सम्पादकीय

नियानवें का फेर

Rani Sahu
11 April 2022 7:09 PM GMT
नियानवें का फेर
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कहते हैं नियानवें का फेर का बुरा। सारी दुनिया उलझी ही नियानवें के फेर में है

साधो! कहते हैं नियानवें का फेर का बुरा। सारी दुनिया उलझी ही नियानवें के फेर में है। जो न उलझे, वही साधो। सच्चे-झूठे का सवाल नहीं, सोशल मीडिया का बवाल नहीं। जो सच-झूठ के फेर में उलझे, वह महंत या मुख्य मंत्री तो हो सकता है, साधु नहीं। उँगुलीमाल जब तक नियानवें के फेर में रहा, डाकू ही रहा। उसे नियानवें के फेर से बाहर निकाला बुद्ध ने। इसका मतलब हुआ कि बुद्ध वही, जो नियानवें के फेर में न फंसे। कबीर तभी कबीर हुए, जब नियानवें के फेर में नहीं फंसे। नहीं तो वह छोटी ज़ात की देही में जनमे होने के चलते, काशी के दूसरे पंडों की तरह घाट पर लोगों के माथे पर टीका भी न घिस पाते। मीरा भी नियानवें के फेर से बाहर होने के कारण ही अपने दर्द का बखान कर पाईं। मुरली मनोहर मिले या नहीं, यह तो मीरा ही बता सकती हैं। लेकिन जो यह पता लगाने निकला कि मीरा को मुरली मनोहर मिले या नहीं, नियानवें के फेर में उलझ जाता है। वैसे बुद्ध होने का यह मतलब भी नहीं कि आप सब कुछ छोड़ कर जंगलों में भटकते फिरें। इच्छाओं के जंगल से बाहर आते ही आदमी बुद्ध हो सकता है। दोबारा राष्ट्रपति बनने के मोह से बचे अब्दुल कलाम नियानवें के फेर से आज़ाद रहे।

रूस-यूक्रेन युद्ध भी तब शुरू हुआ, जब नियानवें के फेर में फंसे पुतिन यह पता करने निकले कि ज़ेलेंस्की राजनीति में भी मसख़रे हैं या नहीं। अब उन्हें यह पता नहीं लग पा रहा कि युद्ध छोड़ें या जारी रखें। इधर, उनके नियानवें के फेर में फंसे रूसियों के हाथ से अब रोज़मर्रा की ज़रूरतों का सामान उतनी ही दूर है, जितनी वर्तमान में काँग्रेसियों के हाथ से सत्ता। उधर, लोग पेट्रोल द्वारा शतक मारने के बाद गृहस्थी के नियानवें में उलझ गए हैं। इतिहास गवाह है कि सम्राट अशोक तभी महान बन पाए, जब वह सत्ता के नियानवें से बाहर आए। पाकिस्तान के प्रधान मंत्री इमरान ख़ान को ही देख लें। आखिरी बॉल तक खेलने के चक्कर में मैदान तक ही नहीं पहुँच पाए। दार्शनिक भले ही सत्ता को नियानवें का खेल बताते रहें। लेकिन कुछ लोग फिर भी मन की हांक कर देश को नियानवें के फेर में फंसाए हुए हैं। कभी राष्ट्रवाद तो कभी धार्मिक उन्माद।
अगर इनसे भी बात न बने तो सब्सिडी की टॉफियाँ और चाकलेट तो हैं ही। अपने बाप का क्या जाता है। बतोलेबाजी ही तो करनी है। अब इस कहानी को आज के परिदृश्य में आगे बढ़ाते हैं। एक प्रोफेसर थे, बड़े क़ाबिल। प्रदेश के लिए कुछ करने की चाह जगी तो राजनीति में आ गए। जोड़-तोड़ से मुख्य मंत्री भी बन गए। चार साल ख़ुशफहमी में निकल गए। स्वार्थ की जिह्वा पर सत्ता की चाट लगने से नियानवें का प्रेत जागना स्वाभाविक था। पाँचवें साल हाथ से सत्ता छूटने का डर सताने लगा। जनता को दिखाना ज़रूरी था कि पिछले चार सालों में राज्य में विकास की गंगा बह रही है। देश की एक प्रतिष्ठित समाचार पत्रिका 'इंडिया टुमारो' से टांका भिड़ाया। पत्रिका ने करोड़ों रुपयों के विज्ञापन ले कर, राज्य में विभिन्न क्षेत्रों में हुए विकास कार्यों का ब्यौरा देते हुए देश भर में प्रथम रहने पर दर्जन भर पुरस्कार झोली में डाल दिए। प्रोफेसर साहिब प्रसन्न। सरकारी क़र्ज़ से ख़रीदे गए पुरस्कारों का यह सिलसिला विभिन्न माध्यमों से आगे बढ़ता रहा। अख़बारों, पत्रिकाओं, टीवी और सोशल मीडिया में ख़ूब शोर मचा। चुनावों तक पुरस्कारों की संख्या सौ तक जा पहुँची। लेकिन यह जो पब्लिक है, सब जानती है। चुनाव हारने के बाद अब प्रोफेसर साहिब हर रोज़ अपने ड्रॉईंग रूम में पुरस्कार गिनते रहते हैं। पर पुरस्कार हैं कि कभी सौ पूरे होने में नहीं आते। हर बार गिनती नियानवें पर पहुँच कर रुक जाती है या कभी एक सौ एक हो जाती है।
पी. ए. सिद्धार्थ
लेखक ऋषिकेश से हैं


Rani Sahu

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