सम्पादकीय

विपक्ष आपस में उलझा है और नीतीश नीति आयोग से

Gulabi
6 Oct 2021 12:10 PM GMT
विपक्ष आपस में उलझा है और नीतीश नीति आयोग से
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नीतीश नीति आयोग से

इन दिनों नीति आयोग की रिपोर्टों ने बिहार सरकार के नाक में दम कर रखा है. बिहार के मंत्रियों को लगातार मीडिया को बताना पड़ रहा है कि बिहार इन रिपोर्टों में क्यों पिछड़ा दिख रहा है. सोमवार, 4 अक्तूबर 2021 को तो खुद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मीडिया के सामने आकर इन रिपोर्टों की वैधानिकता पर सवाल उठा दिया. उन्होंने कहा कि देश के सभी राज्यों को एक ही कैटोगरी में रखकर रिपोर्ट बनाना सही नहीं. वे चाहते हैं कि नीति आयोग गरीब राज्यों की अलग कैटोगरी बनाए. इसके साथ ही, उन्होंने यह भी कहा कि 15 साल पहले बिहार में स्वास्थ्य सुविधाओं की जो स्थिति थी, हम उससे बिहार को काफी आगे लेकर आए हैं.


इन रिपोर्ट को लेकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का सामने आकर मीडिया को संबोधित करना साफ बताता है कि यह मुद्दा गंभीर है और इससे बिहार सरकार की क्रेडिबिलिटी पर सवाल उठ रहे हैं. मगर दुर्भाग्यवश बिहार का कोई भी विपक्षी दल इन मुद्दों पर बात करता नजर नहीं आ रहा. इसको लेकर कहीं कोई सवाल नहीं है. विपक्षी दल इनदिनों आपसी झगड़े में उलझे हैं.

इन दिनों, बिहार की मीडिया में महागठबंधन टूटने की खबरें हर तरफ हैं. हाल ही में होने वाले उपचुनाव को लेकर राजद और कांग्रेस के बीच तकरार चल रही है. इन दो सीटों में से एक कुशेश्वर स्थान की सीट पर कांग्रेस का दावा था, मगर दोनों सीट पर राजद ने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी. कांग्रेस ने जब देखा कि राजद ने उससे पूछे बगैर अपने उम्मीदवार उतार दिये तो अब कांग्रेस भी दोनों सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार रही है. कांग्रेस कहती है, हमारे पास चारा ही क्या है, जबकि राजद के प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह कहते हैं, हमने तीन बार फोन लगाया मगर बात नहीं हुई. मसला जो भी हो, मगर सच यही है कि विपक्ष भी चुनावी राजनीति में उलझ कर खंडित हो रहा है, उसके पास जनता के सवालों को उठाने का वक्त नहीं है.

यह मसला सिर्फ महागठबंधन के दो धड़ों के आपसी तकरार का नहीं है. पिछली सरकार में स्वास्थ्य मंत्री रह चुके तेजप्रताप यादव के पास भी इन सवालों के लिए फुरसत नहीं है. वे इन दिनों अपने पारिवारिक और राजनीतिक सवालों में उलझे हैं. हाल ही में उन्होंने अपनी ही पार्टी के कुछ नेताओं पर बड़ा आरोप लगाया कि उन लोगों ने उनके पिता और राजद संस्थापक लालू प्रसाद यादव को दिल्ली में बंधक बना लिया है, वे उनसे किसी को मिलने नहीं देते हैं. यह भी विशुद्ध राजनीतिक लड़ाई है. वे इस लड़ाई को अपने परिवार के बीच लड़ रहे हैं. उन्हें लगता है कि लालू यादव के सबसे बड़े बेटे होने के बावजूद पार्टी में उन्हें लगातार हाशिये पर डाला जा रहा है. यह काम उनके छोटे भाई तेजस्वी यादव और उसके सलाहकार कर रहे हैं.
तेजप्रताप यादव ने अगर अभी अपने अस्तित्व की लड़ाई नहीं लड़ी तो उनका राजनीतिक जीवन शुरू होने से पहले खत्म हो जायेगा. हालांकि उन्होंने जैसे मुद्दे को उठाया है, उससे उन्होंने सत्तापक्ष को बैठे-बिठाये हंसी मजाक का एक मुद्दा थमा दिया है. यह स्थिति सिर्फ राजद और कांग्रेस की ही नहीं है. लोजपा का भी वही हाल है. वहां भी पार्टी पर कब्जा करने के लिए स्व. रामविलास पासवान के दो परिजन आपस में उलझे हुए हैं. एक तरफ उनके बेटे चिराग पासवान हैं, तो दूसरी तरफ भाई पशुपति पारस. दोनों आपस में उलझें हैं, इस बीच चुनाव आयोग ने उनके चुनाव चिह्न को सील कर लिया है. कुल मिलाकर तमाम विपक्षी दल अपने राजनीतिक अस्तित्व को लेकर चिंतित हैं, उन्हें जनता के असली मुद्दों को लेकर कोई चिंता नहीं है. कुछ नेता जरूर बयान जारी कर रहे हैं, मगर ये बयान रस्मी ही हैं.

देखा जाये तो बिहार में भाजपा को छोड़कर सभी राजनीतिक दल कहीं न कहीं उलझे हैं और परेशान हैं. कुद जदयू बिहार के लिए स्पेशल कैटोगरी और नीति आयोग के सवालों में उलझी नजर आ रही है. किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा है कि वे इस स्थिति से कैसे बाहर निकलें. यह इसलिए भी है कि खुद राज्य का विपक्ष इन दिनों सुविधा की राजनीति का आदी हो गया है. वामदलों के कुछ नेताओं को छोड़ दिया जाये तो ज्यादातर दलों ने आमलोगों के सवाल पर लड़ना लगभग छोड़ ही दिया है. वे सिर्फ रस्मी बयान और राजनीतिक तू-तू, मैं-मैं करते हैं. वे जमीन पर नहीं उतरते. वे भूल गये हैं कि बिना जमीन पर उतरे और जनता के दुखों के साथ खड़े हुए, राजनीति पक्की नहीं होती.


इन दिनों लगभग पूरा बिहार यूरिया के संकट से परेशान है. खेती सर पर है और किसानों को समझ नहीं आ रहा कि उन्हें यूरिया कैसे मिले. मगर यह किसी का मुद्दा नहीं है. अलग-अलग जातियों, इलाकों और खानों में बंटी जनता केवल कष्ट भोग रही है, चुपचाप. कोई दल उन्हें एकजुट करने और उनके सवालों को एक साथ बड़े मंच पर उठाने की तैयारी नहीं कर रहा. हर कोई इस इंतजार में है कि जनता के बीच से ही कोई आंदोलन निकलेगा जो बैठे-बिठाये उन्हें सत्ता थमा देगा.

2020 के विधानसभा चुनाव में भी वही हुआ. युवाओं ने बेरोजगारी को लेकर आंदोलन खड़ा किया, उन्होंने नौकरी की मांग की. विपक्ष पूरे पांच साल मौन रहा और आखिर में चुनाव के वक्त इस आंदोलन की सवारी कर मैदान में उतर गया. इन दिनों राजनीतिक दलों ने इसे एक सेट फार्मूला मान लिया है. मगर यह सुविधा की राजनीति बार-बार असफल होती है और लगातार असफलता के बावजूद विपक्ष इससे सीखने को तैयार नहीं है.



(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)

पुष्यमित्र, लेखक एवं पत्रकार
स्वतंत्र पत्रकार व लेखक. विभिन्न अखबारों में 15 साल काम किया है. 'रुकतापुर' समेत कई किताबें लिख चुके हैं. समाज, राजनीति और संस्कृति पर पढ़ने-लिखने में रुचि.
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