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बल्कि मतपेटी का फैसला ही अंतिम होना चाहिए।
अक्सर हमें सोशल मीडिया की तीखी आलोचना सुनने को मिलती है और यह कि कैसे यह समाज में कई बुराइयों के लिए जिम्मेदार है। लेकिन हमेशा से मेरा मानना है कि आधुनिक तकनीक में कुछ भी न तो सौ फीसदी सही होता है और न ही सौ फीसदी गलत। यह सब उपयोगकर्ताओं और भेजे जा रहे संदेशों पर निर्भर है। अगर सोशल मीडिया न होता, तो लापता भारतीय नागरिक हमीदा बानो नहीं मिलतीं, जो अब अपने घर लौटने का इंतजार कर रही हैं। वह 20 साल से गायब थीं, लेकिन अब सोशल मीडिया ही उनके सपनों को पूरा करने में मदद कर रहा है।
यह एक लंबी कहानी है कि कैसे हमीदा बानो पाकिस्तान पहुंचीं, लेकिन जब एक व्यक्ति ने उनका वीडियो ऑनलाइन अपलोड किया, तो पाकिस्तान सरकार और इस्लामाबाद स्थित भारतीय उच्चायोग उनकी मदद करने के लिए आगे आया और अब उन्हें भारत भेजने की प्रक्रिया शुरू हो रही है। इससे पहले, जब एक अन्य मामले में एक बुजुर्ग भारतीय महिला विभाजन के दौरान छोड़े गए अपना घर देखने के लिए रावलपिंडी आना चाहती थीं, तो सोशल मीडिया ने ही उनकी पाकिस्तान यात्रा को साकार किया।
हालांकि पाकिस्तान और भारत, दोनों मुल्कों की नौकरशाही लालफीताशाही की गिरफ्त में है, लेकिन यह राजनेताओं तक पहुंच और लोगों का दबाव है, जिसने कई मामलों में मदद की है। याद कीजिए, जब 92 वर्षीय रीना वर्मा सोशल मीडिया के जरिये अपने दोनों तरफ के दोस्तों की मदद से रावलपिंडी आना चाहती थीं, तो पाकिस्तान की राज्यमंत्री हिना रब्बानी ने संज्ञान लिया और ट्वीट किया कि वह रीना वर्मा के लिए वीजा सुनिश्चित करेंगी। उनके सपने आखिरकार सच साबित हुए।
इस बीच, इस्लामाबाद में पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान से संबंधित एक नया राजनीतिक ड्रामा सामने आया है। कई तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं कि क्या उनकी पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए इंसाफ (पीटीआई) इमरान खान को छोड़कर कोई नया विकल्प तलाशेगी और क्या उन्हें पीटीआई के प्रमुख पद से हटा दिया जाएगा? आज इमरान खान अपने राजनीतिक करियर में सबसे बड़ी चुनौती का सामना कर रहे हैं, क्योंकि चुनाव आयोग ने उन पर विदेशी फंडिंग नियंत्रक कानूनों के उल्लंघन का आरोप लगाया है।
यह निर्णय चुनाव आयोग के तीनों सदस्यों ने सर्वसम्मति से लिया। मूल रूप से चुनाव आयोग ने इमरान खान पर पीटीआई की फंडिंग के स्रोतों की गलत घोषणा करने का आरोप लगाया है, जहां भारतीय और विदेशी व्यापारिक समूहों सहित विदेशी नागरिकों ने पीटीआई के लिए धन भेजा था। एक राजनीतिक विश्लेषक का कहना है, 'कानून तोड़ना और संविधान का उल्लंघन करना निश्चित रूप से इमरान खान के लिए कोई बड़ी बात नहीं है।'
दिलचस्प बात यह है कि इमरान खान के खिलाफ विदेशी फंडिंग का मामला आठ साल से लंबित था। इस पूरे समय और विशेष रूप से जब वह प्रधानमंत्री थे, इमरान खान ने देरी करने की रणनीति का इस्तेमाल किया और मामले को धीमा करने की पूरी कोशिश की। पद से हटने और यह जानने के बाद, कि इस मामले का फैसला आने वाला है, पूर्व प्रधानमंत्री ने मुख्य चुनाव आयुक्त को बर्खास्त करने की मांग की थी। इसमें कोई रहस्य नहीं कि सैन्य प्रतिष्ठान ने भी, जो तब इमरान खान के समर्थन में था, मामले को लटकाने में मदद की।
अब जब खान और सैन्य प्रतिष्ठान के बीच तनातनी है, जिसकी मदद से उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था, तो अचानक चुनाव आयोग का फैसला भी आ गया। पूर्व संपादक और एंकर मुहम्मद मलिक शायद इसे अच्छी तरह से समझाते हैं कि 'पाकिस्तान में अधिकांश घटनाओं को पूर्व-निर्धारित माना जाता है, अनुकूल फैसले के लिए राजनीतिक पर्दे पर युद्धरत पक्षों द्वारा अंपायर की मंजूरी पाने का खेल खेला जाता है।'
हालांकि वह बताते हैं कि अंपायर या प्रतिष्ठान क्रूरतापूर्वक अपने पसंदीदा चुन रहे हैं, कैनवास में हेराफेरी कर रहे हैं और पसंद के व्यक्ति को विजेता बना रहे हैं। लेकिन जैसा कि क्रम परिवर्तन के सभी मामलों में होता है, ऐसे बदलाव की अवधि छोटी होती है और आंतरिक क्षरण के विस्तार लेने में अधिक समय नहीं लगता है। चूंकि ऐसी व्यवस्थाएं कार्यकाल पूरा नहीं करतीं, इसलिए लोगों ने इमरान खान की सरकार को गिरते हुए भी देखा।
शाहबाज शरीफ सरकार और इमरान खान की पीटीआई, दोनों ने अब अदालतों का दरवाजा खटखटाया है। यह कानूनी लड़ाई लंबी चलेगी, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तुरंत आम चुनाव कराए जाने के कोई संकेत नहीं हैं। क्या देश में चुनाव से पहले अदालतों के फैसले आ जाएंगे? अब पीटीआई को प्रतिबंधित करने की चर्चा भी हो रही है, लेकिन बेहतर समझ से काम लेना चाहिए। पाकिस्तान के इतिहास से पता चलता है कि किसी भी राजनीतिक दल पर प्रतिबंध लगाना कभी कारगर नहीं रहा।
अतीत में असैन्य नेताओं और जनरलों, दोनों ने राजनीतिक दलों पर प्रतिबंध लगाया, लेकिन उनके प्रयास विफल रहे हैं। अलबत्ता इमरान खान द्वारा चुनाव आयोग के नियमों के उल्लंघन की गंभीरता के कारण उन्हें आजीवन अयोग्य ठहराए जाने का खतरा है। इससे वह अच्छी तरह से वाकिफ हैं और अब एक बार फिर से विशाल जलसों के जरिये पलटवार की कोशिश कर रहे हैं, जिसे अतीत में बहुत अनुकूल प्रतिक्रिया मिली है।
इमरान खान की सार्वजनिक बहादुरी के बावजूद उनकी 'स्वच्छ छवि' पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं की नजर में खराब हुई है, जो अब आने वाले हर दिन यह दिखाने के लिए पार्टी छोड़ रहे हैं कि पार्टी के फंड का गलत तरीके से इस्तेमाल किया गया और उसे निजी खाते में डाल दिया गया। अंग्रेजी दैनिक न्यूज इंटरनेशनल लिखता है कि आखिरकार अदालत का नहीं, बल्कि मतपेटी का फैसला ही अंतिम होना चाहिए।
सोर्स: अमर उजाला
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