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- बोझ नहीं है बुढ़ापा
अतुल चतुर्वेदी: बुढ़ापा जीवन का सांध्य काल है। यह एक ऐसा दौर है, जिससे कभी न कभी सबको गुजरना है। कहते हैं कि बुढ़ापे में व्यक्ति बच्चों जैसा व्यवहार करने लगता है, लेकिन आज के संदर्भ में यह बात सच नहीं लगती। आज के दौर में बच्चे असमय सयाने होने लगे हैं, उनकी समझ को जल्दी ही पंख लग जाते हैं। अलबत्ता बूढ़े लोग समय के साथ कदम मिला कर न चलने के कारण पिछड़ते नजर आते हैं।
बहुत सारे बुजुर्ग ऐसे हैं, जिन्हें संघर्ष ने न केवल मजबूत बनाया, बल्कि सुशिक्षित होने के कारण परिस्थितियों से मुकाबला करने योग्य भी बनाया। ऐसे स्वाभिमानी और सक्रिय लोगों के साथ बढ़ती आयु संबंधी दिक्कतों के कारण जब शारीरिक परेशानियां आड़े आने लगती हैं, तो निर्भरता कचोटती है। वे अवसाद में जाने लगते हैं। अवसाद बुढ़ापे की विकट समस्या है। कई चिकित्सक इसे स्वीकार करते हैं। दरअसल, सामाजिकता एक आवश्यक पहलू है, जिसके बिना जीवन संभव नहीं है। पढ़ने-लिखने, सामाजिक संगठनों में भागीदारी या समवयस्कों में लगातार संवाद आपको नई ऊर्जा और प्राणवायु देता है। अकेलापन तिरोहित हो जाता है। जो सुख-दुख आप घर में साझा नहीं कर सकते उसे अपने मित्रों के साथ बांट कर अपना मन हल्का कर सकते हैं।
आज जीवन व्यावसायिक और आर्थिक चुनौतियों के आगे समर्पण करता जा रहा है। परिणामस्वरूप किसी के पास घर के बुजुर्गों की बात सुनने, उनके दुखड़े समझने का समय ही नहीं है। वे सुविधाएं जुटा सकते हैं, सहायक रख सकते हैं, लेकिन समय नहीं दे सकते। ऐसी स्थिति में बुजुर्ग व्यक्ति को जिस भावनात्मक और मानसिक राहत की जरूरत होती है, वह उससे वंचित रह जाता है। शारीरिक अक्षमता उसे कहीं आने-जाने नहीं देती।
वह महसूस करने लगता है कि दूसरों पर भार हो गया है। एक स्वाभिमानी व्यक्ति कभी यह पसंद नहीं करता, उसे संघर्ष की राह पसंद है। विनती और पलायन की नहीं। हमारे समाज की सोच भी बुजुर्गों को लेकर बहुत उत्साहजनक नहीं है। हम उनको जीते-जी हाशिए पर डाल देते हैं। जापान सर्वाधिक बूढ़े व्यक्तियों का देश है, वहां की सरकार उसी हिसाब से उनके लिए सुविधाएं मुहैया कराती हैं।
हमारे यहां बहुत-सी जगहों पर रैंप ही नहीं मिलेंगे कि उन्हें पहिएदार कुर्सी पर कहीं ले जाया जा सके। बुजुर्गों के लिए रेल में अब तो नीचे की सीट मिलना भी मुश्किल है। किराए में वरिष्ठ नागरिकों को छूट बंद कर के पंद्रह सौ करोड़ की बचत कर रेल विभाग अपनी पीठ भले थपथपा ले, लेकिन यह संवेदनशील रवैया नहीं कहलाएगा। अस्पतालों में लंबी कतारें लगी रहती हैं और अक्सर बैठने की समुचित व्यवस्था भी नहीं मिलती।
जो बुजुर्ग जीवन में कोई न कोई शौक या हाबी बनाए रखते हैं, उनके आयुजनित संघर्ष भी कम हो जाते हैं। मानसिक अवस्था का शारीरिक क्षमता पर बहुत प्रभाव पड़ता है। मेरे शहर में कई सक्रिय लेखक जीवन के आठवें और नौवें दशक में भी सफलतापूर्वक सक्रिय रहे। रचनाकारों और साथियों के बीच उनको नई ऊर्जा मिलती रही, वे गोष्ठियों और आयोजनों में जाते रहे। फिराक गोरखपुरी का शेर है- वास्ते जिंदगी के कोई रोग पाल लो/ सिर्फ सेहत के सहारे जिंदगी चलती नहीं।
जीवन में रचनात्मक शौक की भूमिका अहम होती है। व्यर्थ की चिंताओं और कष्टों से वह आपको न केवल दूर रखती, बल्कि बुढ़ापे में समय काटने की झंझट से भी मुक्त रखती है। घर के व्यक्तियों का रवैया भी इस अवस्था में सहानुभूतिपूर्ण और सकारात्मक होना चाहिए। दुर्भाग्य से हमारे परिवार आजकल आर्थिक चुनौतियों के कारण संयुक्त की जगह एकल परिवारों में तब्दील होते चले जा रहे हैं।
देश में वृद्धजनों की सेवा के लिए स्वयंसेवकों और चिकित्सा कर्मियों की भी कमी है। ऐसे में अकेलापन काटना एक समस्या बन जाता है। ऊंटपटांग विचार और नकारात्मकता घेरने लगती है। कुछ समय अगर संवाद और अपने किसी शौक को दिया जाए, तो इस व्याधि से मुक्ति मिल सकती है। मगर इसके लिए एकाकीपन छोड़ना तथा सामाजिकता का दायरा बढ़ाना होगा। संचार क्रांति ने आज संवाद के कई रास्ते उपलब्ध करवा दिए हैं, यह भी ऐसे एकाकी बुजुर्ग व्यक्तियों के लिए एक उम्मीद की किरण है, जहां से उनको दुनिया की ताजा हवा के झोंके का स्पर्श मिलता रहेगा।
हमारे घर के वरिष्ठजन अनुभव के कोष हैं। विचार और परंपरा की थाती हैं। हम उनको उपेक्षित न करें, बल्कि निराशा के अंधकार से निकाल कर लाएं। उनके अनुभवों का लाभ उठाएं, उनकी दृष्टि और विचारों की ताकत से अपना भावी पथ आलोकित करें, क्योंकि जो संघर्ष और जीवनानुभव उनके पास है, वह अमूल्य है, खो जाने वाला है। उसे सहेज कर रखना हमारी जरूरत भी है और कर्तव्य भी। आखिर कोई भी समाज कृतज्ञता से ही जाना जाता है, कृतघ्नता या पेशेवर नजरिए से नहीं।