सम्पादकीय

अब बॉलीवुड पर निशाना

Triveni
2 July 2021 3:21 AM GMT
अब बॉलीवुड पर निशाना
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आजादी के बाद विदेशों में जिन भारतीय उद्योगों ने अपनी खास पहचान बनाई, उनमें एक बॉलीवुड यानी भारत का फिल्म उद्योग भी है।

आजादी के बाद विदेशों में जिन भारतीय उद्योगों ने अपनी खास पहचान बनाई, उनमें एक बॉलीवुड यानी भारत का फिल्म उद्योग भी है। हलके-फुल्के मनोरंजन के लिए पहले एशिया से अफ्रीका तक और बाद में अमेरिका से लेकर चीन तक में बॉलीवुड की फिल्में और सितारे लोकप्रिय हुए। लेकिन 2016 में नोटबंदी के साथ उस उद्योग पर जो ग्रहण लगा, वह लगातार गहराता ही जा रहा है। कोरोना महामारी ने रही-सही कसर पूरी कर दी। हाल के वर्षों में गिनी-चुनी बड़े बजट की भव्य फिल्में ही परदे पर आई हैं। लेकिन समस्या सिर्फ आर्थिक नहीं है। वर्तमान सरकार के सत्ता में आने के बाद जिस तरह मुक्त अभिव्यक्ति का माहौल संकुचित हुआ, उसका असर भी बॉलीवुड पर रहा है। अब ये असर और संगीन होने वाला है। केंद्र सरकार ने अभी लागू चलचित्र अधिनियम-1952 में कुछ बदलाव प्रस्तावित किए हैं। संशोधन अधिनियम के मसविदे में सरकार को उन फिल्मों पर भी फिर से विचार करने की शक्ति देने का प्रस्ताव दिया गया है, जिन्हें केंद्रीय सेंसर बोर्ड पास कर चुका है। यानी सेंसर की आखिरी शक्ति औपचारिक रूप से पेशेवर कलाकारों के हाथ से निकल कर राजनेताओं के हाथ में आ जाएगी।

इस तरह सरकार अभी जो परोक्ष रूप से फिल्मी कंटेंट को प्रभावित कर रही है, उसे वह प्रत्यक्ष रूप से करने में सक्षम हो जाएगी। जाहिर है, यह प्रस्ताव समस्याग्रस्त है। फिल्म उद्योग का यह डर उचित है कि बोर्ड से पास की हुई फिल्मों को सेंसर करने की शक्ति अगर सरकार को मिल जाएगी, तो इससे फिल्मों में राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ेगा और अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला होगा। सेंसर बोर्ड सूचना और प्रसारण मंत्रालय के तहत एक वैधानिक संस्था है। इसके अध्यक्ष और सदस्यों को वैसे भी केंद्र सरकार ही नियुक्त करती है। अब स्पष्ट है कि सरकार फिल्म सर्टिफिकेशन प्रक्रिया पर अपना नियंत्रण और बढ़ाना चाह रही है। नए संशोधन से सरकार चाह रही है कि उसे ऐसी शक्ति मिल जाए कि जरूरत पड़ने पर वो सेंसर बोर्ड के फैसलों को भी पलट सके। ये कानून बना, तो बॉलीवुड की रही-सही हैसियत में भी सेंध लग जाएगी। फिल्म उद्योग से जुड़े करीब 1400 लोगों ने इस पर विरोध जताते हुए केंद्र को पत्र भेजा है। उसमें लिखा गया है कि इस कदम से अभिव्यक्ति की आजादी और लोकतांत्रिक असहमति खतरे में पड़ जाएंगी। ये आशंका निराधार नहीं है।


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