सम्पादकीय

औकात में नहीं पानी

Rani Sahu
19 Jun 2022 7:16 PM GMT
औकात में नहीं पानी
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हिमाचल का पानी शराफत से पेश नहीं आता, तो इसकी हिफाजत कैसे होगी

हिमाचल का पानी शराफत से पेश नहीं आता, तो इसकी हिफाजत कैसे होगी। पानी यहां अपनी औकात नहीं वसूल पा रहा, क्योंकि न इसके बहने का सलीका है और न ही इस्तेमाल का कोई ढंग पैदा हुआ। बरसात में तौबा और गर्मियों में सौदा बनते हुए भी पानी के प्रबंधन पर प्रदेश ने खुद को मजबूर ही रखा। ऐसा क्यों है कि जलापूर्ति विभागीय मजबूरी बन कर आम जनता के आगे गिड़गिड़ाती है। प्रदेश के हर छोटे-बड़े शहर-कस्बे और गांव के साथ-साथ राजधानी शिमला की औकात में पानी इतना घट गया है कि जनता जलापूर्ति की दर्शनार्थी बन कर कृपालु विभाग से अपनी बारी का इंतजार करती है। पानी अक्खड़ है, बदतमीज है, लेकिन जल शक्ति विभाग तो यह तहजीब ही भूल गया कि उसका काम मोटी पाइपों के ढेर लगाना नहीं, बल्कि आधी इंच की पाइप से चंद बूंदें अमृत जल की हलक तक गुजारना है। आश्चर्य यह कि उसी बरसात पर सूखे का दोषारोपण जो आगे चलकर जब झमाझम बरसेगी, तो फिर तोहमत यह होगी कि अधिक बरस कर पाइपें तोड़ दीं। प्रचंड गर्मी की अधिकतम जरूरत का पानी अगर विभागीय परियोजनाओं के बूते से बाहर है, तो विभाग की वर्तमान शैली और जल प्रबंधन के तौर तरीकों पर अफसोस करना होगा।

जिस विभाग को अपनी सारी शक्ति बरसाती पानी को बचाने तथा गर्मियों में सही परिप्रेक्ष्य में इस्तेमाल पर लगानी चाहिए, वह उससे उलट हर बार पूरे प्रदेश को मजबूर कर देता है। अगर सवा आठ सौ के करीब जलापूर्ति परियोजनाओं का गर्मी की वजह से दम निकल रहा है, तो इसके सबक हैं क्या। क्या राजस्थान या तमाम मैदानी इलाकों की जलापूर्ति को केवल वर्षा के अनुपात में चलाया जाता है। यह अनुसंधान और सर्वेक्षण का विषय है कि अपनी गलत परियोजना प्रारूप के चलते जल शक्ति विभाग ने प्राकृतिक स्रोतों को इस कद्र नष्ट कर दिया है कि जिस जल से पर्यावरण, वनस्पति, जीव-जंतुओं की रक्षा और कृषि-बागबानी होती थी, उसे हद से ज्यादा इस्तेमाल करके इसका संतुलन ही बिगाड़ दिया। उदाहरण के लिए धर्मशाला के जलप्रपात से सैनिक छावनी को इतना पानी लेने की छूट दे दी गई कि इसके सूखने की नौबत से प्रमुख खड्ड व कई कूहलें पूरी तरह जल विहीन हैं। खड्डों, कूहलों व नदियों की मौत के लिए अगर आज जल शक्ति विभाग की परियोजनाएं दोषी साबित हो रही हैं, तो इस खोट को सुधारना होगा। यानी सीधे जलस्रोत या जलस्रोत के उद्गम से किसी भी पेयजल योजना का श्रीगणेश नहीं होना चाहिए। इसके बजाय हर गांव और शहर की परिधि में परंपरागत स्रोतों पर आधारित जल भंडारण के लिए छोटे-छोटे बांध, चैकडैम, तालाब तथा नदी-नालों के मिलन के रास्तों का रखरखाव भी करना होगा। यह विडंबना है कि मनरेगा की दिहाड़ी ने प्राकृतिक बावडि़यों, कूल्हों व पारंपरिक जल निकासी की वैज्ञानिक जरूरतों और सदियों के तरीकों को नजरअंदाज करके इतना कंक्रीट थोप दिया कि नए विकास ने मिट्टी से जल प्रबंधन का रिश्ता ही तोड़ दिया।
हमीरपुर की खातरियां अगर बुरे व अविकसित समय में हमारी रक्षा करती रहीं, तो आज के दौर में श्रीमन जल शक्ति विभाग की सारी क्षमता पर निराशा की बिजली क्यों गिरती है। धूमल सरकार ने एक समय वाटर हार्वेस्टिंग पर जोर दिया, तो शहरी योजना में हर छत से टपकते पानी का संग्रहण शुरू हुआ, लेकिन अब इसकी कोई चर्चा नहीं। अगर सामुदायिक रूप से वाटर हार्वेस्टिंग शुरू करके नए तालाब, झीलें या चैकडैम जोड़े जाएं, तो नागरिक समाज अपने हिस्से का पानी बटोर सकता है। जिस ढंग से जलापूर्ति परियोजनाएं केवल जलस्रोतों को चूस रही हैं, उससे न केवल मानव हिस्से का पानी खत्म होगा, बल्कि मौसम चक्र, पृथ्वी संतुलन, वनस्पति और जीव-जंतुओं की आवश्यकताओं का जल भी नहीं रहेगा। जल शक्ति विभाग केवल जलापूर्ति विभाग नहीं है, बल्कि जल संरक्षण एवं प्रकृति से मिले पानी के न्यायोचित वितरण का महकमा भी है। जलापूर्ति केवल पाइप बिछाना नहीं, प्राकृतिक जलस्रोतों के प्राणों के साथ मानव जीवन और विकास के लिए प्राण फूंकना भी है।

सोर्स - Divyahimachal

Rani Sahu

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