सम्पादकीय

खिड़कियां खोलो, रोशनी आने दो

Rani Sahu
24 Aug 2022 6:59 PM GMT
खिड़कियां खोलो, रोशनी आने दो
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एक दिन जिस तरह एक चेहरा विहीन वायरस के भय से सब कुछ बंद करके इस भीड़ भरे देश को एक मौन सन्नाटे में धकेल दिया था
सुरेश सेठ
sethsuresh25U@gmail.कॉम

By: divyahimachal

एक दिन जिस तरह एक चेहरा विहीन वायरस के भय से सब कुछ बंद करके इस भीड़ भरे देश को एक मौन सन्नाटे में धकेल दिया था, उस अंधेरे में पत्थर फेंक अंधेरा तोडऩे का आह्वान हो रहा है। सआदत हसन मण्टो की अप्रतिम कहानी 'खोल दो' की याद आने लगी। विभाजन के इन आसुरी दिनों में एक मासूम लडक़ी नरपशु दंगाइयों के क्रमबद्ध दुष्कर्म की वेदना झेलती हुई अस्पताल तक चली आई। उसे अंधेरे कमरे में डाल दिया गया। डाक्टर उपचार के लिए आया। अंधेरे में कुछ न देख सकने के कारण उसने परिचारकों से कहा, 'खिड़कियां खोल दो, रोशनी आने दो।' उत्पीडि़त लडक़ी के कानों में आवाज़ पड़ी। निष्प्राण बदन में जान आई। कांपते हाथों से उसने अपना इजारबंद फिर खोल दिया। डाक्टर का सिर लज्जा से झुक गया। परिचर्या स्टाफ शर्म से गढ़ गया। मण्टों की कहानी की बात छोडिय़े।
आसुरी शक्तियों के हमले तो ऐसे ही होते हैं। कहां से आया था यह संहारक और संक्रामक वायरस। देखते ही देखते इसने सारी दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले लिया था। सम्पन्नता सन्न रह गई। बहुमंजि़ली इमारतों के शीर्ष भय से झुक गए। संक्रमण का एक बवाल मृत्यु का पैगाम ले पूरी दुनिया में लहराने लगा। दफ्तरों से लेकर प्रयोगशालाओं तक, मिलों से लेकर खेत-खलिहानों तक मनहूस मुर्दनी एक डरावनी चुप्पी बन कर पसर गई। धनी मानी इलाकों में भी भूखों के झुण्ड जि़न्दगी जीने की तलाश में जुटने लगे। विज्ञान शर्मिदा हो गया। उसके पास औषधि की तलाश की विज्ञप्तियां थीं, औषधि नहीं थी। मौत से जूझने के इश्तिहार थे, लेकिन उसके बाद संग्राम के नाम पर लाशों के ढेर थे, कि जिनके कफन-दफन की भी कोई व्यवस्था न थी। भारत इन्द्रधनुषी सपनों के माया जाल में जीता है। रोशनी की तलाश में उसे पिछली पौन सदी से अंधेरे को रोशनी मानने की आदत हो गई है। विकास और प्रगति के नाम पर उसे उसके आंकड़े जीने की आदत हो गई है। मौत का अंधेरा घना होता जा रहा था। मारक संक्रमण के सिपहसालार विकास के साथ दुष्कर्म करने लगे, देश के हर राज्य में। इस अंधेरे को भगाने के लिए आओ दीये जलाएं, कहा गया। लेकिन दीयों की रोशनी में धूमधड़क्का तो नहीं होता न। इसलिए यारों ने उसके साथ पटाखों की विजयदशमी मना ली। लेकिन सब कुछ बेअसर। मौन निश्चल होती किसी अंधेरे बिस्तर पर पड़ी देश की अर्थव्यवस्था की तरह। पूरे माहौल में बीमारी से अधिक भुखमरी का क्रंदन फैल गया। लुटे-पिटे बेसहारा लोग हर अगले दिन को और भी आदमखोर हो जाता देखते रहे, छुट गए हाथ के हंसिये हथौड़े।
छिन गईं सिर की छतें। मंजि़ल की तलाश में निकले थे, अब प्राप्त मंजि़लें भी जैसे अजनबी हो गईं। लाखों की भीड़ अपनी जड़ों से उखड़ गई। उसे कहां जाना है, किसी को खबर नहीं। बस, नंगे पांव, कंधों पर परिवार लादे, पैदल पथ की पहचान न करते हुए राह के छालों को गले लगाते नजऱ आने लगे। यह मेहनत की पराकाष्ठा नहीं, एक बार फिर से रोज़ी-रोटी के लिए हाथ फैलाने की नौबत थी। अंधेरे में भटकते हुए यह कारवां दिशाहीन हो गए। बाहुबली हो जाने वाली अर्थव्यवस्था इस अभागी लडक़ी की तरह दीनहीन बनी कि जिसकी जि़न्दगी की अंधेरी बंद खिड़कियों और कमरों को देख कर किसी स्वनाम-धन्य डाक्टर ने कभी इसके लिए कहा था, 'खोल दो।' लेकिन एक बदहाल अर्थव्यवस्था एक नुची-पिटी लडक़ी तो नहीं होती, जो कुछ और सुने और कुछ और कर दे। खिड़कियां तो खुलनी ही थीं, खुल जाएंगी, रास्ते अवरुद्ध थे, इन्हें एक दिन तो खुलना ही था, खुल जाएंगे। लेकिन इन लस्त-पस्त कारवांओं को कैसे तलाश कर फिर वापस लाओगे, जो इस गहरे होते अंधेरे से बनवास लेकर रोशनी की आस की ओर बढ़ गए थे। उस ओर जहां एक और अंधेरा उनका इंतज़ार कर रहा था।
Rani Sahu

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