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बुनियादी सार्वजनिक सेवाओं को मुहैया कराने में भारत मूलत: इसलिए सफल नहीं हो पा रहा
नितिन पई,
बुनियादी सार्वजनिक सेवाओं को मुहैया कराने में भारत मूलत: इसलिए सफल नहीं हो पा रहा, क्योंकि प्रशासनिक क्षमता की कमजोरियों को दूर करने में यह सक्षम नहीं दिख रहा। पिछले दो दशक में राजनेताओं और नीति निर्माताओं ने प्रशासनिक सुधार की जटिल समस्या को टालने का ही काम किया है। इसके बजाय उन्होंने सार्वजनिक सेवाओं को मुहैया कराने के लिए निजीकरण, सार्वजनिक-निजी भागीदारी व प्रौद्योगिकी जैसे नए-नए तरीके अपनाए। मानव-सौहार्द, कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व निधि और गैर-सरकारी संगठनों के माध्यम से स्कूली शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, पोषण, कौशल विकास जैसी सार्वजनिक सेवाएं मुहैया कराने की कोशिश भी की गई है। हालांकि, यह सब प्रदान कराना राष्ट्र का कर्तव्य होना चाहिए, लेकिन वह ऐसा करने में असमर्थ रहा है।
सार्वजनिक सेवा मुहैया कराने का यह मिश्रित मॉडल सफल रहा है, लेकिन इसमें लागत काफी ज्यादा है। नौकरशाहों की संख्या बढ़ाने और क्षमताओं को उन्नत बनाने का दबाव सिविल सेवा के ऊपर नहीं होता। बदलाव के लिए इसे तंत्र से प्रेरणा भी नहीं मिलती। कई मामलों में तो विशेष रूप से निचले स्तर की सिविल सेवा अपने हाथ खड़े कर देती है, क्योंकि लक्ष्य उसके लिए दु:साध्य होता है। प्रेरणा, प्रशिक्षण और प्रदर्शन प्रबंधन की कमी के कारण सिविल सेवा देश के बुनियादी ढांचे को बनाए रखने के लिए अपने कुछ सेवकों पर निर्भर हो जाती है। कई सिविल सेवक निजी तौर पर असाधारण मेहनत करते भी हैं। उनको जबर्दस्त चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, मगर वे सुनिश्चित करते हैं कि देश कम से कम बुनियादी प्रदर्शन बेहतर करता रहे। फिर भी, यह बताने की कतई जरूरत नहीं है कि सिविल सेवा में सुधार काफी जरूरी है।
नरेंद्र मोदी सरकार ने दिसंबर 2020 में सिविल सेवा क्षमता निर्माण के राष्ट्रीय कार्यक्रम, यानी 'मिशन कर्मयोगी' की शुरुआत की थी। यह एक बहुआयामी प्रयास है, जिसमें भर्ती, प्रशिक्षण, प्रदर्शन, प्रबंधन, पुरस्कार आदि तमाम तत्व शामिल हैं। सरकार चाहे, तो सैन्य भर्ती की अपनी नई योजना जैसा प्रयास इसमें भी कर सकती है। अग्निपथ योजना के कई पहलू सिविल सेवा में भर्ती के लिए मॉडल बन सकते हैं।
भारत के सबसे सम्मानित पुलिस अधिकारियों में से एक प्रकाश सिंह ने हाल ही में अखिल भारतीय सेवाओं के लिए अग्निपथ जैसी योजना बनाने की वकालत की। उन्होंने 10, 25 और 30 साल की सेवा के बाद अधिकारियों की सेवा-समाप्ति की बात भी कही। यह शीर्ष स्तर पर अधिकारियों की भारी-भरकम फौज को तर्कसंगत बनाएगा और सार्वजनिक सेवा व प्रदर्शन की संस्कृति कायम करेगा। वास्तव में, केंद्र सरकार को सैन्य अधिकारियों की शॉर्ट सर्विस कमीशन और अग्निपथ योजना जैसी 'नीतिपथ योजना' शुरू करनी चाहिए।
इसमें सरकार शीर्ष स्तर के पदों की संख्या बढ़ाए बिना और करियर पथ को बाधित किए बिना प्रवेश स्तर पर चार गुना अधिक उम्मीदवारों की भर्ती कर सकती है। इसका अर्थ है कि अखिल भारतीय सेवाओं के लिए 600 से 1,000 उम्मीदवारों के बजाय हर साल 4,000 अधिकारी सिविल सेवा में प्रवेश कर सकेंगे। चौथे वर्ष के बाद उनके प्रदर्शन की समीक्षा करते हुए उनमें से केवल 25 फीसदी को सेवा में रखा जाएगा, जिससे निचले स्तर पर कई युवा अधिकारी आएंगे। उनको सेवा व प्रदर्शन के लिए अच्छा-खासा प्रोत्साहन दिया जाएगा और सरकार में काम करने का अनुभव भी उनको मिलेगा। शीर्ष 4,000 अखिल भारतीय रैंक धारकों की औसत गुणवत्ता निश्चय ही शीर्ष 1,000 की औसत गुणवत्ता से बहुत अलग नहीं होगी। इसलिए महज परीक्षा और साक्षात्कार के अंकों से चयन करने की तुलना में चार साल की समीक्षा अवधि सरकार को चयन का बेहतर विकल्प देगी।
चौथे वर्ष के बाद केंद्रीय सिविल सेवा छोड़ने वाले करीब 3,000 अधिकारियों को राज्य सेवाओं में नियोजित किया जा सकता है, जहां आज चयन का भारी संकट है, सिविल सेवकों की कमी है और बेहतर शासन की तीव्र मांग है। रिक्तियों को भरने से सरकार कहीं अधिक प्रभावी तरीके से काम कर सकेगी। जैसे, आदित्य दासगुप्ता और देवेश कपूर का अनुमान है कि प्रखंड विकास कार्यालयों में औसतन 48 फीसदी पद रिक्त हैं और उन पर नियुक्ति करने से मनरेगा रोजगार में 10 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है।
यह भी जगजाहिर तथ्य है कि हमारे पास आबादी के अनुपात में बहुत कम प्रशासक, पुलिस अधिकारी, राजनयिक और अन्य अधिकारी हैं, और विश्व औसत की तुलना में यह संख्या लगातार घट रही है। कपूर बताते हैं कि अमेरिका में जहां 2014 में संघीय सरकार में प्रति 1,000 की आबादी पर महज आठ सिविल सेवक थे, वहीं भारत में नौकरशाहों की संख्या 4.51 थी। अपने देश में यह आंकड़ा 1995 में 8.47 था। स्थानीय स्तर पर सिविल सेवाएं काफी कमजोर हैं। ऐसे में, अगर चार साल के बाद कुछ भी नहीं बदलता है, तब भी नीतिपथ योजना नौकरशाहों की संख्या के मामले में एक बड़ा सुधार लाएगी।
चार साल के बाद सरकारी सेवा छोड़ने वालों की आर्थिक स्थिति अच्छी होगी। इसकी काफी संभावना है कि कई सिविल सेवक अपनी मर्जी से उच्च शिक्षा या निजी कारोबार के लिए इसे छोड़ना पसंद करेंगे। ऐसे अधिकारी अर्थव्यवस्था को व्यापक रूप से फायदा पहुंचा सकेंगे। इसके अलावा, प्रकाश सिंह का यह भी सुझाव है कि हर पांच साल में उनके प्रदर्शन की समीक्षा करनी चाहिए और उसके आधार पर सेवा-समाप्ति की प्रक्रिया अपनानी चाहिए, जिससे देश के प्रशासनिक तंत्र में संरचनात्मक सुधार हो सकेगा।
वास्तव में, दुनिया भर में हर जगह सरकार की क्षमता सामाजिक-आर्थिक विकास में पिछड़ जाती है। यह शासकीय अंतर भारत में काफी ज्यादा है और दिनोंदिन गहराता जा रहा है। इसे पाटने के लिए पर्याप्त प्रशिक्षण और प्रोत्साहन के साथ उचित संख्या में प्रतिभा की दरकार है। 100 साल का भारत अपनी सफलता की दास्तां तभी कह सकेगा, जब देश अच्छी तरह से अपना काम करेगा और इसके लिए 'नीतिपथ' एक माकूल रास्ता है। एक बात और, 'नीतिपथ' शब्द गढ़ने का श्रेय ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के समीर सरन को देना चाहिए, जिनसे एक दिन मेरी इस मुद्दे पर सार्थक बातचीत हुई थी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
Hindustan Opinion Column
Rani Sahu
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