सम्पादकीय

चौधरी हरिराम के बहाने

Rani Sahu
6 March 2022 7:03 PM GMT
चौधरी हरिराम के बहाने
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राजनीति की उखड़ी सड़क पर और नेताओं की भीड़ में एक जयंती खामोश गुज़र गई

राजनीति की उखड़ी सड़क पर और नेताओं की भीड़ में एक जयंती खामोश गुज़र गई। न कोई संदेश छपा और न ही विमर्श की कोई जगह दिखी। चौधरी हरिराम के पथ पर बिखरे सन्नाटे का एक अर्थ कांग्रेस से जुड़ता है, तो दूसरा पिछड़ा वर्ग से। एक तीसरा पक्ष भी है जो कांगड़ा की सियासत को खुद में खुद को खोने का एहसास है। भले ही चौधरी हरिराम का जन्म आज के भौगोलिक आधार पर ऊना के खड्ड-पंजावर में देखा जाए, लेकिन वह कांगड़ा की विशालता में एक सशक्त व सर्वमान्य चेहरा रहे। आज कांगड़ा की राजनीतिक विडंबना यह है कि यहां सर्वमान्य होने के लक्षण खंडित किए जाते हैं, वरना अतीत में राहें पंडित सालिग राम, पंडित संत राम या सत महाजन के कद के मुताबिक सर्वमान्य रास्ता अख्तियार करतीं या पिछले चुनाव आते-आते जीएस बाली तथा सुधीर शर्मा को आपसी मतभेदों का शिकार न होना पड़ता। बहरहाल हरिराम में यह करिश्मा रहा कि वह वाईएस परमार के मंत्रिमंडल में कांगड़ा के हर पहलू को बांध सके और यह शोहरत उनके नाम रही कि वह शोषित, वंचित, दलित व अन्य पिछड़ा वर्ग के साथ-साथ समाज के उच्च व निम्न वर्ग के बीच सर्वमान्य रहे।

आश्चर्य यह कि एक मार्च के दिन जब उनकी जयंती को यादगार बनाते हुए कांगड़ा की सियासत में पिछड़ा वर्ग अपनी नब्ज तथा हैसियत को अंगीकार कर सकता है, चौधरी हरिराम की विरासत को जिंदा रखने की कोई कोशिश नहीं होती। यह दीगर है कि पंजाब सरकार ने अपने स्वर्ण जयंती समारोह में इस शख्सियत को सम्मानित किया, क्योंकि वह संयुक्त पंजाब में भी कांगड़ा की नुमाइंदगी करते हुए मंत्री रहे थे, लेकिन हिमाचल की यादें उनके नाम आज भी नहीं लिखी जा रही हैं। ऐसे नेता की उपेक्षा में एक बहुत बड़े राजनीतिक अध्याय और अन्य पिछड़ा वर्ग के समीकरणों की उपेक्षा भी हो रही है। आखिर कांगड़ा की चौधरी बिरादरी के संकल्प क्यों एक सर्वमान्य छत और बड़े नेताओं के आशीर्वाद और विरासत के नीचे समाहित नहीं हो रहे। कांगड़ा, हमीरपुर, ऊना और सोलन-सिरमौर तक ओबीसी के राजनीतिक सामर्थ्य में घिरथ, बाहती व चांहग को एक खास वरदहस्त हासिल है, लेकिन इसका गुणात्मक योगदान प्रदेश की सियासत में नहीं चमका। हर पार्टी में कुछ चेहरे जरूर चुने जाते हैं, लेकिन ओबीसी पहचान में राज्य की राजनीतिक ताकत सामने नहीं आई। कांगड़ा व हमीरपुर संसदीय क्षेत्र में ब्राह्मण व राजपूत विरोधाभास के बीच ओबीसी समाज ने अपनी मिट्टी बटोरने के बजाय दूसरी जातियों के समीकरणों को ही धराशायी किया है। नतीजतन कांगड़ा की लीडरशिप हमेशा लंगड़ी या कमजोर दिखाई दी। ब्राह्मण बनाम ओबीसी के सामाजिक व राजनीतिक दुष्परिणाम सामने आए हैं, लेकिन इसका लाभ अन्य जातियों और वर्गों को मिला यानी कांगड़ा में राजपूत और गद्दी नेता हावी हो गए।
आज के संदर्भ में भी ओबीसी सामर्थ्य से राजनीति का सकारात्मक रुख सामने आने के बजाय इसके नकारात्मक पहलुओं ने गद्दी व राजपूत नेताओं को काफी आगे पहुंचा दिया है। पंचायती चुनावों में यह पाया गया कि ओबीसी बहुल इलाकों में भी गद्दी उम्मीदवारों को सफलता मिली है। इतना ही नहीं, धर्मशाला व पालमपुर नगर निगमों में तीन वार्ड जनजातीय तौर पर आरक्षित हुए, लेकिन ओबीसी वर्ग के नाम पर कोई स्थान आरक्षित नहीं हुआ। ऐसे में सामाजिक तौर पर राजनीतिक उत्थान के मायने चौधरी हरिराम, चौधरी हरिदयाल व सरवण कुमार की विरासत से ही मिलेंगे। कद्दावर नेताओं को भूल कर कोई भी समाज अपने प्रतीक खड़े नहीं कर सकता। दूसरी ओर चौधरी हरिराम जैसी शख्सियत का देश की आजादी के इतिहास से रहा नाता, कांग्रेस की परंपराओं को पल्लवित करता है, तो इनकी जयंती को विस्मृत करना घोर अपराध होगा। यह समाज की समरसता, राष्ट्रीय मूल्यों और आपसी सद्भावना की अनिवार्यता है कि हिमाचल चौधरी हरिराम की जयंती को राज्य के फलक पर सम्मानजनक तरीके से मनाए।

क्रेडिट बाय दिव्याहिमाचल

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