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खेल के मैदान लड़कों से भरे हैं और मेडल लड़कियां जीत रही हैं
जनता से रिश्ता वेबडेस्क | टोक्यो ओलिंपिक के (Tokyo Olympics 2020) के क्वार्टर फाइनल मुकाबले में भारतीय महिला हॉकी टीम ने गजब का खेल दिखया है. ऐसा खेल की महिला हॉकी ने पहली बार अपना सबसे ऊंचा मुकाम हासिल कर लिया है. क्वार्टर फाइनल में ऑस्ट्रेलिया को हरा भारतीय महिला टीम पहली बार ओलिंपिक के सेमीफाइनल में पहुंची है. टोक्यो ओलिंपिक ने भारतीय महिला टीम ने अपना पहला ओलिंपिक क्वार्टर फाइनल खेला और अब पहली बार सेमीफाइनल में भी दम दिखाएगी. ड्रैगफ्लिकर गुरजीत कौर, नवनीत कौर, वंदना कटारिया गोलकीपर सविता का जबरदस्त डिफेंस और कप्तान रानी रामपाल की अगुवाई में भारतीय टीम ने इतिहास रच दिया. गोल तो कुछ ही खिलाड़ियों ने दागे. मगर जब भी जरूरत पड़ी सभी ने एक टीम की तरह मौके को गोल में बदला और विरोधियों के वार को धवस्त किया.
जापान की राजधानी टोक्यो शहर में 23 जुलाई, शुक्रवार को ओलिंपिक खेलों का आगाज अभी हुआ ही था. सिर्फ एक दिन बीता था कि अगले ही दिन 24 जुलाई को भारत की झोली में एक मेडल आ गिरा. चांदी का ये मेडल जीतकर आई थी 26 साल की मीराबाई चानू. 49 किलोग्राम वेटलिफ्टिंग में चानू ने 202 किलोग्राम भार उठाकर सिल्वर पदक अपने नाम कर लिया. इसी वर्ग में स्वर्ण पदक मिला चीन की होऊ जहूई को और कांस्य पदक मिला इंडोनेशिया की विंडी असाह को.
लेकिन भारत के लिए ये बहुत खास मौका था. 4 साल पहले रियो ओलिंपिक में लड़कियों ने अपने देश का सम्मान बढ़ाया था और इस बार फिर इतिहास खुद को दोहरा रहा था. रियो ओलिंपिक में अगर लड़कियों ने कमाल न दिखाया होता तो भारत के खाते में आने वाले मेडल्स की संख्या होती जीरो. लेकिन ऐसा हुआ नहीं और इस न होने का सारा श्रेय जाता है पी.वी. सिंधु और साक्षी मलिक को.
सिंगल वुमेन बैडमिंटन में पी.वी. सिंधु ने डेनमार्क की मिया ब्लिचफेल्ट को हराकर सिल्वर मेडल अपने नाम कर लिया था. इसी तरह साक्षी मलिक ने भी फ्रीस्टाइल कुश्ती में ब्रॉन्ज मेडल जीता था. भारत से 124 खिलाड़ी रियो ओलिंपिक में हिस्सा लेने गए थे, जिसमें से मेडल सिर्फ दो लोगों को मिला और दोनों लड़कियां थीं.
लेकिन इस साल टोक्यो में पदक जीतने का सिलसिला सिर्फ मीराबाई चानू पर ही नहीं रुका. उसके बाद असम की 23 साल की बॉक्सर लवलीना बोरगोहेन ने 69 किलो वर्ग में मुक्केबाजी स्पर्धा में चीन की नियेन चिन चेन को हराकर भारत के लिए एक और पदक सुरक्षित कर लिया. फाइनल में उनका मुकाबला विश्व चैंपियन तुर्की की बुसानेज सुरमेनेली से होने वाला है. तभी यह पता चलेगा कि यह पदक कौन सा होगा, लेकिन तब तक के लिए एक और पदक मिलना तो तय है.
टोक्यो ओलंपिक के पहले ही दिन भारत को रजत पदक दिलाने वाली मीराबाई चानू मणिपुर से हैं. उनका पूरा नाम साईखोम मीराबाई चानू (Saikhom Mirabai Chanu) है. PTI
तीसरा पदक भारत को दिलाया है बैडमिंटन खिलाड़ी पी.वी. सिंधु ने, जिन्होंने ओलिंपिक खेलों में लगातार दूसरी बार इतिहास रचा है. रविवार, एक जुलाई को उन्होंने चीन की खिलाड़ी जियाओ हे बिंग को हराकर ब्रॉन्ज मेडल अपने नाम कर लिया और इसी के साथ ओलिंपिक खेलों में दो बार पदक जीतने वाली वो पहली भारतीय महिला खिलाड़ी बन गईं.
इसके अलावा किसी सिनेमाई सपने के साकार होने की तरह वो क्षण था, जब जादू की तरह भारतीय महिला हॉकी टीम लगातार जीत हासिल करते हुए सेमीफाइनल में पहुंच गई. ओलिंपिक और भारत, दोनों के इतिहास में यह कारनामा पहली बार हुआ है.
ओलिंपिक खेल 8 अगस्त तक चलने वाले हैं. अभी संभावनाएं और भी हैं. और भी लड़कियां अपने खाते में जीत दर्ज करके भारत का नाम रौशन कर सकती हैं. लेकिन उनकी जीत का मेडल अपनी छाती पर सजाए गर्व तो महसूस कर रहे हैं. "हमारी छोरियां क्या छोरों से कम है," जैसे स्लोगन भी बोल रहे हैं, लेकिन खुद से कुछ जरूरी सवाल नहीं पूछ रहे.
लवलीना बोरगेहन ने टोक्यो ओलिंपिक में भारत के लिए पदक किया पक्का. (PTI Photo)
ऐसा क्यों है कि खेल के सारे मैदान लड़कों से भरे हैं और मेडल लड़कियां जीत रही हैं. पढ़ने का ज्यादा समय, मौका, संसाधन, सबसे अच्छे कॉलेज में एडमिशन सब लड़कों को मिल रहा है और टॉप लड़कियां कर रही हैं. आसमान सारा लड़कों को दिया है और उड़ान लड़कियां भर रही हैं. जमीन, खाद-पानी मिट्टी सब लड़कों के नाम है और फसल बनकर लड़कियां लहलहा रही हैं. जिसके पास खोने को कुछ नहीं है, उपलब्धियों के शिखर पर अपना नाम वही लड़कियां लिख रही हैं.
मीराबाई चानू और लवलीना बोरगोहेन दोनों इस देश के उस हिस्से से आती हैं, जिन्हें उत्तर भारत के लोग चिंकी और चीनी कहकर उनका मजाक उड़ाते हैं. जिनके साथ छेड़खानी होती हैं, सड़कों पर फब्तियां कसी जाती हैं और नस्लीय भेदभाव के साथ कई बार उन्हें हिंसक घटनाओं का भी सामना करना पड़ता है. लेकिन जब देश का नाम ऊंचा करने, जीत हासिल करने, मेडल पाने की बारी आती है तो उसी नॉर्थ ईस्ट की लड़कियां मुक्केबाजी से लेकर भारोत्तोलन तक में बाजी मार ले जाती हैं.
एक ट्विटर यूजर की चाहत है कि पीवी सिंधु को इस शानदार प्रदर्शन के लिए महिंद्रा थार से सम्मानित किया जाए.
दूसरी ओर इस देश के उस राज्य की लड़कियां हैं, जहां ऑनर किलिंग और कन्या भ्रूण हत्या के मामले देश में सबसे ज्यादा हैं. जहां की सरकार जब भ्रूण हत्या रोकने के लिए कैंपेन चलाती है तो भी उसका स्लोगन होता है-
"कैसे खाओगे उनके हाथों की रोटियां, जब पैदा ही नहीं होने दोगे बेटियां." यानी बेटी पैदा होने देने की सबसे बड़ी वजह ही उन्हें ये लगती है कि उनके हाथों की रोटियां खाई जा सकें.
इतने अंतर्विराेधों वाले समाज में लड़कियां का सारी परंपराओं और प्रतिरोधों को धता बताते हुए एक के बाद एक यूं मेडल पीटना किसी जादू की तरह लगता है. यह अंतर्विरोध जितना साफ-साफ वहां की जमीन पर दिखाई देता है, उतना शायद देश के और किसी हिस्से में नहीं दिखाई देता. हरियाणा के गांवों में चले जाइए. आपको बहुत आसानी से कहीं दूर सड़क पर हाफ पैंट में दौड़ लगा रही लड़की दिख जाएगी. कहीं किसी खाली पड़े खेत या मैदान में हॉकी या फुटबॉल खेल रही लड़कियों का झुंड दिखाई देगा. ये दृश्य उस समाज में बहुत आम है. साथ ही आपको छाती तक घूंघट काढ़े खेतों में काम करती लड़कियां भी दिख जाएंगी. घरों में डरी-सहमी, एक तेज आवाज पर कांपती, चूल्हे में आंखें जलाती, पति की मार खाती लड़कियां भी.
भारतीय हॉकी के इमोशनल लम्हें
यह अंतर्विरोध उस समाज में हर जगह दिखता है. मजबूत पिंडलियों वाली हिरन की तरह दौड़ती और तेज-तेज साइकिल चलाकर स्कूल और स्टेडियम जाती लड़कियां, खेतों में मेहनत करती लड़कियां, स्कूल में अव्वल आती लड़कियां, पेट में मारी जाती लड़कियां, इज्जत के नाम पर मारी जाती लड़कियां. सबकुछ एक ही जगह है, एक ही समाज में.
लेकिन इस सारी कहानी का सार यही है कि अगर मौका दो, अगर हाथ थामो, अगर बराबर समझो, अगर अधिकार दो और सिर पर हाथ रख दो तो लड़कियां वो कमाल कर सकती हैं कि इतिहास बदल जाए. कल को ये स्लोगन भी बदलना पड़ जाए- "हमारे छोरे क्या छोरियों से कम हैं."