सम्पादकीय

पेंशनधारकों को कई बार होना पड़ता है परेशान

Rani Sahu
31 May 2022 7:21 PM GMT
पेंशनधारकों को कई बार होना पड़ता है परेशान
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आज पंेशन शब्द कान में पड़ते ही शरीर में झुरझुरी सी फैल जाती है

आज पंेशन शब्द कान में पड़ते ही शरीर में झुरझुरी सी फैल जाती है क्योंकि सन् 2003 के बाद अनेक राज्यों में पुरानी पंेशन बंद हो चुकी है और नई पेंशन का कोई करिश्मा अभी दिखाई नहीं दे रहा है। पेंशन वस्तुतः सेवानिवृत्ति के बाद सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा कवच का काम करती है। कई देशों में सरकार की ओर से बेरोजगारों को उपजीव्य भत्ते का प्रावधान रहता है। भारत में कुछ वर्गों के लिए थोड़ी बहुत पेंशन का प्रावधान है जरूर, परंतु यह सबके लिए नहीं। और यह पेंशन होती भी बहुत मामूली है। यह भी सच है कि भारत में पुरानी पेंशन उन्हीं लोगों को मिलती है, जो सरकारी नौकरी में रहे हों और जिन्होंने लगातार 33 वर्ष तक सेवा की हो, तभी पूरी पेंशन मिलती है। परंतु अब तो बीस वर्ष की सर्विस करने वालों को भी पूरी पेंशन मिल जाती है। हर राज्य में अलग-अलग नियम हैं और हिमाचल में भी अभी यह नियम लागू नहीं हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय ने पहले ही बीस वर्ष की सर्विस पूरी करने वालों को पूरी पेंशन का आदेश पास कर रखा है, परंतु हिमाचल में अभी यह लागू नहीं। यूनिवर्सिटी के भी बहुत से कर्मचारी इसके लागू होने की बाट जोह रहे हैं। यही कारण है कि जिन्हें पंेशन मिलती भी है, उन्हें भी अनेक बार उनका प्रदेय सहज स्वाभाविक ढंग से नहीं मिलता, जो पेंशनर्ज में निराशा एवं आक्रोश का संचार करता है। हिमाचल में तीन स्टेट यूनिवर्सिटीज हैं अर्थात हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय शिमला, चौधरी सरवण कुमार कृषि विश्वविद्यालय, पालमपुर तथा डा. यशवंत सिंह परमार औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय, नौणी (सोलन)। इन तीनों में समान रूप से हिमाचल सरकार के नियम लागू होते हैं। पंेशन के संदर्भ में भी, परंतु फिर भी तीनों में भी कई बार अधिकारियों या कुलपतियों की पक्षपात या दुर्भावनापूर्ण नीति के कारण सरकारी आदेशों का सही पालन नहीं किया जाता। एक उदाहरण पर्याप्त होगा।

सन् 2006 में जो स्केल केंद्रीय सरकार ने संस्तुत किए थे, उन्हें हिमाचल सरकार ने 1.04.2013 से अपने कालेजिज़ तथा तीनों विश्वविद्यालयों में लागू करने के लिए आदेश जारी किए। हिमाचल के सभी डिग्री कालेजों, शिमला यूनिवर्सिटी एवं सोलन यूनिवर्सिटी में यह रिविजन पहली अपै्रल 2013 से लागू हो गया, परंतु कृषि विश्वविद्यालय में 2006 से पहले सेवानिवृत्त कर्मचारियों को यह रिविजन प्रथम अपै्रल 2013 से न देकर सात अप्रैल 2017 से दिया गया। जब पेंशनर्ज सभा ने कोर्ट में याचिका डाली तो निर्णय पेंशनर्ज के हक में आया और कोर्ट ने निर्देश दिया कि यह अप्रैल 2013 सेे दिया जाए, परंतु विश्वविद्यालय ने इसे तुरंत प्रभाव यानी अप्रैल 2017 से लागू किया। इसमें कुल 28 ऐसे पेंशनर हैं जो अस्सी के आसपास की उम्र के हैं। एक ही प्रदेश में, एक ही सरकारी नियमों से संचालित संस्थानों में भेदभाव कर दिया गया। यह अन्याय नही ंतो क्या है? क्या इस भेदभावपूर्ण निर्णय के लिए तत्कालीन संबद्ध अधिकारी की जवाबदेही नहीं बनती। और क्या इस विसंगति को तुरंत दूर नहीं किया जाना चाहिए? वर्तमान कुलपति डा. हरेंद्र कुमार चौधरी ने पुनर्विचार की हामी तो भरी है, देखें क्या और कितनी जल्दी गलती को दुरुस्त किया जाता है। हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय के 60-70 कर्मचारियों एवं अध्यापकों ने पेंशन की जगह सीपीएफ आप्ट किया था, परंतु अब वे पेंशन लेना चाहते हैं और तड़प रहे हैं क्योंकि पेंशन कहीं बेहतर विकल्प है। दरअसल संस्थाओं को चाहिए कि वे अपने कर्मचारियों को सेवानिवृत्ति से पहले दोनों प्रावधानों के विषय में अच्छी तरह समझा दें ताकि बाद में उन्हें पश्चाताप न हो। बहुत से लोगों का तो यह मत है कि इन 60-70 कर्मचारियों को एक बार पुनः आप्शन का गोल्डन अवसर दे देना चाहिए। आखिर विश्वविद्यालय के निर्माण में सभी ने अपने-अपने सामर्थ्य के अनुरूप यज्ञ में आहुति डाली है। सन् 2016 से रिविज़न के लिए भी हिमाचल के सभी शिक्षण संस्थानों, विश्वविद्यालयों में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं और कहीं-कहीं तो पढ़ाई भी ठप हो गई है।
कृषि विश्वविद्यालय के अध्यापक डा. जनार्दन सिंह, डा. गीतांजलि ठाकुर, डा. राकेश चहोता, डा. जयदेव शर्मा, डा. अजय कटोच, डा. प्रवीण कुमार शर्मा तथा डा. अमित सिंगला आदि आंदोलित हैं। सन् 2016 से पहले वाले सेवानिवृत्त गैर शिक्षकों को भी सन् 2016 के रिविजन का लाभ अभी नहीं दिया गया है। इसलिए उनमें भी रोष पनप रहा है। जब केन्द्रीय सरकार ने निर्णय कर ही लिया है तो राज्य सरकारों को भी एक बार ही निर्णय कर लेना चाहिए। संशोधन देना तो है ही तो लटका कर देने की तुक समझ में नहीं आती। बेहतर तो यह होगा कि पूरे भारत में पेंशन के एक जैसे नियम हों। कोर्ट-कचहरियों के चक्कर लगाने-लगवाने की नौबत ही न आए। कृषि विश्वविद्यालय का एक अध्यापक डा. नागेश्वर सिंह वर्षों अपने नियमितिकरण के लिए उच्च न्यायालय में केस लड़ता रहा और जब उसके नियमितिकरण के आदेश कोर्ट से आए, वह सेवानिवृत्त हो गया। क्या विडंबना है। एक-दो ऐसे और केस भी अभी चले हुए हैं। कोर्ट में जाने पर जहां वादी का धन व्यय होता है, वहीं संस्था का भी अनावश्यक धन एवं शक्ति खर्च हो जाती है। बदला लेने की नीयत से किए गए निर्णय वास्तव में समाज एवं देश का अहित ही करते हैं। लोग अब पुरानी पंेशन की आवाज उठाने लगे हैं। अच्छी बात है, परंतु विवेकपूर्ण निर्णय ही स्वस्थ परंपरा को जन्म दे सकते हैं, अन्यथा यह हाय-तौबा चलती ही रहेगी। समस्त भारत में शिक्षण संस्थानों में एक से ही नियम लागू हों तो अनेक समस्याओं से बचा जा सकेगा। सरकार को यह समस्या जल्द से जल्द हल करनी चाहिए।
डा. सुशील कुमार फुल्ल
वरिष्ठ साहित्यकार

सोर्स- divyahimachal


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