सम्पादकीय

जनता आगे, पार्टियां पीछे

Gulabi Jagat
21 Jun 2022 4:44 AM GMT
जनता आगे, पार्टियां पीछे
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इस अनुभव के आधार पर यह साफ कहा जा सकता है कि जनता के रोजमर्रा के संघर्षों से राजनीतिक दलों का अब कोई नाता नहीं बचा है
By NI Editorial
इस अनुभव के आधार पर यह साफ कहा जा सकता है कि जनता के रोजमर्रा के संघर्षों से राजनीतिक दलों का अब कोई नाता नहीं बचा है। पक्ष हो या विपक्ष- जनता के रोजमर्रा के संघर्षों की कसौटी पर वे अप्रसांगिक होते जा रहे हैँ। यह लोकतंत्र के लिए बहुत खतरनाक संकेत है।
पिछले पांच साल के चार जन आंदोलनों को याद कीजिए। 2018 में अनुसूचित जाति- जन जाति कानून को ढीला बनाने के मुद्दे पर दलित समुदाय के लोगों सड़कों पर उतरे और बड़े पैमाने पर तोड़फोड़ की। 2019 में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ एक बड़ा आंदोलन हुआ। 2020 में किसानों ने मोर्चा संभाला, जो साल भर चलता रहा। अब 2022 में सरकार की अग्निपथ योजना के खिलाफ नौजवानों ने अपना गुस्सा सड़कों पर आकर उतारा है। इन सभी आंदोलनों में एक आम पहलू यह है कि इन्हें संयोजित, संचालित और उन्हें नेतृत्व देने में राजनीतिक दलों की कोई भूमिका नहीं रही। विपक्ष दल तब सक्रिय हुए, जब आंदोलन भड़क चुका था। तब भी उन दलों की भूमिका आंदोलन को समर्थन देने और उसके बहाने नरेंद्र मोदी सरकार पर निशाना साधने के अलावा और कुछ नहीं रही। लेकिन अपने-अपने कारणों से सड़क उतरने जन समूहों ने उसे ज्यादा तव्वजो नहीं दी। बल्कि किसान आंदोलन ने तो यह साफ नीति घोषित कर रखी थी कि उसके मंच पर किसी राजनेता को आने का मौका नहीं दिया जाएगा।
इस अनुभव के आधार पर यह साफ कहा जा सकता है कि जनता के रोजमर्रा के संघर्षों से राजनीतिक दलों का अब कोई नाता नहीं बचा है। भारतीय जनता पार्टी का भी नहीं। इसलिए कि एससी-एसटी ऐक्ट संबंधित मामले को छोड़ कर ये तमाम आंदोलन उसकी सरकार के फैसलों के विरोध में ही हुए। इनमें कई ऐसे तबकों ने हिस्सा लिया, तो अभी भी इस पार्टी का वोट बैंक बने हुए हैँ। लेकिन वे उसे वोट इसलिए नहीं देते कि उन्हें भाजपा सरकार से अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में किसी बेहतरी की उम्मीद बची है। बल्कि उसकी वजह भावनात्मक- या कहें समाज में सुनियोजित ढंग से एक समुदाय विशेष के खिलाफ फैलाई गई द्वेष की भावना है। ये भावना उन मौकों पर पीछे छूट जाती है- जब संबंधित समुदाय को अपना भविष्य खतरे में दिखने लगता है। तो कुल सूरत यह है कि पक्ष हो या विपक्ष- जनता के रोजमर्रा के संघर्षों की कसौटी पर वे अप्रसांगिक होते जा रहे हैँ। यह लोकतंत्र के लिए बहुत खतरनाक संकेत है।
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