चल रहे आतंकियों के शिविरों पर गंभीर चिंता जताता है. उसका मानना है कि पाकिस्तान की तरफ से आतंकियों को हथियारों और धन की आपूर्ति के साथ-साथ भारत में घुसपैठ करने में मदद दी जा रही है. सदन भारत की जनता की ओर से घोषणा करता है-
1. पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा. भारत अपने इस भू-भाग के विलय का हर संभव प्रयास करेगा.
2. भारत में इस बात की पर्याप्त क्षमता और संकल्प है कि वह उन नापाक इरादों का मुंहतोड़ जवाब दे जो देश की एकता, प्रभुसत्ता और क्षेत्रीय अंखडता के खिलाफ हों.
3. पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर के उन इलाकों को खाली करे जिसे उसने कब्जाया हुआ है.
4. भारत के आतंरिक मामलों में किसी भी हस्तक्षेप का कठोर जवाब दिया जाएगा.
पीओके का भारत में विलय कब और कैसे होगा?
1994 में संसद ने पीओके के जिस प्रस्ताव को ध्वनिमत से पारित किया था उसमें साफतौर पर कहा गया है कि इसके माध्यम से पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर का भारत में विलय करना है. लेकिन ये सवाल आज भी अपनी जगह बना हुआ है कि पीओके का भारत में विलय आखिर कब और कैसे होगा? इस संबंध में यहां दो-तीन बातें समझनी जरूरी हैं. 1972 में शिमला समझौते की पृष्टिभूमि में अगर हम बात करें तो इसमें नियंत्रण रेखा जिसे एलओसी भी कहते हैं को भारत-पाकिस्तान के बीच सरहद के तौर पर स्वीकार किया गया था. 1972 में यह समझौता तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के वजीर-ए-आजम जुल्फिकार अली भुट्टो के बीच हुआ था. इस समझौते के बाद दोनों देशों के नक्शे को बदला नहीं जा सकता है. तो फिर ऐसे में 22 फरवरी 1994 को संसद में ध्वनि मत से पारित प्रस्ताव का कोई मतलब नहीं रह जाता है.
दूसरा यह कि जिसे हम पाकिस्तान के कब्जे वाला कश्मीर और पाकिस्तान आजाद कश्मीर कहता है, दरअसल वह जम्मू का हिस्सा था, कश्मीर का नहीं. तो उसे कश्मीर कहना ही गलत है. सभी जानते हैं कि पीओके की जुबान यानि भाषा कश्मीरी न होकर डोगरी और मीरपुरी का मिश्रण है. तो ऐसे में सवाल ये उठता है कि 1972 के शिमला समझौते को ध्यान में रखते हुए मौजूदा केंद्र सरकार संसद में पारित 1994 के प्रस्ताव को अमली जामा पहनाने के लिए किस तरह की कूटनीतिक पहल कर रही है? क्या पीओके के विलय के लिए अगर युद्ध की परिस्थिति का सामना करना पड़ता है तो क्या भारत उसके लिए तैयार है? केंद्रीय मंत्री जितेन्द्र सिंह का बयान निश्चित रूप से 1994 के संसद से पारित प्रस्ताव पर मुहर लगाता है लेकिन कब और कैसे इसकी स्पष्टता का अभाव है.
मौजूदा वक्त में पीओके पर एक्शन कितना अनुकूल?
कूटनीतिक नजरिए से भले ही कोई यह सोचे-विचारे कि शिमला समझौते को अगर आप मानते हैं तो फिर 1994 में संसद से पारित प्रस्ताव के तहत पीओके के भारत में विलय को लेकर सरकार आगे बढ़ने का विचार कैसे कर सकती है? बावजूद इसके, अगर सरकार संसद में कहने से नहीं चूक रही कि पीओके भारत का अभिन्न हिस्सा है और सरकार के मंत्री लगातार इस बात को कह रहे हों कि पीओके को भारत में शामिल करके रहेंगे तो निश्चित तौर पर केंद्र सरकार किसी न किसी योजना पर काम कर रही है. पीओके में भी समय-समय पर पाक विरोधी आवाजें उठती रहती हैं.
राष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनजर हर रणनीति का खुलासा करना किसी भी देश के लिए राजनीतिक व कूटनीतिक तौर पर ठीक भी नहीं होता है. लेकिन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय तौर पर जिस तरह की राजनीतिक व कूटनीतिक परिस्थिति मौजूदा वक्त में है वह भारत के लिए पीओके पर आगे बढ़ने और उसे भारत में विलय करने के लिए काफी अनुकूल है. जिस तरह से यूक्रेन और रूस के बीच जंग छिड़ी हुई है, यूक्रेन पर रूस अपना दखल बनाना चाहता है उसी प्रकार से चीन की नजर ताइवान पर है. भारत को भी इस परिस्थिति को भुनाने से चूकना नहीं चाहिए. रूस को भरोसे में लेकर भारत पीओके की तरफ कदम बढ़ा सकता है.
दूसरा- चीन वन बेल्ट वन रोड (One Belt One Road) की जिस योजना पर काम कर रहा है उसमें पीओके लगातार अड़ंगा डाल रहा है. बेशक चीन के बारे में कहा जाता है कि ओबीओआर योजना को अंजाम तक पहुंचाकर वह भारत को चारों तरफ से घेरना चाहता है. लेकिन जिस तरह से न्यू वर्ल्ड ऑर्डर पर एकाधिकार की लड़ाई दुनिया में छिड़ चुकी है और इस लड़ाई में अमेरिका समेत पश्चिमी देश एक तरफ खड़े हैं तो दूसरी तरफ चीन और रूस इस जुगत में हैं कि नई वैश्विक व्यवस्था पर उसका कब्जा हो तो ऐसे में चीन और रूस भारत को साधना चाहेंगे. लिहाजा भारत को चीन तथा रूस की इस मजबूरी का फायदा उठाकर पीओके को देश में मिला लेने का काम कर ही लेना चाहिए. रूस के साथ-साथ अगर चीन से भी भारत के संबंध मधुर हो गए तो पाकिस्तान और सीमा पार की आतंकी गतिविधियों से निपटना भारत के लिए काफी आसान हो जाएगा.
केंद्रीय मंत्री जितेन्द्र सिंह के बयान को किस रूप में आंका जाए?
बहरहाल, तमाम मौजूदा परिस्थितियों का विश्लेषण करें तो एक बात तो तय है कि पीओके भारत का हिस्सा तब तक नहीं हो सकता है जब तक आप उस भू-भाग को अपने कब्जे में नहीं ले लेते. और इसके लिए भारत को पाकिस्तान से लड़ना भी पड़ेगा. उससे पहले भले ही आप उसे संसद से पारित कर दें या किसी दस्तावेज में भी दिखा दें कि यह भारत का अभिन्न हिस्सा है, कोई फर्क नहीं पड़ता. इसके लिए मौके पर कब्जा होना जरूरी है. तो फिर सवाल वही उठता है कि मौजूदा वक्त में केंद्रीय मंत्री जितेन्द्र सिंह के बयान को किस रूप में आंका जाए? तो इसके फिलहाल दो जवाब हो सकते हैं.
पहला ये कि निश्चित रूप से सरकार के पास कोई फूलप्रूफ योजना है जिसका उचित समय पर खुलासा किया जाएगा. हालांकि इसके कोई संकेत दिख नहीं रहे हैं. दूसरा, केंद्र सरकार कश्मीर में चुनाव कराने की तैयारी कर रही है. इसके लिए परिसीमन का काम अंतिम चरण में है. सरकार को पता है कि कश्मीर घाटी में बीजेपी के लिए सीटें निकालना टेढ़ी खीर होगी. हां, पीओके का राग अलापकर कम से कम जम्मू रीजन में इसका फायदा मिल सकता है. लिहाजा कह सकते हैं कि पीओके पर जितेन्द्र सिंह का बयान आने वाले वक्त में जम्मू और कश्मीर में चुनावी रणनीति का हिस्सा है.
Rani Sahu

Rani Sahu

    Next Story