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मैं जब भी फ्लाइट पकड़ने के लिए दिल्ली एयरपोर्ट जाता हूं तो दो तस्वीरें मेरा ध्यान खींच लेती हैं
सृजन पाल सिंह। मैं जब भी फ्लाइट पकड़ने के लिए दिल्ली एयरपोर्ट जाता हूं तो दो तस्वीरें मेरा ध्यान खींच लेती हैं। पहली तस्वीर उस विशालकाय, बहुमंजिला विश्वस्तरीय इमारत की दिखती है, जिसे हम भारत के शानदार विकास के एक प्रतीक के रूप में देखते हैं। दूसरी तस्वीर मैं अक्सर उन बुजुर्ग दंपत्तियों की देखता हूं, जो सुरक्षा, बैगेज और बोर्डिग की कतारों से गुजरते हुए अपने बैग को पकड़े, लंबे-लंबे कारिडोर और कतारों में आगे बढ़ने का संघर्ष करते नजर आते हैं। प्रवेश के समय मौसम की बेरहमी से लेकर पहली बार एस्केलेटर और आटोमेटिक वाक-वे का इस्तेमाल करने के डर तक, उनका संघर्ष वहां साफ दिखता है।
चमक-दमक भरा यह नया भारत पुराने भारत के ही खून-पसीने से बना है। ये पुराना भारत ही था, जो गड्ढों से भरी सिंगल रोड पर साइकिलों और स्कूटरों से अपना कर्तव्य किसी धर्म की तरह निभाने की मशक्कत करता था। बच्चों के भविष्य की खातिर पैसे बचाने के लिए वह अपने खर्चे कम करता था। अपने ऐशो-आराम पर विराम लगाकर 'नए भारत' के लिए किताबें, कंप्यूटर और उपकरण जुटाता और महंगे स्कूल की फीस भरता था। यह धरती के नीचे छिपे उन्हीं संघर्षो की नींव है, जिस पर नया भारत खड़ा है। हम अक्सर भारत के युवाओं की प्रशंसा करते हैं, लेकिन उतना ही अधिक हम बुजुर्ग भारत के बेहिसाब बलिदानों को अनदेखा करते हैं, जबकि उन्होंने ही वह बुनियादी संरचना बनाई, संस्थान स्थापित किए, परिवारों की परवरिश की, हमारे सबसे मुश्किल वक्त से लड़े और इसके बावजूद एक बेहतर भारत की उम्मीद नहीं छोड़ी।
आज भारत में करीब 14 करोड़ लोग ऐसे हैं, जिनकी उम्र 60 वर्ष से अधिक है। वे ऐसे माता-पिता, दादा-दादी और नाना-नानी हैं, जिन्होंने इस देश के विकास की गति को बनाए रखा। 2031 तक यह संख्या लगभग 20 करोड़ हो जाएगी। यानी प्रत्येक सातवां भारतीय इस आयु वर्ग का हिस्सा होगा। ऐसे में हमें उनकी समस्याओं का अभी से समाधान करने की दिशा में सक्रिय होना पड़ेगा। उनसे जुड़ी समस्याएं भी नाना प्रकार की हैं। प्रत्येक तीन में से दो बुजुर्ग किसी लंबी या असाध्य बीमारी से पीड़ित हैं। तीन में से एक अवसाद का शिकार है। प्रत्येक चार में से एक मामले में यही सामने आता है कि उन्हें चलने-फिरने में परेशानी होती है। कभी-कभी वे घर में ही गिर जाते हैं। कई मामलों में तो इस कारण मौत तक हो जाती है। ऐसे में अब इस सच्चाई का सामना करने का वक्त आ गया है कि न्यू इंडिया अपनी सोच-समझ और ऊर्जा का इस्तेमाल कर भारत को अपने अभिभावकों के अनुकूल बनाए। इसके लिए पांच सूत्रीय रणनीति खासी उपयोगी सिद्ध होगी।
सबसे पहले, हमें यह समझना होगा कि एयरपोर्ट जैसी सार्वजनिक जगहों पर और घर जैसे निजी स्थानों पर बुजुर्गो के सामने कौन-कौन सी समस्याएं आती हैं। विशेषकर सार्वजनिक स्थलों का इस प्रकार आडिट करना होगा कि वे बुजुर्गो के कितने अनुकूल हैं। दूसरा, अपनी मेडिकल और नर्सिग शिक्षा में हमें बुजुर्गो की देखभाल को एक अलग विषय के रूप में प्रोत्साहन देने की जरूरत है। इसमें मानसिक और भावनात् सहयोग के साथ ही बुढ़ापे के प्रति सम्मान पर जोर देना भी आवश्यक है। कोरोना संक्रमण जब चरम पर था, तब कई बुजुर्ग नागरिकों को वायरस के कारण अपने साथियों को गंवाने का दुख ङोलना पड़ा। उस समय बुजुर्गो की मौत से जुड़ी खबरें बहुत आम थीं। शारीरिक स्वास्थ्य, नौकरी से रिटायरमेंट, बच्चों का उनसे बहुत दूर रहना, उम्र के कारण लाचारियां, संगठित समुदायों की कमी एवं कुछ बच्चों द्वारा र्दुव्यवहार से उनकी भावनात्मक स्थिति और बिगड़ जाती है। इन सभी समस्याओं का हल मनोवैज्ञानिक और सामाजिक समस्याओं की तरह निकालना होगा।
तीसरा, बुजुर्गो के प्रति संवेदनशीलता और उनकी देखभाल स्कूली स्तर से ही हमारी शिक्षा में शामिल होनी चाहिए। हमारी मूल्य प्रणाली बुजुर्गो के प्रति सम्मान के आधार पर बनाई गई थी और उसे हमारे स्कूलों, हमारी फिल्मों और साहित्य के जरिये फिर से मजबूती देनी होगी। हाल में पद्म पुरस्कार पाने वालों में काशी के 125 वर्षीय योग गुरु स्वामी शिवानंद और 65 वर्षो तक वृक्षारोपण करने वाली 107 वर्षीय थिमक्का से युवाओं को परिचित कराना होगा, ताकि वे इन बुजुर्गो का सम्मान करें। आज की पीढ़ी को यह मालूम होना चाहिए कि जिन सुख-सुविधाओं को वे भोग रहे हैं, वे आखिर किनकी देन हैं?
चौथा, हमें ऐसे बुजुर्गो के लिए फिर से रोजगार अथवा सक्रिय रहने के विकल्प तलाशने होंगे, जिससे वे अर्थव्यवस्था में योगदान कर सकें। उनमें ऐसी ऊर्जा और दशकों का अनुभव है, जो महत्वपूर्ण है, किंतु उसका प्रयोग नहीं हो पाता है और उसका उपयोग देश के विकास के लिए किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, सेवानिवृत्त समुदाय की मदद शिक्षा क्षेत्र में लेने के लिए अवसरों की तलाश होनी चाहिए। देश के स्कूलों में लगभग 19 प्रतिशत या 11.16 लाख शिक्षकों के पद खाली हैं। ग्रामीण इलाकों में यह आंकड़ा करीब 69 प्रतिशत तक है। इसी प्रकार, अकाउंट्स, मेडिसिन और कानून के क्षेत्र में रिटायर्ड कर्मचारी महत्वपूर्ण बदलाव ला सकते हैं। बशर्ते हम उनसे काम लेने के लिए माडल तैयार कर लें। यह बुजुर्गो में संतुष्टि और पहचान की भावना उत्पन्न करने के साथ ही हमारी जीडीपी को भी विस्तार देगा।
पांचवां, उपरोक्त सुझावों को मूर्त रूप देने के लिए, हमें केंद्र और राज्यों के स्तर पर बुजुर्गो के कल्याण के लिए एक अलग मंत्रलय बनाने की जरूरत है। इस मंत्रलय के पास एक ऐसे नए भारत को स्वरूप देने के लिए जरूरी शक्तियां और संसाधन होने चाहिए, जो अपने बुजुर्गो का भलीभांति ख्याल रखता हो। बुजुर्गो का जीवन स्तर सुगम बनाने के लिए सरकार ने अपने स्तर पर कुछ प्रयास भी किए हैं, जैसे केंद्र सरकार ने बजट में प्रविधान किया कि पेंशन और ब्याज से होने वाली आय पर निर्भर वरिष्ठ नागरिकों को आयकर रिटर्न फाइल करने की जरूरत नहीं। करुणा और संवेदनशीलता से भरे ऐसे और प्रयास आवश्यक हैं।
Rani Sahu
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