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बहुत दिन नहीं बीते जब सभी सरकारी उपक्रमों में बड़े-बड़े बोर्ड लगे रहते थे कि रिश्वत लेना और देना अपराध है
सोर्स - divyahimachal
बहुत दिन नहीं बीते जब सभी सरकारी उपक्रमों में बड़े-बड़े बोर्ड लगे रहते थे कि रिश्वत लेना और देना अपराध है। इसके बाद भीख मांगना भी एक अपराध है, भी बहुत दिन तक घोषित रहा तो शहरों और कस्बों के चौराहों पर भिखारी ब्रिगेडों ने एक नियोजित ढंग से भीख मांगने को एक धंधा अपना लिया। इसके साथ ही साथ एक और वर्ग उभरा बीच के लोगों और मध्यजनों का वर्ग। ये लोग आपको हर सुविधा केन्द्र की असुविधा खत्म करने के लिए जनता जनार्दन और नौकरशाही के बीच एक पुल का काम करते ंिमल जाएंगे। सुविधा केन्द्रों से लेकर बड़े-बड़े देशी विदेशी व्यापार समझौते में इनका बोलबाला रहता है। जिसे कभी रिश्वत कहा जाता था, वह बालाई आमदन कहलाती रही, जिसमें से मरभुक्खों की मलाई की महक आने लगती थी। लेकिन वक्त की चाल के साथ अब रिश्वत लेना और देना एक अपराध है, की समझ इतनी बासी हो गई है कि यह एक ज़रूरी भुगतान बन गई है। व्यवसायी अपने बिलों में जीएसटी की हेराफेरी कर लें तो कर लें, रिश्वत की दर के इस अनिवार्य भुगतान से छुटकारा नहीं पा सकते।
अब तो इसे जेब गर्म करने का सभ्य नाम भी दे दिया गया है। जो इसकी भुगतान दरों की पूरी जानकारी नहीं रखता, उसे किसी आदि या आदिभौतिक काल का मानव मान लिया जाता है। कोरोना हो, महामारी हो, आप चेहरे पर संक्रमण से बचने के लिए नकाब पहने हों लेकिन ऊपर की आमदन का यह रूप स्वीकार करते हुए आज न किसी के हाथ मैले होते हैं और न किसी की अन्तरात्मा कचोटती है, बल्कि अगर कोई अपनी पंगु से पंगु कुर्सी से भी इस वसूली का वसीला न पैदा कर सके तो उसकी अन्तरात्मा उसे कचोटने लगती है। इन बातों से आजकल कोई नहीं चौंकता कि अब शहरों और कस्बों के चौराहों पर बड़े नियोजित ढंग से भीख मांगी जाती है। जैसे आजकल बीमारियों का वैश्वीकरण हो गया है, इसी प्रकार इसी भीख और खैरात को भी वैधानिक अथवा अंतरराष्ट्रीय स्वरूप दे दिया गया लगता है।
आजकल सरकारी मंचों से राष्ट्रीय नीतियों की घोषणा में भी वंचित और अभावग्रस्त लोगों के लिए नए काम धंधों की योजनाओं की घोषणा नहीं होती बल्कि इस दावे के साथ कि उनके राज्य में किसी को भूखा नहीं मरने दिया जाए, मुफ्त अनाज बांटने के महीने चढ़ाने की घोषणा कर देते हैं। लेकिन इस घोषणा के बावजूद वंचित और अभावग्रस्त लोगों के मरते हुए चेहरों पर कोई मुस्कान नहीं लौटती, बल्कि वे लोग मुस्कराते ही नहीं सामूहिक अहसास करते हैं, जिनकी यह खैरात बांटने पर ड्यूटी लगती है। तब पुराने मुहावरे सार्थक होने लगते हैं कि 'अन्धा बांटे रेवडि़यां, मुड़-मुड़ अपनों को दे।' और अपनों को देने के नाम पर भी आजकल राजनीतिक शतरंज होने लगी है। खैरात की ये रेवडि़यां नेतागण अपने-अपने चोर ठिकानों पर रखने लगे हैं। इन चोर ठिकानों पर प्रतिद्वंद्वी नेताओं के छापे पड़ रहे हैं कि देखो इस नेता ने अपनों को पटाने के लिए खैरात की रेवडि़यां यहां छिपा रखी हैं। वंचित तो इसकी भनक पाने के लिए तरस गए और नेताओं के समर्थक फजऱ्ी लाचारों के ओसारे इस खैरात से भर गए। इस बात पर अगर बहुत धूल उड़े तो एक और रास्ता निकल आता है। इसे न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी का रास्ता कहते हैं। बस यही घोषणा करते रहो कि तेल ही नौ मन नहीं हुआ, अब राधा कैसे नाच ले। जनाब, आज की इस राजनीति ने तो मध्यजनों के मुखौटे भी बदल दिए। अब इन्हें दलाल कहने की गुस्ताखी कोई नहीं करता। ये लोग राजनीति से लेकर सामाजिक उपलब्धियों का पुल बन गए हैं, मध्यजन कहलाते हैं। इनके बिना तो आज के सार्वजनिक जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
सुरेश सेठ
Rani Sahu
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