सम्पादकीय

भुखमरी

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31 July 2022 11:55 AM GMT
भुखमरी
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भारतवर्ष में कोई व्यक्ति यदि रात में भूखा सोता है तो माना जा सकता है कि देश का सौभाग्य सो गया, लेकिन जब भूख से तड़पकर असमय काल का ग्रास बन जाता है तो कहा जा सकता है कि आजादी के 75 वर्ष बाद भी हम अपने दुर्भाग्य से पीछा नहीं छुड़ा पाए हैं। यही तो हुआ कोरोना काल में, जब हजारों भूखे मजदूर सैकड़ों मील अपने बाल-बच्चों को कंधे और गोदी पर टांगे या फिर अपने बैग को बच्चों के लिए ट्राली के रूप में इस्तेमाल करके पलायन करने के लिए मजबूर हो गए थे।कुछ तो अपने गंतव्य पर पहुंच गए पर, कुछ भूख से तड़प कर रास्ते में ही दम तोड़ते रहे। बात पिछले वर्ष की ही तो है, जिसे हम-आप ही नहीं, विश्व ने देखा और खासकर भारत ने उसे झेला। यह भी ठीक है कि उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन से सबक लेते हुए हमने बहुत कुछ सीखा और परिणामस्वरूप सरकार ने जनता के लिए अपने देश के किसानों द्वारा ही उपजाए अनाज के गोदामों का मुंह खोल दिया और फिर उनके दावे को मानें तो अस्सी करोड़ देश के कमजोर कामगारों को जीने का एक आधार दिया।पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायमूर्तियों एमआर शाह और पीवी नागरत्ना की पीठ ने भुखमरी को लेकर राज्य सरकारों पर कड़ी टिप्पणी की है। पीठ ने कहा कि कई बार कहा गया है कि देश में कोई भी नागरिक भूख से न मरे, केंद्र और राज्यों से उन्हें भोजन उपलब्ध कराने के लिए काम करना चाहिए, फिर भी लोग मर रहे हैं। यह गंभीर चिंता का विषय है।

पूर्व प्रधानमंत्री स्व. चंद्रशेखर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि युगोस्लाविया के एक प्रोफेसर ने, जो सारी दुनिया में 'शरणार्थियों की समस्या' पर शोध कर रहे थे, उनके एक प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा था, 'हमारे देश में महात्मा गांधी को भी गरीबी के दर्द का अनुभव तब हुआ, जब दक्षिण अफ्रीका में उन्हें तरह–तरह की यातनाएं भुगतनी पड़ीं और उससे प्रेरणा लेकर वे गरीबों की जिंदगी से सीधे जुड़ गए। महात्मा बुद्ध को असली ज्ञान तब हुआ, जब उन्हें सुजाता की खीर खाने के लिए मजबूर होना पड़ा। भूख की पीड़ा को समझे बिना कोई भूख मिटा नहीं सकता।'
भूख से लोग मर रहे हैं और राशन के लिए घंटों लाइन लगाने पर भी मुट्ठी भर चावल सबको नहीं मिलता है। (पार्थ पॉल/इंडियन एक्सप्रेस फाइल फोटो)वर्ष 1867-68 में सबसे पहले दादा भाई नौरेजी ने गरीबी खत्म करने का प्रस्ताव पेश किया था। सुभाष चंद्र बोस ने भी वर्ष 1938 में इसकी पहल की थी। वर्ष 1947 में जब देश आजाद हुआ तो हर तीन में से दो व्यक्ति गरीब थे। आज कहा जाता है कि हर तीन में से एक व्यक्ति गरीब है। फिर आजादी के बाद 'गरीबी हटाओ, देश बचाओ' का नारा वर्ष 1974 के आम चुनाव में पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी ने दिया था। बाद में उनके बेटे राजीव गांधी ने भी इस नारे का उपयोग किया। इस नारे का प्रयोग पांचवीं पंचवर्षीय योजना में किया गया था।
आज भी भूख से मौत के मामले सामने आते ही रहते हैं और सरकारें इन मामलों को गंभीरता से लेने के बजाय ख़ुद को बचाने के लिए लीपा-पोती में लग जाती हैं। यह बेहद शर्मनाक और दुर्भाग्यपूर्ण है। भोजन मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। इस मुद्दे को सबसे पहले अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति फ़्रेंकलिन रूज़वेल्ट ने अपने एक व्याख्यान में उठाया था। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान संयुक्त राष्ट्र ने इस मुद्दे को अपने हाथ में ले लिया और वर्ष 1948 में आर्टिकल 25 के तहत भोजन के अधिकार के रूप में इसे मंज़ूर किया।वर्ष 1976 में संयुक्त राष्ट्र परिषद ने इस अधिकार को लागू किया, जिसे आज 156 राष्ट्रों की मंज़ूरी हासिल है और कई देश इसे क़ानून का दर्जा भी दे रहे हैं। इस क़ानून के लागू होने से भूख से होने वाली मौतों को रोका जा सकेगा।
सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने महान मानवीय पहलुओं पर विचार करते हुए कहा कि सभी कामगारों को सस्ता राशन उपलब्ध कराने के लिए राशन कार्ड उपलब्ध कराए जाने चाहिए। इसे कैसे लागू किया जा सकता है, इस पर पीठ ने केंद्र से सुझाव मांगा है। पीठ ने सच ही तो कहा कि किसान और मजदूर, दोनों देश के निर्माण में अहम भूमिका निभाते हैं, जिन्हें मदद की जरूरत है और वे मदद के पात्र भी हैं।jansatta
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