सम्पादकीय

कुदरत के अश्क बन रहे आफत

Rani Sahu
1 Aug 2023 6:54 PM GMT
कुदरत के अश्क बन रहे आफत
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धरती पर प्रकृति व प्राकृतिक संसाधन कुदरत की अनमोल देन हैं। भौतिकतावाद की बेहिसाब हसरतों तथा जरूरत से ज्यादा ख्वाहिशों के चलते मनुष्य कुदरत के सब्र का इम्तिहान लेने की हिमाकत में लगा रहता है। विकास का नकाब ओढ़ कर प्रकृति का दोहन व प्राकृतिक संसाधनों का विनाश सामान्य बात हो चुकी है। लेकिन सर्वशक्तिमान कुदरत अपनी सर्वोच्च अदालत में खुद मुंसिफ है। किसी चश्मदीद की जरूरत नहीं पड़ती। कुदरत अपना न्याय पूरे प्रतिशोध भरे अंदाज में करती है। कुदरत के अश्क जब आसमान से आफत बनकर बरसते हैं तो प्रकृति का प्रकोप रोज-ए-महशर साबित होता है। कयामत के उस खौफनाक मंजर में संभलने का मौका नहीं मिलता। दिशाहीन विकास के खुमार में लोगों ने भले ही गांव की धरोहर तालाब व प्राकृतिक जलस्रोतों का वजूद मिटा दिया है, मगर मूसलाधार बारिश ने सडक़ों व शहरों को तालाबों व नदी-नालों में तब्दील करके पूरी शिद्दत से एहसास करा दिया कि कुदरत की ताकत को कमजोर आंकना तथा प्रकृति से छेड़छाड़ के नतीजे हमेशा भयंकर साबित होंगे। कई पर्यावरण विज्ञानी, पर्यावरणकत्र्ता व बुद्धिजीवी वर्ग के लोग तथा राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल प्रकृति से हो रहे खिलवाड़ व पर्यावरण के नुकसान पर अक्सर चिंता व्यक्त करते हैं। मगर विनाश को अंजाम देने वाले विकास की जद्दोजहद में वशीभूत व्यवस्था पर किसी हिदायत का असर नहीं होता। अन्यत्रित हो चुके विकास की हदूद व पैमाना तय नहीं हो रहा। विकास व पर्यटन के नाम पर हिमाचल के पहाड़ों का कुदरती स्वरूप बिगड़ रहा है।
शासन, प्रशासन व सरकारी व्यवस्था में बैठे अहलकारों को समझना होगा कि हिमाचल केवल पर्यटन व धार्मिक स्थलों के लिए ही विख्यात नहीं है। देश की सरहदों की सुरक्षा के मद्देनजर हिमाचल प्रदेश की सामरिक भूमिका बेहद अहम है। पश्चिमी मोर्चे पर आतंक का मरकज पाकिस्तान भारत विरोधी नफरत में जल रहा है। यदि पाकिस्तान की किसी साजिश के तहत नियंत्रण रेखा का महाज खुल जाए तो हालात बेहद कसीदा हो जाएंगे। वास्तविक नियंत्रण रेखा के उस पार बैठा खामोश तबीयत वाला भारत का दुश्मन चीन यदि एलएसी पर कोई दखलअंदाजी पेश करे तो सेना को कश्मीर, लद्दाख व सियाचिन तक पहुंचने का महफूज विकल्प हिमाचल के राष्ट्रीय राजमार्ग ही होंगे। लेकिन बरसात के मौसम में हर वर्ष पुलों का सैलाब में बह जाना व सडक़ों में धंसाव की घटनाओं से आधुनिक तकनीक व निर्माण कार्यों में इस्तेमाल हो रही सामग्री की गुणवत्ता पर सवाल उठना स्वाभाविक है। आपदाओं की चपेट में आ रहे विकास कार्यों पर समूचे सरकारी तंत्र में व्याप्त लापरवाही की पोल खुल रही है। हजारों की तादाद में बेसहारा पशु जगह-जगह हुजूम बनाकर सडक़ों को अपना कयाम बना चुके हैं। टूरिज्म के नाम पर वाहनों की बढ़ती संख्या से टै्रफिक जाम की समस्या भी बढ़ रही है। भू-स्खलन से सडक़ें अवरुद्ध हो रही हैं। देश की सरहदों की सुरक्षा में राष्ट्रीय राजमार्गों की महत्वपूर्ण भूमिका है। राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर कोई समझौता नहीं हो सकता। लिहाजा सूबे की सियासत व मरकजी हुकूमत तथा राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण को इस विषय पर संजीदगी दिखानी होगी। विडंबना है कि आधुनिक विकास एक बरसात की मार झेलने में असमर्थ साबित हो रहा है, मगर राजाओं द्वारा प्रकृति को नुकसान पहुंचाए बिना सदियों पूर्व निर्मित किए गए धार्मिक स्थल कई प्राकृतिक आपदाओं से टकराने के बावजूद सीना तानकर खड़े हैं। बिलासपुर में गोविंद सागर झील में सैकड़ों वर्ष पुराने जलमग्न मंदिर सुरक्षित खड़े हैं। सन् 2013 में उत्तराखंड में आई बाढ़ में केदारनाथ मंदिर सुरक्षित रहा।
उसी प्रकार नौ जुलाई को मंडी जिला में सदियों पुराना ‘पंचवक्त्र’ मंदिर भी ब्यास नदी के सैलाब की भयंकर लहरों के बीच सुरक्षित खड़ा रहा। राजाओं द्वारा पहाड़ों पर तामीर करवाए गए सैकड़ों वर्ष पुराने किलों का कई जलजले व प्राकृतिक आपदाओं का सामना करने के बावजूद महफूज रहना तस्दीक करता है कि पुरखों की शिल्पकला में तकनीक व गुणवत्ता का पैमाना बेहद उम्दा था। देश के नीति निर्माताओं व आधुनिक इंजीनियरों को पुरखों की शिल्पकला से सीख लेने की जरूरत है। इनसानी गतिविधियों का कुदरत के निजाम से तालमेल संचालित करना होगा। मौजूदा दौर में पहाड़ों पर शहरीकरण का दायरा बढ़ रहा है। मशीनीकरण के प्रहारों तथा सुरंगों के लिए विस्फोट से पहाड़ों का तवाजुन बिगड़ रहा है। नदियां, नाले व खड्डें अतिक्रमण की जद में आ चुके हैं। भारी बारिश से नदियों का जलस्तर बढऩे से सैलाब जैसी सूरतेहाल में लोग मौत की आगोश में समा रहे हैं। आशियाने बाढ़ की भेंट चढ़ रहे हैं। विनाश की पटकथा लिखने वाला अनियोजित विकास पहाड़ों के वजूद पर गर्दिश पैदा कर रहा है। अवैध खनन नदियों के कुदरती बहाव व पुलों के अस्तित्व के लिए बड़ा खतरा साबित हो रहा है। प्रकृति रौद्र रूप धारण करके गहरे जख्म देने पर आमादा है। प्रदूषण उगलने वाले उद्योग, अतिक्रमण, बेतरतीब ढंग से बढ़ रहे शहरीकरण व राज्य में प्रवासियों की बढ़ती तादाद तथा प्रकृति को नुकसान पहुंचाने वाले पर्यटन पर सत्ताधीशों को सरकारी नीतियों में तब्दीली का मसौदा तैयार करना होगा।
भाखड़ा व पौंग जैसे बांधों के निर्माण से नदियों का जल नियंत्रित करके पड़ोसी राज्यों को सैलाब से बचाने वाला हिमाचल खुद बाढ़ से जूझ रहा है। यह निश्चित तौर पर मंथन का विषय है। हिमाचल के जिन पहाड़ों को खनन माफिया से बचाने में किंकरी देवी का पूरा जीवन जद्दोजहद में गुजर गया, राज्य के वही पहाड़ विकास के नाम पर खोखले होकर दरक रहे हैं। प्रकृति की रक्षा के लिए किंकरी देवी के संघर्ष तथा सम्मेद शिखर को बचाने के लिए जैन समुदाय के आंदोलन से देश के हुक्मरानों को संज्ञान लेना होगा। पहाड़ों की ताकत व नफासत को बरकरार रखने के लिए पेड़ एकमात्र विकल्प है। भारतीय दर्शन में प्रकृति सदैव वंदनीय रही है। अत: कुदरत के सिद्धांतों का सम्मान पूरी अकीदत से होना चाहिए। आपदाओं से बचाव के मद्देनजर पहाड़ों को पहाड़ ही रहने दें तो बेहतर होगा। कुदरत के प्रचंड प्रहार का पैगाम समझ कर प्रकृति के प्रति मानसिकता व व्यवहार में बदलाव की निहायत जरूरत है।
प्रताप सिंह पटियाल
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal
Rani Sahu

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