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व्यावहारिक बने हमारी अफगान नीति: चीन-पाक साठगांठ से निपटने और अफगान में अपने हितों के लिए निकालना होगा तोड़
भूपेंद्र सिंह| करीब- दो दशक के बाद अफगानिस्तान पर तालिबान फिर से काबिज हो गया है। यह वही कट्टरवादी ताकत है जिसने अपने पिछले दौर में ओसामा बिन लादेन को पनाह दी थी, भारतीय विमान अपहरणकर्ताओं का मध्यस्थ बना और बामियान में बुद्ध की प्रतिमाएं तोड़ीं। तालिबान ने जिस रफ्तार से काबुल पर कब्जा जमाया और अपनी ताकत को दिखाया, उसका अनुमान किसी को नहीं था। अंतरराष्ट्रीय पटल पर यह एक बहुत बड़ी घटना है, जो भारत के दृष्टिकोण से और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। इस घटना के बाद दुनिया में शांति प्रहरी के रूप में अमेरिका की छवि में भारी गिरावट आई है। अफगानिस्तान में दो दशक तक चली लड़ाई में अमेरिका और उसके सहयोगियों ने करीब 70,000 सैनिक गंवाए। माना जा रहा है कि अमेरिका ने इस लड़ाई पर लगभग दो लाख करोड़ डालर खर्च किए। फिर भी युद्ध के अंत में अमेरिका एक भी सफलता नहीं गिना सकता। हां, उसने लादेन को जरूर मार गिराया, लेकिन वह भी अफगानिस्तान में नहीं, बल्कि पाकिस्तान में। इस बीच अमेरिका के खिलाफ नफरत से भरा कट्टरवाद लगातार नए ठिकाने ढूंढ रहा है।
यह मान लेना एक भूल होगी कि तालिबान की ताकत अब सीमित रहेगी। उसने उस अफगानिस्तान पर कब्जा जमाया है, जहां अमेरिकी समर्थन से दो दशकों तक सरकार चली। वहां अब पहले से बेहतर इंफ्रास्ट्रक्टर है। अमेरिकी हथियारों समेत आधुनिक सैन्य बल है, जो सीधे तालिबान की झोली में आ गया है। संभव है अब अमेरिका और पश्चिमी देश वहां से दूर ही रहेंगे, जिसके कारण तालिबानी तौर-तरीकों का रास्ता रोकने वाली कोई भी सैन्य शक्ति नहीं रहेगी। वर्ष 2022 और उसके बाद इस बात की आशंका है कि तालिबान अन्य आतंकी संगठनों को प्रशिक्षण, हथियार और पैसा देकर इजरायल और भारत के राष्ट्रीय मामलों में हस्तक्षेप करेगा। आशंका है कि तालिबान के कट्टर समर्थक पाकिस्तान और कई अन्य पक्ष तमाम संवेदनशील मुद्दों को लेकर हावी हो जाएंगे। इनमें फलस्तीन भी शामिल है। अब वह उस खलीफा की स्थापना करने का प्रयास करेगा, जिसकी कोशिश आइएस ने की थी। आइएस के पास लंबी लड़ाई के लिए संसाधन नहीं थे, जबकि तालिबान के पास तीन करोड़ लोगों का अपना साम्राज्य है।
वर्ष 1996 में जब तालिबान पहली बार सत्ता में आया तभी से पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ और पाकिस्तानी सरकार उसे पैसा मुहैया कराने के साथ ही बढ़ावा भी दे रहे थे। अब दुनिया और खास तौर पर भारत के लिए चिंता इस बात को लेकर और बढ़ गई है कि अफगानिस्तान में नया तालिबानी शासन चीन की आर्थिक कठपुतली बनने की राह पर है। अगस्त के आरंभ में ही चीन ने स्पष्ट कर दिया था कि वह तालिबान को अफगानिस्तान के वैध शासक की मान्यता दे देगा। हाल में उसने बड़ी तेजी से अफगानिस्तान को लेकर अपनी आर्थिक दिलचस्पी बढ़ा दी है। चीन उस वखान कारिडोर की सड़क को पूरा करने में लगा है, जहां जमीन की एक पतली सी पट्टी चीन-अफगानिस्तान को जोड़ती है। चीन की नजर में अफगानिस्तान वह देश है, जिससे खनिज निकाल कर वह अपने उद्योगों को तेजी से दौड़ा सकता है। पूरे एशिया को जोड़ने वाला उसका महत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट भी अफगानिस्तान से गुजरता है। पाकिस्तान के साथ ही नया तालिबान निश्चित तौर पर हमारे चारों ओर की गई चीनी घेराबंदी का हिस्सा बन जाएगा और फिर चीन उसका इस्तेमाल हमारे खिलाफ करेगा।
ऐसे में भारत को बड़ी सावधानी से कदम बढ़ाने होंगे। हमें तालिबान के साथ कूटनीतिक माध्यम को बिना समय गंवाए मजबूत करना होगा। माना कि वह भारत का विरोधी है, लेकिन अभी उसके साथ बातचीत और कूटनीति संबंध रखने में ही बुद्धिमानी है। अगर हम अतीत को देखें तो पाएंगे कि तालिबान अराजक और अनुशासनहीन आतंकी संगठन रहा है, जिसके भीतर ही कई खेमे हैं। अब तक वे एकजुट थे, क्योंकि उन सभी का दुश्मन अमेरिका था, पर अब वह जा चुका है। लिहाजा तालिबानी मुजाहिदीनों में पुरानी और नई पीढ़ी के बीच टकराव होना निश्चित है। भविष्य में होने वाले ऐसे किसी भी कलह का लाभ उठाने के लिए हमारा काबुल में मौजूद रहना जरूरी है। अफगानिस्तान में विकास की परियोजनाओं में हमने अब तक 22,000 करोड़ रुपये का निवेश किया है। हमने अफगानियों के लिए कारोबार और तकनीकी सहयोग के रास्ते खोले हैं। हमें संपर्क के इन माध्यमों को बनाए रखना होगा। नए तालिबान को नया आर्थिक साझीदार बनाने का प्रयास करना होगा।
हमें इस घटना से उत्पन्न व्यापक भू-राजनीतिक परिस्थिति पर भी नजर रखनी होगी। अमेरिका अब इराक और अफगानिस्तान से जा चुका है, जबकि पाकिस्तान चीन के खेमे में चला गया है। अमेरिका को एशिया में एक मजबूत लोकतांत्रिक सहयोगी की जरूरत होगी। भारत ही उस कमी को पूरा कर सकता है। यूरोपीय देश अब भी कोविड-19 को लेकर उलझन में हैं। उन्हें भी एक नए व्यापारिक साझीदार की खोज है। चीन की परियोजनाओं से अफ्रीकी देशों का मोहभंग हो चुका है, क्योंकि उनके कारण वे भारी कर्ज में डूब गए हैं। अब वहां के बड़े-बड़े निवेशकों की नजर आर्थिक और राजनीतिक केंद्र के रूप में भारत पर है। अगर हमने सही दांव खेला तो भारत में विदेशी निवेश की बरसात हो सकती है।
कुल मिलाकर देखें तो अगले कुछ वर्षों में दुनिया में कुछ बड़े बदलाव होंगे। अमेरिका और यूरोप की ताकत कम होगी, जबकि चीन और भारत जैसे प्रतिस्पर्धी एशियाई देशों का एक नया युग शुरू होगा। ऐसे में भारत को भविष्य के लिए सारे विकल्प खुले रखने होंगे। हमें अपने हितों को लेकर सजग, लचीला और मुखर रहना होगा।