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बेसाख़्ता, बेशुमार और बेमिसाल रचने के बावजूद किसी लेखक-कलाकार की कोई कृति उसके जीवन का संग-ए-मील बन जाती है. हबीब तनवीर जैसे मकबूल रंगकर्मी
विनय उपाध्याय। बेसाख़्ता, बेशुमार और बेमिसाल रचने के बावजूद किसी लेखक-कलाकार की कोई कृति उसके जीवन का संग-ए-मील बन जाती है. हबीब तनवीर जैसे मकबूल रंगकर्मी, शायर और लेखक की काबिलियत और शोहरत को भी पैमानों में नहीं नापा जा सकता, लेकिन उनके बेशुमार लिखे और खेले गये नाटकों में एक नाटक ऐसा था, जिसने अनेक कोटियों पर सफलता का परचम फहराया. वो था- 'आगरा बाज़ार'. समय का फेर देखिये कि अब न तो हबीब तनवीर और न ही उस नाटक के अहम कि़रदारों को जीने वाले वो कलाकार रहे.
हबीब तनवीर के अरमानों का 'नया थिएटर' भी अब कमोबेश ख़ामोश है. लेकिन 'आगरा बाज़ार' के कि़स्से, उससे जुड़ी यादें अब भी अपनी चहक-महक के बीच गुजि़श्ता लम्हों को लौटा लाती हैं. जीवन की तरह रंगमंच की इबारत भी मुश्किल है. वह संभावनाओं का खुला आकाश है, जहां यथार्थ और कल्पना की ऊंची उड़ानें भरी जा सकती हैं. हिन्दी नाटकों के आधुनिक इतिहास में 'आगरा बाज़ार' एक ऐसी ही मिसाल बना. हबीब तनवीर की रंगयात्रा का एक ख़ूबसूरत पड़ाव.
उर्दू-हिन्दी के मेलजोल से अठारहवीं सदी में आम फ़हम कविता कहने वाले शायर नज़ीर अकबराबादी की नज़्मों को नाट्य रूपक के बतौर पेश करते हुए हबीब तनवीर ने शायरी, संगीत, अभिनय और निर्देशन का बेहतर रसायन तैयार किया. यह प्रयोग दर्शकों को इतना पसंद आया कि मंचन की कई पुनरावृत्तियां हुईं. हालांकि बाद के बरसों में नाटक की पुरानी चमक वे नहीं लौटा पाए, लेकिन शोहरत की बुलंदियां छू चुके 'आगरा बाजार' की खुशबू से तारी होने की गरज दर्शकों पर सदा हावी थी.
नज़ीर की नज़्मों का कोलाज़
आगरा बाज़ार' के साथ कई कि़स्मों की दिलचस्पियां जुड़ी हैं. पहला तो यही कि वह सिर्फ नज़ीर की नज़्मों का कोलाज़ होकर भी रंगमंचीय अनुभवों से समृद्ध है, दूसरी खूबी है इसका संगीत, जिसमें राग-रागिनियों की छौंक के साथ ही छत्तीसगढ़ी लोक संगीत की सुगंध भी रची-बसी है. यह भी कि इस नाटक का दृर्श्यांकन और अभिनय भी बेहद कलात्मक सहजता लिए हैं. इन सबका बुनियादी आकल्पन करने वाले हबीब तनवीर के फ़न का असर पूरे नाटक को अलौकिक बनाता रहा.
दिलचस्प बुनावट वाले इस नाटक के मंच पर आगरा का बाज़ार है, जहां घोर मंदी छाई है और कुछ भी नहीं बिक रहा. एक ककड़ी वाले के दिमाग़ में यह बात आती है कि यदि कोई कवि उसकी ककड़ी के गुणों को बखानती कविता में लिख दे तो बिक्री ज़रूर बढ़ेगी. वो कई शायरों के पास जाता है पर कोई भी इस काम के लिए राज़ी नहीं होता. अंत में वह शायर नज़ीर के पास जाता है, जो फौरन उसका काम कर देते हैं. वह नज़ीर की लिखी ककड़ी पर कविता गाता हुआ आता है और उसके यहां ग्राहकों की भीड़ लग जाती है. फिर तो लड्डूवाला, तरबूज़ वाला आदि सब एक-एक करके वही करते हैं और जल्दी ही सारा बाज़ार नज़ीर के गीतों से गूंजने लगता है.
इस मुख्य कथ्य के बीच एक बेरोज़गार युवा की कहानी पिरोई गई है, जो एक गणिका के फेर में पड़ा हुआ है और जो अंत में उसी पुलिस इंस्पेक्टर के हत्थे चढ़ता है, जिसे कभी प्रेम के खेल में उसने परास्त किया था.
नज़ीर अकबराबादी की मानवीय शायरी के इर्द-गिर्द बुना गया यह नाटक
यह नाटक नज़ीर अकबराबादी की मानवीय शायरी के इर्द-गिर्द बुना गया है. नज़ीर सच्चे अर्थों में एक ऐसे जनकवि थे, जिसने ठेलेवालों, बनियों, भिखारियों, आवारा छोकरों की फ़रमाइश पर कई बार गीत लिखे, पर उन्हें कभी एकत्रित कर छपवाने के फेर में नहीं पड़े. उनके गीतों में लोक भाषा और अपभ्रन्शो के इस्तेमाल ने उन्हें उर्दू शायरी की मुख्य धारा से काट दिया था. उनके गीत उनकी मृत्यु के कई वर्षों बाद एक विद्वान द्वारा इत्तेफ़ाक़ से तब खोजे गए, जब एक भिखारी द्वारा गाए जा रहे नज़ीर के गीत पर उनका ध्यान गया.
नज़ीर की पोती के पास से कुछ गीत-शायरी प्राप्त हुए, जिन्हें फिर पुस्तकाकार छापा गया, किन्तु उनके लिखे गीतों का संभवतः बड़ा हिस्सा तो सदा के लिए खो ही चुका था. आगरा बाज़ार नाटक में नज़ीर स्वयं किरदार के रूप में उपस्थित नहीं होते, क्योंकि उनके जीवन संबंधी कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है. केवल इतना पता चलता है कि यह शायर बच्चों को पढ़ाकर जीवन यापन करता था और उसने लखनऊ के नवाब तथा अन्य चाहने वालों के द्वारा दिए गए निमंत्रण या कामों को हमेशा ठुकराया.
पतंग वाले की दुकान वह मुक़ाम है, जहां लोग इकट्ठे होकर नज़ीर के सरल, जनकेन्द्रित गीत गाते हैं, जबकि इसके ठीक उलट सामने की पुस्तक वाले की दुकान पर हमेशा दरबारी शायरी के संभ्रान्त स्वरूप पर चर्चा होती रहती हैं. इन दो ध्रुवों के बीच से बहती जीवन की धारा है कुम्हार, रहड़ीवाले, दुकान, वेष्याएं, दरबारी, आवारा और बेरोज़गार लोग. जीवन की इस रौनक से जो नज़ीर के गीतों में इतने विविध रूपों और रंगों में प्रकट होती है, उस पुस्तक की दुकान और वहां बैठने वाले विद्वान बिल्कुल अछूते बने रहते हैं.
गीत व नाट्य के समावेश का पहला सुविचारित प्रयोग था यह नाटक
1954 में लिखा और मंचित किया गया यह नाटक गीत व नाट्य तथा लोक व शहरी कलाकारों के समावेश का पहला सुविचारित प्रयोग था. क़रीब सात दशक हुए, इसके पहले मंचन में जामिया मिलिया के प्रबुद्ध शिक्षक व छात्र तथा निकटवर्ती ओखला गांव के लोगों ने अभिनय किया था. 1970 में कुछ छत्तीसगढ़ी कलाकारों के साथ इस नाटक को फिर से उठाया.
इस नाटक का सांगीतिक ताना-बाना लगभग वही 1954 वाला है, सिवाय, दो-चार गानों के. विशेष कर 'बंजारा नामा' गीत के जिसका समावेष 1970 में किया गया था. इस गाने की धुन भटिंडा के स्वर्गीय हुकुम चन्द्र खलीली द्वारा तैयार की गई थी जो इस नाटक में फ़कीर का अभिनय भी किया करते थे.
दो शताब्दी के आम भारतीय जीवन को समेटे है 'आगरा बाज़ार'
'आगरा बाज़ार' का फ़लक दो शताब्दी पहले के आम भारतीय जीवन को समेटे हैं, जिनकी ज़ुबान में शायरी कहने वाला नज़ीर अकबराबादी तब के कलमकारों और आलोचकों की बिरादरी में हाशिए पर था. लेकिन धर्म, सम्प्रदाय, जाति और ज़ुबान से ऊपर इंसानियत को तवज्जो देने वाला नज़ीर हर आम आदमी की रूह में अपनी पैठ रखता था. हबीब तनवीर ने नज़ीर की भूली-बिसरी इन्हीं कविताओं को खंगाला और उन्हें तरतीब से जोड़कर आगरे के बाजार की कल्पना की. पहले नज्में हावी थीं, लेकिन मुसलसल आलेख 'आगरा बाज़ार' हबीब तनवीर की जि़ंदगी में प्रतिष्ठा और प्रशंसा की नई चमक लेकर आया.
इस नाटक का ख्याल हबीब तनवीर को जामिया यात्रा के दौरान आज से अट्ठावन साल पहले 1954 में आया था. नज़ीर अकबराबादी की ख़बर न तो उन्हें आलोचकों ने दी, न बहुत सी किताबों में. उन्होंने इस आम फहम शायर के कलाम पढ़ रखे थे, लेकिन जामिया निवासी अपने मित्र परवेज की मदद से उन्होंने नज़ीर अकबरावादी की कुछ कविताएं पढ़ीं, तो लगा इसमें असल भारत की तस्वीर झिलमिलाती है. हबीब तनवीर ने भारी मशक्कत करते हुए नज़ीर की नज़में खोजीं और उन्हें सिलसिलेवार एक रूपक की शक्ल में पिरोया.
पूरी तरह नाटक न होकर भी इसमें जीवन का पूरा रस था. आगरा बाज़ार का पहला मंचन 19 और 20 अप्रैल 1954 को दिल्ली के रामलीला ग्राउंड पर खादी प्रदर्शनी के सभागार में हुआ था. तब 1, 3 और 5 रुपए के टिकट से दर्शकों ने इसे देखा था. पंद्रह नज़्मों और पचास पात्रों के साथ फैले इस नाटक का संगीत निर्देशन संगीतकार सतीश भाटिया ने किया था. जबकि, विख्यात सितार वादक पं. रविशंकर ने इसकी धुनों को संवारा था. इस नाटक की अपार सफलता ने हबीब तनवीर की प्रतिष्ठा में चार चांद लगा दिए.
समय के साथ निखरता गया मंच, होती रहीं तब्दीलियां
समय के साथ, प्रस्तुति में तब्दीलियां होती गईं. मंचन निखरता गया. आगरे के प्रति दिली मोहब्बत, अवाम का आपसी सौहार्द, एकता और इंसानियत का पैग़ाम इस नाटक का मूल है. ख़ुद मियां नज़ीर ने बयान किया है- 'अदना ग़रीब मुफ़लिस ज़रदार पैरते हैं, इस आगरे में क्या-क्या ऐ यार पैरते हैं.' हबीब तनवीर ने नज़ीर की शायरी के जखीरे से करीब डेढ़ दर्जन कविताओं को चुना और उन्हें मुकम्मल धुनों में पिरोकर पेश किया. शायरी और मौसिक़ी का यह मेलजोल पूरे नाटक को संवादी बना देता है. कथा के सूत्र हबीब तनवीर ने बड़ी ही सुरूचि से पिरोए और दृश्यों तथा मंच की बुनावट में इतनी जीवंतता गोया हम आगरे के बाज़ार में खड़े हैं.
सकारात्मक पहलुओं के बावजूद उन लोगों को थोड़ी निराशा थी, जिन्होंने इस नाटक के एक दशक पहले के प्रदर्शन देख रखे है. नाटक के किरदारों में प्राण फूंकने वाले अस्सी प्रतिशत से ज्यादा कलाकार अब प्रस्तुति से अनुपस्थित रहने लगे और कई बार हबीब तनवीर को औसत प्रतिभा के कलाकारों से ही काम चलाना पड़ा. कुछ 'नया थियेटर' छोड़ गए कुछ दुनिया से विदा हो गए और कुछ की उम्र शरीर और मन पर हावी हो गई. नए अभिनेताओं में उत्साह जरूर रहा पर पात्र को अपनी नैसर्गिक प्रतिभा से जीने के कौशल की कमी साफ दिखाई देती. लिहाज़ा आगरा बाज़ार की आभा कुछ फीकी हो चली.
अलबत्ता हबीब तनवीर, गोविंद निर्मलकर, रविलाल सांगडे, उदयराम, नगीन, रामदयाल शर्मा, पुरूषोत्तम भट्ट, रामशंकर ऋषि, अमरदास मानिकपुरी मंच और मंच परे पूरी ताक़त और हुनर से जुटे रहे.
Rani Sahu
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