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भारतवर्ष में कोई व्यक्ति यदि रात में भूखा सोता है तो माना जा सकता है कि देश का सौभाग्य सो गया, लेकिन जब भूख से तड़पकर असमय काल का ग्रास बन जाता है तो कहा जा सकता है कि आजादी के 75 वर्ष बाद भी हम अपने दुर्भाग्य से पीछा नहीं छुड़ा पाए हैं। यही तो हुआ कोरोना काल में, जब हजारों भूखे मजदूर सैकड़ों मील अपने बाल-बच्चों को कंधे और गोदी पर टांगे या फिर अपने बैग को बच्चों के लिए ट्राली के रूप में इस्तेमाल करके पलायन करने के लिए मजबूर हो गए थे।कुछ तो अपने गंतव्य पर पहुंच गए पर, कुछ भूख से तड़प कर रास्ते में ही दम तोड़ते रहे। बात पिछले वर्ष की ही तो है, जिसे हम-आप ही नहीं, विश्व ने देखा और खासकर भारत ने उसे झेला। यह भी ठीक है कि उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन से सबक लेते हुए हमने बहुत कुछ सीखा और परिणामस्वरूप सरकार ने जनता के लिए अपने देश के किसानों द्वारा ही उपजाए अनाज के गोदामों का मुंह खोल दिया और फिर उनके दावे को मानें तो अस्सी करोड़ देश के कमजोर कामगारों को जीने का एक आधार दिया।पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायमूर्तियों एमआर शाह और पीवी नागरत्ना की पीठ ने भुखमरी को लेकर राज्य सरकारों पर कड़ी टिप्पणी की है। पीठ ने कहा कि कई बार कहा गया है कि देश में कोई भी नागरिक भूख से न मरे, केंद्र और राज्यों से उन्हें भोजन उपलब्ध कराने के लिए काम करना चाहिए, फिर भी लोग मर रहे हैं। यह गंभीर चिंता का विषय है।