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सम्पादकीय
आधुनिक अध्ययन में अभी ऐसी कोई प्रणाली व्यवस्था विकसित नहीं हुई जो जंगल का मोल नाप सके
Tara Tandi
14 Jun 2021 7:45 AM GMT
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आधुनिक अध्ययन और शोध आदि में अभी ऐसी कोई प्रणाली या व्यवस्था विकसित नहीं हुई है
जनता से रिश्ता वेबडेस्क | डॉ. कृपाशंकर तिवारी। आधुनिक अध्ययन और शोध आदि में अभी ऐसी कोई प्रणाली या व्यवस्था विकसित नहीं हुई है जो जंगल का मोल नाप सके। सच तो यह है कि ऐसा करने की इंसान की हैसियत भी नहीं। कहां वे गर्व से खड़े लहलहाते खुशबू, खुशी, आनंद, उल्लास, उमंग और जीवन बिखेरते, सांसों का दान देकर, जहर लीलते, हरे भरे मुस्कराते बतियाते, जीवन र्पयत देते रहने का संकल्प लिए ये जंगल और कहां ये मगरूर, खुदगर्ज, लालची, हिंसक, जहर उगलता और विनाश को आमादा इंसान। इन अनमोल जंगलों को उजाड़कर बस्ती बसाना, फैक्टरी लगाना, राजमार्ग बनाना, शहर बसाना, धंधे बढ़ाना, खेल, पार्क, मैदान, मनोरंजन सब जंगलों की कीमत पर। इस पर तुर्रा यह कि इंसान ने इन जंगल उजाड़ हरकतों को विकास का नाम दे दिया। हमारे जंगल किसी न किसी बहाने सिकुड़ते गए।
जंगल के दर्द को किसी ने नहीं समझा। धरती के विशाल इकोसिस्टम की धुरी ये जंगल ऐसे मिटते गए जैसे नेताओं की नैतिकता। धरती और प्रकृति को भारत में पूज्य मां का दर्जा प्राप्त है, हमारी आस्था, संस्कृति, विश्वास और मान्यताएं ऐसी ही थीं, जब हम प्रकृति रक्षक थे। प्रकृति के संरक्षक और पूजक थे। पूजा के माध्यम से संरक्षण ही हमारी परंपरा थी। लालच, दोहन, हिंसा और क्रूरता का अचानक एक सैलाब आया और यहीं से विनाश की गाथा शुरू हो गई। वृक्ष, जंगल और हरियाली यकीनन पृथ्वी/ प्रकृति का सुंदर आवरण था। अब हम उसे आवरण/ वस्त्र विहीन देख रहे हैं। इस क्रूर कृत्य को हम मनुष्य की वीभत्स मनोवैज्ञानिक समझ कहें या कुछ और नाम दे सकते हैं। लालच और जरूरत के बीच के खेल ने लालच को हिंसक बना दिया। जहर (कार्बन डाईऑक्साइड) सोखने वाले जंगल हमें जीवन का अमृत देते हैं, पर हम विनाश पर आमादा हैं।
दुनिया भर में हजारों ऐसे प्रमाण उपलब्ध हैं कि जब जब जंगल उजड़े, तब तब आपदाओं का आगमन हुआ है। अमेजन, आस्ट्रेलिया, टेकोमा (अमेरिका) और भारत में उत्तराखंड सहित जंगलों के विनाश या आग लगने के बाद हमने आपदाओं को देखा है। आस्ट्रेलिया में हजारों प्रजातियों के करोड़ों जीव-जंतु-पौधे गायब हो गए। उत्तराखंड में जंगल की बर्बादी, नदियों की धारा में बाधाएं और तमाम परियोजनाओं के बाद भीषण आपदाओं और उनसे पैदा विनाश को देखा गया है। आपदाओं का क्रम निंरतर जारी है। विकास के नाम पर या व्यवसाय के नाम पर जंगल ही सदैव निशाने पर क्यों रहते हैं। राजमार्ग चौड़ीकरण हो या फिर शहरीकरण, हवाई अड्डे का निर्माण हो या नई आवासीय बस्ती का निर्माण, बलि जंगलों की ही चढ़ती है। समाज, सरकारें, राजनीतिक दल, व्यवस्थाएं और प्रशासनिक ढांचा इतना अदूरदर्शी कैसे हो सकता है।
सरकारें रायल्टी यानी अतिरिक्त आय के लिए और व्यवसायी धन अर्जन के लिए वनों के विनाश के फैसले ले सकते हैं, लेते भी हैं, परंतु इससे भी पहले देश-समाज के व्यापक हित हैं। महामारी के दौर में हमारे देश ने बेइंतहा तबाही देखी है। स्वास्थ्य और जीवन की सुरक्षा पर आया ऐसा संकट कई पीढ़ियों ने नहीं देखा होगा। इस भयावह संकट की तह में प्रकृति का विध्वंस ही है। जंगलों में लाखों वर्षो से अनेक वायरस/ बैक्टीरिया रहते हैं, वही उनके प्राकृतिक रहवास हैं। जंगल उजड़े तो उनके रहवास बिखरे और वे बाहर आकर अचानक विनाशक हो उठे। वायरसों का यह विस्फोट शोध के लिए है, अध्ययन के लिए है या वैश्विक व्यापार युद्ध है या सर्वोच्च होने की सनक का परिणाम है या विनाशकारी शरारत है? ये सभी सवाल अभी भी जिंदा हैं।
इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि किसी भी व्यवस्था, सरकार, विचारधारा, लालच, पार्टी, व्यक्ति, धर्म दर्शन, भाषा, क्षेत्र या व्यवसाय की जिद से देश बड़ा है। देश के व्यापक हित बड़े हैं। स्वास्थ्य और सुरक्षित जीवन सर्वोच्च है। कोई भी अवांछित गतिविधि राष्ट्र के लिए अहितकर है और उसे तत्काल रोकना हमारा दायित्व है।
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