सम्पादकीय

एक तरफ कर्मठ मोदी और शाह हैं तो दूसरी तरफ सुविधा से राजनीति करने वाला विपक्ष

Gulabi Jagat
15 March 2022 8:34 AM GMT
एक तरफ कर्मठ मोदी और शाह हैं तो दूसरी तरफ सुविधा से राजनीति करने वाला विपक्ष
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हाल में हुए चुनावों में भाजपा की जीत का श्रेय नरेंद्र मोदी द्वारा निर्मित शक्तिशाली राजनीतिक मशीन को दिया जा रहा है
रुचिर शर्मा का कॉलम:
हाल में हुए चुनावों में भाजपा की जीत का श्रेय नरेंद्र मोदी द्वारा निर्मित शक्तिशाली राजनीतिक मशीन को दिया जा रहा है। लेकिन यूपी में प्रचार पर नजर रखते समय मेरा ध्यान इस बात ने खींचा कि जीतने की जैसी भूख मोदी, शाह, योगी में थी, वैसी उनके अधिकतर प्रतिद्वंद्वियों और विशेषकर कांग्रेस में नहीं दिखलाई दी।
एक तरफ कड़ी मेहनत करने वाले, सेल्फ-मेड राजनीतिक उद्यमी थे तो दूसरी तरफ एक पार्टी की पांचवीं पीढ़ी के नेता, जो राजमहलों से आए हैं, दार्शनिक विवेचन में तल्लीन रहते हैं, जिनकी चिंताओं के विषय उदारवादी हैं और जो छुट्‌टियां मनाने विदेश जाते हैं। चुनाव अभियानों में आप राहुल गांधी को देखें तो बरबस ही सोच बैठेंगे कि इस व्यक्ति को किसी और जगह पर होना चाहिए था, जहां वे मजे से किसी बड़े आदर्श के बारे में बातें कर पाते।
वहीं आप अमित शाह को देखें तो लगेगा जैसे वे इसी के लिए बनाए गए थे, जैसे उनके जीवन का आधार ही एक के बाद एक चुनाव जीतते चले जाना है और राजनीति ही उनकी प्राणशक्ति है। दोनों पार्टियों के बीच यह अंतर अनेक सालों से दिखलाई दे रहा था, लेकिन अब यह इतना बड़ा हो चुका है कि जब तक इसे राष्ट्रीय स्तर पर पाटा नहीं जाएगा, भाजपा के विजयरथ को रोका नहीं जा सकेगा।
अमेरिकी थिंकटैंक फ्रीडम हाउस ने पांच सालों तक भारत की रेटिंग घटाने के बाद बीते साल उसे आंशिक रूप से स्वतंत्र लोकतंत्र की श्रेणी में रख दिया। लेकिन भारत को कोई एक कथानक पूरा परिभाषित नहीं कर सकता। मोदी और शाह की रणनीतियां चाहे जो हों, उनकी कार्यशैली और उनका राजनीतिक रिकॉर्ड लोकतांत्रिक ही है।
वे मामूली पृष्ठभूमि से उभरकर सामने आए नेता हैं और उन्हें अनवरत काम करने वाले ऐसे नेताओं की तरह देखा जाता है, जिन्हें भ्रष्टाचार छू भी नहीं पाया है। आज भाजपा इकलौती ऐसी पार्टी है, जिसकी विचारधारा में निरंतरता है। मोदी और उनके मुख्य सहयोगी कांग्रेस को पश्चिमी विचारों की प्रतिनिधि पार्टी बतलाते हुए भारत को दुनिया के सामने एक हिंदू-प्रकाशस्तम्भ की तरह प्रस्तुत करना चाहते हैं।
जैसे-जैसे मोदी को अहसास होता जा रहा है कि इस विचार के स्वाभाविक समर्थक लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं, उनकी महत्वाकांक्षाएं भी बढ़ रही हैं। अब मोदी पहले से और नपे-तुले हो गए हैं। मैंने सोनभद्र में मोदी की एक चुनावी रैली अटेंड की थी, जिसमें उन्होंने राम मंदिर या हिंदुत्व को अपील करने वाली दूसरी चीजों का उल्लेख नहीं किया। यह जिम्मा उन्होंने योगी आदित्यनाथ और दूसरों को सौंप दिया।
वास्तव में मोदी की नजर दूसरी वैश्विक प्राथमिकताओं पर है। पाकिस्तान और चीन से सम्बंधों में तनाव आने के बाद वे यूएई, सऊदी अरब और मध्य-पूर्व के दूसरे देशों से व्यावसायिक सम्बंध मजबूत बनाने में जुटे हैं। वास्तव में गल्फ को-ऑपरेशन काउंसिल ब्लॉक हाल के सालों में भारत का सबसे बड़ा व्यावसायिक सहयोगी बन गया है। मोदी ने आर्थिक सुधारों और लोककल्याणकारी योजनाओं के लिए की गई मेहनत पर बात की।
उनकी बातों ने मतदाताओं के दिलों को छुआ। दूसरी तरफ प्रियंका गांधी हैं, जिनसे जब पूछा गया कि उन्होंने सक्रिय राजनीति में प्रवेश करने में इतना समय क्यों लिया, तो उन्होंने जवाब दिया- क्योंकि मैं अपने बच्चों के बड़े होने का इंतजार कर रही थी। यह एक ऐसे व्यक्ति का उत्तर था, जो काम और परिवार में से अपनी प्राथमिकताएं चुनता है, जबकि उनका सामना पूर्णकालिक राजनीति करने वाले धुरंधरों से है।
मोदी के सहयोगी बताते हैं कि राजनीति के अलावा मोदी को केवल एक चीज में रुचि है और वह है योग। वे निद्रा योग का अभ्यास करते हैं। इसी के चलते वे एक दिन में 18 घंटे तक काम कर लेते हैं। शाह भी इसी मिट्‌टी के बने हैं। वे हर निर्वाचन क्षेत्र के वोटिंग पैटर्न के चलते-फिरते एनसाइक्लोपीडिया हैं और अलसुबह तक बैठकें लेते रहते हैं। यह अकारण नहीं है कि पंजाब में 'आप' और बंगाल में टीएमसी ने जीत के लिए वैसी ही भूख दिखाई, तभी वे जीत सकी थीं।
चुनाव अभियानों में आप राहुल गांधी को देखें तो बरबस ही सोच बैठेंगे कि इस व्यक्ति को किसी और जगह पर होना चाहिए था, वहीं आप अमित शाह को देखें तो लगेगा जैसे वे चुनाव जीतने के लिए बनाए गए थे और राजनीति ही उनकी प्राणशक्ति है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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