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by Lagatar News
Ashok Kumar Sharma
बिहार के राजनीतिक घटनाक्रम 2024 में प्रभावकारी भूमिका निभा सकते हैं. सियासी आइने में कई अक्स उभर रहे हैं. नीतीश कुमार ने अगले लोकसभा चुनाव के लिए विपक्षी दलों को एक सूत्र में बंधने का बीड़ा उठाया है. जनसुराज यात्रा के बीच प्रशांत किशोर जदयू के साथ आंख मिचोली खेल रहे हैं. नीतीश-लालू के मेल से भाजपा असहज है. इसलिए अब बिहार उसकी कार्यसूची में सबसे ऊपर है. भाजपा के नये बिहार प्रभारी विनोद तावड़े पहली बार पटना आये. इसके पांच दिन बाद केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने बिहार का दौरा किया. वे भाजपा को राजनीतिक झटकों से उबार कर सत्ता का निरापद रास्ता तैयार करना चाहते हैं. उत्तर प्रदेश की तर्ज पर बिहार में भी जातीय बंधन को तोड़ कर अकेले सत्ता पाने लक्ष्य निर्धारित किया गया है.
क्या नीतीश कुमार राष्ट्रीय राजनीति में केन्द्रीय भूमिका निभा पाएंगे ? इस प्रश्न के उत्तर के लिए अभी इंतजार करना होगा. लेकिन उनके विपक्ष में आने से भाजपा की रणनीति छिन्न भिन्न हो गयी है. तभी तो वह अपनी राजनीति प्राथमिकताएं नये सिरे से तय कर रही है. एक प्रमुख हिन्दी भाषी राज्य की सत्ता से विस्थापित होने पर भाजपा विचलित है. नीतीश कुमार का कुछ और योगदान हो या न हो, कम से कम उन्होंने भाजपा को आत्मचिंतन के लिए मजबूर तो कर दिया है. इससे भाजपा की उस सोच पर भी आघात लगा है कि भविष्य की राजनीतिक व्यवस्था में एक दिन विपक्षी दल खत्म हो जाएंगे. भाजपा के सामने जो चुनौतियां खड़ी हुईं है उससे निबटने के लिए अमित शाह ने खुद कमान संभाली. गृहमंत्री ने पूर्णिया और किशनगंज में भाजपा की राजनीति में नये रंग भरे. एक खास मकसद से सीमांचल को राजनीतिक अभियान का केन्द्र बनाया गया. नीतीश कुमार के साथ आने से महागठबंधन का अल्पसंख्यक आधार और भी मजबूत हुआ है. 2020 के चुनाव में जदयू के अलग लड़ने से महागठबंधन को मुस्लिम बहुल इलाकों में 13 सीटों का नुकसान हुआ था. लेकिन अब सीमांचल और मिथिलांचल में अल्पसंख्यक मत एकीकृत हो गये हैं.
ओवैसी की पार्टी से जीते पांच में चार विधायक अब राजद में हैं. इसलिए अमित शाह ने महागठबंधन के इस मजबूत किले को घेरने के लिए पूर्णिय-किशनगंज से रणभेरी बजायी. जाहिर अब सीमांचल में साम्प्रदायिक आधार पर मतों का ध्रुवीकरण होगा. जातीय राजनीति को ध्वस्त करने के लिए भाजपा उत्तर प्रदेश में यह फारमूला अपना चुकी है. भाजपा की इस कोशिश पर जदयू की भी नजर है. डैमेज कंट्रोल के लिए जदयू भी सीमांचल में रैलियां करेगा.
अगर विपक्षी एकता की कोशिश में चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर भी साथ हो लें तो क्या असर पड़ेगा ? वैसे तो प्रशांत किशोर ने अभी तक राज्यों के चुनाव में ही सफल रणनीति बनायी है. 2014 के बाद से उन्होंने लोकसभा चुनाव में अपनी क्षमता साबित नहीं की है. फिलहाल नीतीश कुमार के साथ लुकाछिपी के खेल से उनकी राजनीतिक साख कम हुई है. एक तरफ वे नीतीश कुमार के विकास को ढोंग मानते हैं तो दूसरी तरफ वे उनके साथ काम करने के लिए मुलाकात भी करते हैं. जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह ने कहा था कि प्रशांत किशोर को कोई ऑफर नहीं दिया है, वे खुद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मिलने आये थे. इसके पहले नीतीश कुमार सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि प्रशांत किशोर को बिहार की राजनीति का एबीसी भी नहीं आता. हालांकि ये अतिशयोक्तिपूर्ण बयान है.
अगर प्रशांत किशोर को सचमुच कुछ नहीं आता तो फिर कैसे वे जदयू का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बने थे ? नीतीश कुमार ने उन्हें कैसे अपना उत्तराधिकारी बनाया था? कैसे वे जदयू में नम्बर दो की हैसियत पा गये थे ? जाहिर है नीतीश कुमार अब राजनीतिक कारणों से प्रशांत किशोर के लिए कड़वी बात कह रहे हैं.
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अगर किसी कारण से भाजपा कमजोर होती है तो विपक्षी राजनीति का नियामक बिन्दु कौन होगा ? राहुल गांधी, नीतीश कुमार या फिर कोई अन्य ? राष्ट्रीय राजनीति में सबसे बड़ा विपक्षी दल कांग्रेस है. लेकिन कांग्रेस अंदरुनी समस्याओं में उलझ कर अपनी प्रासंगिकता खोती जा रही है. गुलाम नबी आजाद के अलग होने के बाद कांग्रेस के मनोबल पर और भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है. हिंदी भाषी राज्यों में कांग्रेस लगातार कमजोर हो रही है. उत्तर की अपेक्षा दक्षिण में अभी कांग्रेस प्रभावकारी है.
राष्ट्रीय राजनीति में नीतीश कुमार की सक्रियता अभी प्रारंभिक अवस्था में है. इसके पहले उन्हें बिहार में साबित करना होगा कि भाजपा के बिना उन्होंने कौन-कौन से उल्लेखनीय काम किये ? कौन से नये मापदंड स्थापित किये ? बिहार में नीतीश कुमार को प्रशांत किशोर से भी चुनौती मिल रही है. प्रशांत अभी जनसुराज यात्रा पर है जिसके जरिये वे राजनीतिक संघर्ष के सहयोगी चुन रहे हैं. फिर 2 अक्टूबर से वे बिहार में बड़े राजनीतिक परिवर्तन के लिए पदयात्रा करेंगे.
प्रशांत किशोर का कहना है कि अगर नीतीश कुमार ने सच में बिहार के विकास के लिए काम किया होता तो उन्हें जनसुराज यात्रा निकालने की जरूरत नहीं पड़ती. नीतियों में विरोध के चलते ही वे जदयू से अलग हुए थे. उनका सवाल है, बिहार 2005 में भी देश का सब से गरीब और पिछड़ा राज्य था और 2022 में भी यही स्थिति है. अगर नीतीश कुमार ने विकास किया तो बिहार 17-18 साल में भी निचले पायदान से ऊपर क्यों नहीं आया ? नीतीश कुमार ये क्यों नहीं बता रहे कि बिहार कब विकसित राज्य बनेगा.
Rani Sahu
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