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- धर्म संसद पर नोटिस
अचानक ही सही, लेकिन हिमाचल में धर्म संसद के आलेप और आलेख उस समय सामने आ गए, जब माननीय उच्चतम न्यायालय प्रदेश सरकार को नोटिस थमा देता है। हालांकि अदालत ने 17 अप्रैल के धर्म संसद पर त्वरित रोक नहीं लगाई है, फिर भी सरकार से इसके औचित्य और दायरे के बारे में सवाल उठ गया है। हैरानी यह कि प्रदेश के एक कोने में धर्म के विषय चुनने का माहौल तैयार हो रहा है और यह भी तब, जब सामने दीवारों पर आगामी चुनाव के पोस्टर लग रहे हैं। हिमाचल का सामाजिक व सियासी इतिहास अमूमन धर्म की पटकथा नहीं लिखता और न ही ऐसे जमावड़ों की संगत में आचरण पर कोई असर दिखाई देता है। यह भी तब जब प्रदेश की करीब 98 फीसदी आबादी हिंदू है और हिमाचल की जीवन पद्धति देव संस्कृति से आलोकित है। देवी-देवताओं के आदेश पर शुभ मुहूर्त ढूंढने वालों के लिए आज भी परंपराओं को निभाने की नैतिकता दिखाई देती है, लेकिन इसके बीच राजनीतिक प्राथमिकताएं नहीं आतीं। बाबरी मस्जिद विध्वंस के दौर में हिमाचल की शांता कुमार सरकार की आहुति भले ही दी गई हो, लेकिन धर्म के नाम पर इसकी वापसी नहीं हो सकी। यह दीगर है कि एकदफा स्की विलेज परियोजना के राजनीतिक विरोध में कुल्लू घाटी के देवी-देवताओं से जुड़ी आस्था का दुरुपयोग हो चुका है, लेकिन प्रायः ऐसा नहीं होता। लोकतांत्रिक परंपराओं में धर्म विशेष का कोई दखल आज तक इंगित नहीं हुआ, तो धर्म संसद के आयोजन की गोपनीयता पर आपत्ति उठाना स्वाभाविक है। धर्म संसद के विषयों पर एक बड़े वर्ग की सहमति हो सकती है, लेकिन हरिद्वार में जो विवादित पथ चुना गया, उसकी मंजिल हिमाचल नहीं हो सकता।
क्रेडिट बाय दिव्यहिमाचल