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कोरोना समय ने जिन्दगी के हर पहलू में बदलाव कर दिया। चाहे वो आर्थिक क्षेत्र हो, काम करने का क्षेत्र हो या (रहन-सहन) लिविंग स्टाइल हो।
किरण चोपड़ा| कोरोना समय ने जिन्दगी के हर पहलू में बदलाव कर दिया। चाहे वो आर्थिक क्षेत्र हो, काम करने का क्षेत्र हो या (रहन-सहन) लिविंग स्टाइल हो। जैसे ही कोरोना आया भारतीयों को भारत की पुरानी संस्कृति से जोड़ना शुरू कर दिया। लोग योगा के महत्व के साथ-साथ तुलसी, इलायची, अदरक, नीम, ग्लोय, काहवा का महत्व समझने लगे। घर के खाने पर सबसे ज्यादा तव्वजो देने लगे। लोगों को समझ आने लगा कि दादी-नानी के नुस्खे ही कामयाब हैं।
परन्तु जैसे-जैसे समय बीत रहा है, लोग इतने तंग आ चुके हैं कि वो सुरक्षा को तो भूल ही रहे हैं, घर के खाने से भी तंग आ रहे हैं, विशेषकर युवा वर्ग। लेकिन हमारा यह मानना है कि समय के साथ हर किसी को बदलना भी चाहिए। बड़ी बात यह है कि बदलाव होना चाहिए परंतु जरूरत से ज्यादा बदलाव नहीं होना चाहिए। आज भी पुरानी चीजें पुरानी ही हैं और उनका महत्व जीवित है। कहने वालों ने आेल्ड इज गोल्ड भी कहा है जो गलत नहीं है। कोरोना ने हमारे हर रोज के आचरण में हमें मास्क लगाना सिखाया है। इसी तरह से खान-पान में बहुत कुछ बदला है लेकिन सोशल मीडिया इस बात का गवाह है कि खान-पान के मामले में हम जरूरत से ज्यादा ही बदल गए हैं। हमारे वीकेंड के मौके पर कभी-कभी बाहर से खाना मंगवाया जाता है। यह कोई बुरी बात भी नहीं। परंतु अब जबकि हमने लाकडाउन झेला, अनलॉक देखा, पहली-दूसरी लहर देखी, अपनों को गंवाया फिर भी खान-पान में जरूरत से ज्यादा परिवर्तन यह चौंकाने वाली बात है।
सही मानो तो भारत कभी भी ऐसी संस्कृति वाला देश नहीं था जहां 24x7 पीज्जा या अन्य खान-पान की चीजों की घरों में सप्लाई हो। लेकिन अब यह संस्कृति जन्म ले चुकी है और भारतीय लोग परम्परागत भोजन से दूर हो रहे हैं। यह परम्परागत रोटी ही थी जो हमारे इम्युनिटी िसस्टम को मजबूत बनाती थी। घर का बना खाना सब्जी और दालें, परांठे और अचार और इसी का आदान-प्रदान पड़ोस में खूब होता था। इससे यह बात स्थापित होती थी कि हमारा खान-पान और हमारी संस्कृति सांझी है। खाने-पीने की इस सांझा संस्कृति के चलते ही सांझा चूल्हा चला। एक मोहल्ले में एक कामन तंदूर होता था जिसमें सब अपनी-अपनी रोटी सेंक कर अपने परिवार के यहां ले जाते थे। सब्जियां और अचार एक-दूसरे के यहां देना-लेना यह हमारा कल्चर था। आज इसी अपनेपन की और इसी शुद्धता की जरूरत है। अच्छा खान-पान हमारे शरीर में इम्युनिटी बढ़ाता है। कोरोना के चलते इसकी सबसे ज्यदा जरूरत है। सोशल मीडिया पर घरों के बुजुर्ग एक-दूसरे से अपनी बातें शेयर करते हुए हफ्ते में चार दिन पिज्जा-पास्ता आने की बातों के बारे में आलोचना करते हैं जबकि आधुनिक पीढ़ी की महिलाओं के खाना न पकाने की प्रवृत्ति के जोर पकड़ने की बातें करते हुए उन्हें कोसते हैं। बाजारों में पैकिंग कल्चर बढ़ गया है। प्लास्टिक थैली का विरोध करने की बातें सरकारी तौर पर कितनी ही कह ली जाएं परंतु हमारे यहां पैकिंग कल्चर में सब चलता है। उस दिन सोशल मीडिया पर ही देख रही थी कि अनेक लोग अब घर की बनी चीजों को खाने-पीने की इस्तेमाल में लाने पर जोर दे रहे थे। कैसेे बासी रोटी इम्युनिटी बढ़ाती है, कैसे घर की दही इम्युनिटी को बढ़ाती है कोरोना काल में शरीर को ऊर्जावान बनाए रखने के टिप्स दिए जा रहे हैं, लेकिन इसी सोशल मीडिया पर लोग यह चिन्ता भी करते हुए दिखाए गए हैं कि किस प्रकार अब बाजार के कल्चर के खाने के प्रति क्रेज बढ़ रहा है।
सेहत बनाने के लिए अर्थात् बाडी बनाने के लिए जिम कल्चर और ड्रग्स का सेवन बढ़ने की खबरें भी सोशल मीडिया पर आ रही हैं। डायटिंग प्रवृत्ति बढ़ रही है बच्चों और यूथ में दूध का सेवन काफी हद तक खत्म हो गया है। बाजार में भी नकली दूध, नकली मावा, नकली मिठाई, नकली सब्जियां, नकली फल सिंट्रिक दही और सिंट्रिक दूध चल रहा है। स्वास्थ्य से खिलवाड़ हो रहा है। खान-पान का बदलता कल्चर और इम्युनिटी न बढ़ाने वाली चीजों का सेवन कोरोना को आमंत्रित कर रहा है। हमें खान-पान की उसी पुरानी परम्परा में उतरना होगा जो इम्युनिटी को बढ़ाती है। खान-पान में बदलाव समय की मांग हो सकती है परंतु जरूरत से ज्यादा बदलाव सेे बचना चाहिए और अपनी इम्युनिटी की तरफ ध्यान देना चाहिए। कोरोना काल में यही एक रास्ता हमें बचा सकता है।
कुल मिला कर हमारी आदर्श परिवार प्रणाली जो मिल-जुल कर खाने-पीने को सामूहिक करने पर केंद्रित है, वह प्रीति भोज का कल्चर अब समाप्त हो रहा है। मुंह के स्वाद के साथ-साथ मन की खुशी भी खान-पान के कल्चर में शामिल करनी चाहिए। यह हमारी इम्युनिटी बढ़ाती है। कोरोना काल की इस चुनौती में आओ खान-पान के पुराने कल्चर का डेवलप करें।
Triveni
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