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- कत्र्तव्य पथ पर
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राजपथ से कत्र्तव्य पथ बनते ही खास तरह की हवा का प्रसार हुआ है और भारतीय वातावरण में आया परिवर्तन आकाश से पाताल तक असर करने लगा है। सुना था राजपथ नाम के कारण यहां आते-जाते केवल आम लोग कत्र्तव्यहीन नहीं हुए, बल्कि जमीन के भीतर रेंगने वाले भी बिगड़ गए थे। कत्र्तव्य पथ होते ही रेंगने वाले भागने लगे और अब तक चलने वाले अपने पांवों को कोस रहे हैं। वैसे कत्र्तव्यहीन को कत्र्तव्यनिष्ठ बनाने के लिए कोई न कोई रास्ता चाहिए, इसलिए पूरे देश में सार्वजनिक निर्माण विभाग के कारण हम कत्र्तव्य परायणता सीख रहे होते हैं। यह दीगर है कि सडक़ें या पुल जब टूटते हैं, तो यह आम नागरिक की ही कत्र्तव्यहीनता है और यह बार-बार साबित होती है। बहरहाल अब तक राजपथ के नीचे दुबके सांपों के लिए कत्र्तव्य पथ के कारण खुद को सुरक्षित रख पाना मुश्किल होने लगा, सो इधर-उधर कूच कर गए। एक कत्र्तव्य पथ के कारण सांप तक को पता चल गया कि अब दिन बदल गए हैं, लिहाजा उसकी प्रजाति खुद ही बाहर हो गई। ऐसे ही सांपों में से एक हमारी बस्ती में पहुंच गया है, लेकिन वह किंकत्र्तव्यविमूढ़ है। देश के लिए यह सांप दार्शनिक सा हो गया है।
राजपथ से कत्र्तव्य पथ होते ही अगर सांप तक को आत्मग्लानि हो रही है, तो आजादी के इन वर्षों को सुधारने में हमें न जाने और कितने वर्ष चाहिए। बस्ती में पहुंचा सांप लगातार कांप रहा था। वह यह सोच कर चिंतातुर था कि कत्र्तव्य पथ के कारण कौनसी प्रवृत्ति पाले। सांप के लिए अब कत्र्तव्य इसलिए भी नहीं बचा क्योंकि जहर लिए कई लोग पहले ही बस्ती-बस्ती अपना काम कर रहे हैं और यह साबित हो चुका है कि इनसानी जहर कहीं ज्यादा असरदार है। बस्ती वालों ने जहरीले लोग देखे थे, लेकिन पहली बार उनके सामने सांप अपने जहर से डर रहा था। जहर त्याग कर वह कत्र्तव्यनिष्ठ होना चाहता था। हर सांप को इतना मालूम है कि कत्र्तव्य पथ हर नागरिक के लिए होगा, इसलिए अब सरकार का कत्र्तव्य भी जनता करेगी। जनता राष्ट्रवादी होकर कत्र्तव्य कर सकती या कर अदायगी करके देश के 'गरीबों' को मुफ्त की योजनाएं बांट सकती है। सांप की स्थिति देखकर बस्ती वालों ने प्रशासन से सुशासन की गुहार लगाई। बस्ती को उम्मीद थी कि कत्र्तव्य पथ से होते हुए प्रशासन तुरंत इस सांप को उसका कत्र्तव्य समझा देगा, लेकिन वहां प्रश्न सर्वप्रथम साइट विजिट हो गया। बस्ती इंतजार कर रही थी और भूखा सांप सोच रहा था कि उसे भी कोई ईनाम मिलेगा, लेकिन उधर साइट विजिट पर मंथन चल रहा था।
कुछ दिन बाद सरकार की ओर से छोटा बाबू यह देखने आया कि क्या बस्ती को प्रशासन के साइट विजिट के काबिल समझा जाए। बस्ती के कीचड़ में फंसे बाबू ने दिमागी जोर लगा कर देखा कि वहां तो सुशासन की गाड़ी नहीं पहुंच पाएगी, लिहाजा सांप को कत्र्तव्य सिखाने की फाइल पीडब्ल्यूडी के पास चली गई। पहली बार सांप धीरे-धीरे इनसान की तरह मर रहा था, लेकिन कत्र्तव्य की परंपरा में महकमा दर महकमा अपनी अनुमानित लागत में इजाफा करके बस्ती को नए पथ से जोड़ रहा था। इधर नया पथ बना, उधर कत्र्तव्य ढूंढ रहा सांप मर गया, लेकिन प्रशासन तब तक बस्ती पहुंच चुका था। अब यह फैसला नहीं हो रहा था कि मरे हुए सांप की जिम्मेदारी किस विभाग पर डाली जाए। जिंदा रहता तो वन विभाग का बजट कुछ कर पाता, लेकिन मरे का क्या करें। अंतत: बड़े प्रशासनिक अधिकारी ने सारी बस्ती के लोगों को कहा कि वे भी नए पथ को कत्र्तव्य पथ बना सकते हैं। सभी सदस्यों को काम सौंपते हुए सरकार के प्रतिनिधि ने आदेश दिया कि बारी-बारी मरे हुए सांप को गले में तब तक डाल रखें, जब तक कोई और सांप नहीं मिलता। उस दिन से सभी बस्तियों के लोग मरे हुए सांप गले में लटका कर खुद को कत्र्तव्यनिष्ठ बना रहे हैं और यह देखकर देश का सुशासन खुश हो रहा है।
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal
Rani Sahu
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