सम्पादकीय

धर्म संसद पर नोटिस

Rani Sahu
14 April 2022 7:09 PM GMT
धर्म संसद पर नोटिस
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अचानक ही सही, लेकिन हिमाचल में धर्म संसद के आलेप और आलेख उस समय सामने आ गए, जब माननीय उच्चतम न्यायालय प्रदेश सरकार को नोटिस थमा देता है

अचानक ही सही, लेकिन हिमाचल में धर्म संसद के आलेप और आलेख उस समय सामने आ गए, जब माननीय उच्चतम न्यायालय प्रदेश सरकार को नोटिस थमा देता है। हालांकि अदालत ने 17 अप्रैल के धर्म संसद पर त्वरित रोक नहीं लगाई है, फिर भी सरकार से इसके औचित्य और दायरे के बारे में सवाल उठ गया है। हैरानी यह कि प्रदेश के एक कोने में धर्म के विषय चुनने का माहौल तैयार हो रहा है और यह भी तब, जब सामने दीवारों पर आगामी चुनाव के पोस्टर लग रहे हैं। हिमाचल का सामाजिक व सियासी इतिहास अमूमन धर्म की पटकथा नहीं लिखता और न ही ऐसे जमावड़ों की संगत में आचरण पर कोई असर दिखाई देता है। यह भी तब जब प्रदेश की करीब 98 फीसदी आबादी हिंदू है और हिमाचल की जीवन पद्धति देव संस्कृति से आलोकित है। देवी-देवताओं के आदेश पर शुभ मुहूर्त ढूंढने वालों के लिए आज भी परंपराओं को निभाने की नैतिकता दिखाई देती है, लेकिन इसके बीच राजनीतिक प्राथमिकताएं नहीं आतीं। बाबरी मस्जिद विध्वंस के दौर में हिमाचल की शांता कुमार सरकार की आहुति भले ही दी गई हो, लेकिन धर्म के नाम पर इसकी वापसी नहीं हो सकी। यह दीगर है कि एकदफा स्की विलेज परियोजना के राजनीतिक विरोध में कुल्लू घाटी के देवी-देवताओं से जुड़ी आस्था का दुरुपयोग हो चुका है, लेकिन प्रायः ऐसा नहीं होता। लोकतांत्रिक परंपराओं में धर्म विशेष का कोई दखल आज तक इंगित नहीं हुआ, तो धर्म संसद के आयोजन की गोपनीयता पर आपत्ति उठाना स्वाभाविक है। धर्म संसद के विषयों पर एक बड़े वर्ग की सहमति हो सकती है, लेकिन हरिद्वार में जो विवादित पथ चुना गया, उसकी मंजिल हिमाचल नहीं हो सकता।

यह इसलिए भी कि उत्तराखंड चुनाव के ऐन वक्त पर धर्म संसद का मसौदा बना और अब हिमाचल चुनाव से पूर्व इसी तरह का आयोजन इतना भी सरल नहीं कि तमाम आशंकाओं को किसी खूंटे पर टांग दें। देश में रामनवमीं जैसे त्योहार के विषय पर सात राज्य अगर सांप्रदायिक तनाव में तप सकते हैं, तो धर्म संसद के हालिया आचरण और इसके सान्निध्य में आए बयानों की मिट्टी पर संदेह होना स्वाभाविक है। सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ता के अपने तर्क और संदेह हैं, लेकिन इससे लोकतंत्र की मूल भावना का संबंध जुड़ा है। यह दीगर है कि हिमाचल में 'धर्म संसद' जैसे आयोजन को सामान्य दृष्टि से ही देखा जाएगा, लेकिन यह चुनावी फायदे की संसद न बन जाए, इसे देखना होगा। धर्म में आस्था के प्रतीक, निजी जीवन को ऊर्जा दे सकते हैं और हिमाचल तो देश को आकर्षित करने का सबसे बड़ा माध्यम अपने मंदिरों को ही बनाता है। हर गांव से पूरे प्रदेश तक धर्म की विरासत में जीते-मरते लोगों के लिए यह विषय नहीं है कि एक धर्म विशेष को राज्य की प्रतिष्ठा से जोड़ के देखें, बल्कि यहां आज तक कांग्रेस और भाजपा को उनकी सरकारों की नीतियांे, विकास के मॉडल और सुशासन की दृष्टि से ही परखा गया। ऐसे में उत्तर प्रदेश या उत्तराखंड जैसा कोई धार्मिक मॉडल तैयार होगा, जहां मतदान अपने मुद्दों से ऊपर और धर्म की वकालत हो जाएगा। क्या कल हम प्रदेश की शिक्षा को धर्म की बैसाखियां पहना कर, युवाओं को राजनीति के आलंबरदार बना देंगे। देश की समस्याओं पर लोकतांत्रिक भूमिका में, संसद तो कहीं पीछे छूट रही है, तो क्या इसकी जगह धर्म, जाति और वर्ग जैसी संसदें हमें तमाम मसलों से मुक्त कराएंगी। क्या युवा प्रेरणा के लिए शिक्षण संस्थाएं खासतौर पर विश्वविद्यालयों का माहौल उत्प्रेरक नहीं होना चाहिए। राष्ट्रीय विमर्श के चौराहे बढ़ जाएंगे, तो नागरिक समाज सही दिशा कहां से खोज पाएगा। हिमाचल में भी विश्वविद्यालय स्तर पर अगर शिमला परिसर बदनाम हुआ, तो केंद्रीय विश्वविद्यालय भी ऐसी रेत के महल तैयार कर चुका है जहां एक खास विचार को जन्म देने की परिस्थितियां पैदा की जा रही हैं।

क्रेडिट बाय दिव्यहिमाचल

Rani Sahu

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