सम्पादकीय

नार्कोटिक्स कानून का दुरुपयोग हो रहा है, एनडीपीएस कानून शुरुआत से ही विचित्र और अव्यावहारिक रहा है

Rani Sahu
26 Oct 2021 5:55 PM GMT
नार्कोटिक्स कानून का दुरुपयोग हो रहा है, एनडीपीएस कानून शुरुआत से ही विचित्र और अव्यावहारिक रहा है
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एनडीपीएस कानून शुरुआत से ही विचित्र और अव्यावहारिक रहा है

शेखर गुप्ता ज्यादातर लोकतांत्रिक देशों में तार्किक सोच-विचार के बाद हो सकता है कि 'ड्रग्स के खिलाफ जंग' शांत हो गई हो, लेकिन ईरान से लेकर चीन तक तानाशाही वाले कई देशों और सिंगापुर व मलेशिया जैसे निर्वाचित निरंकुश शासनों वाले देशों में यह जंग जारी है। भारत ऐसा देश नहीं है, फिर भी अनजाने में इस जमात में शामिल है।

यह आर्यन खान और अन्य लोगों के खिलाफ चल रहे मामले को लेकर छिड़े बदनुमा और दुखद विवाद से उजागर हो रहा है। जैसा कि पहले भी रिया चक्रवर्ती और अन्य लोगों के साथ किया गया। मैं यहां किसी को निर्दोष या दोषी नहीं घोषित कर रहा हूं। मैं ऐसा करने की हिम्मत नहीं कर सकता, खासकर उन मामलों में जो ऐसे कठोर और पुराने पड़ चुके कानून के तहत चल रहे हों जिसमें जज भी आरोपी को पहले से ही दोषी मान लेने के सिवा कुछ नहीं कर सकता।
'नार्कोटिक्स ड्रग्स एंड साइकोट्रॉपिक सब्स्टेंसेज एक्ट' (एनडीपीएस) नामक विचित्र, कठोर, निष्प्रभावी, शोषणकारी, कानून दिखावे के लिए बनाया गया था और पिछले चार दशक में इसमें कई बदलाव किए गए, इसे कमजोर किया गया फिर भी यह नागरिकों के लिए आफत है और भ्रष्ट पुलिसवालों के लिए वरदान, वकीलों के लिए लॉटरी और जजों के लिए सिरदर्द।
हमें मालूम हो चुका है कि नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (एनसीबी) ने आर्यन के पास से कोई ड्रग्स बरामद नहीं किया। रिया चक्रवर्ती के पास से भी नहीं कर पाया था। लेकिन कथित रूप से व्हाट्सएप पर हुई बातचीत से ड्रग्स खरीदने और उसके इस्तेमाल के इरादे का संकेत मिलता है। इसके अलावा उनके साथ जो आदमी था उसके पास कुछ ड्रग्स थे।
ऐसे में आप सोचेंगे कि किसी क्रिमिनल मामले में दूसरे के बदले जवाबदेही कैसे तय की जाती है? लेकिन यहां तो आपका सामना किसी सामान्य, सभ्य किस्म के कानून से नहीं है। जमानत के लिए शर्तों और खुद को निर्दोष साबित करने के लिए सबूत देने के मामलों में यह कानून 'यूएपीए' जैसे कानून से भी कठोर है।
यह नौबत क्यों आई? इसके लिए शायद बीटल्स को दोष दिया जा सकता है, खासकर जॉन लेनन को। मैं विषय से भटक नहीं रहा हूं। वे 1960 वाले दशक की याद दिलाते हैं जब मनोविकृति, हिप्पिवाद, नशाखोरी पश्चिम के विरक्त युवाओं का, खासकर वियतनाम युद्ध के कारण, सहारा बन गई थी।
यह दौर जब अपने उत्कर्ष पर था तब बीटल्स ने 'लूसी इन द स्काइ विद डायमंड्स' गाना रचा था, जिसे 'एलएसडी' लेने के लिए प्रेरित करने वाला माना गया, जो तब सबसे महंगा और अवैध ड्रग था। हमने इस गाने की रचना करने वाले लेनन को पकड़ लिया, बाद में उन्होंने समझाने की नाकाम कोशिश की कि उन्होंने तो 'एलिस इन वंडरलैंड' से प्रेरणा ली है। तथ्य यह है कि 1950 के दशक के मध्य से 1970 के दशक तक ड्रग्स को मानवता का सबसे बड़ा दुश्मन माना जाता था।
1961 में पेरिस में तमाम देशों की बैठक हुई, जिसे नार्कोटिक्स ड्रग्स का 'सिंगल कन्वेन्शन' नाम दिया गया और जुलाई में एक समझौते को मंजूर किया कि इस पर दस्तखत करने वाला हर एक देश अपने यहां इतना कठोर कानून बनाएगा कि ड्रग्स का खतरा 25 वर्षों में खत्म हो जाए।
भारत ने 1985 में एनडीपीएस एक्ट बनाया। तब तक अमेरिका में रिपब्लिकन सत्ता में वापस आ गए। रिचर्ड निक्सन के लिए ड्रग्स के खिलाफ जंग जिहाद के बराबर थी। रोनाल्ड रीगन ने उस कड़ी को आगे बढ़ाया। भारत में प्रधानमंत्री राजीव गांधी उनकी तरफ हाथ बढ़ा रहे थे।
रूढ़िवादी विशुद्धिवाद, भू-राजनीति और सामंती पारिवारिक संबंधों के नशीले मेल में उलझा एक मामला आदिल शहरयार का था, जो एक बड़े जुर्म, धोखाधड़ी और एक पोत में विस्फोटक रखने के मामले में अमेरिकी जेल में बंद था और गांधी परिवार उसे रिहा करवाना चाहता था। शहरयार इस परिवार के करीबी मोहम्मद यूनुस का बेटा था।
इसका नतीजा यह हुआ कि उस दौर ने एक ऐसा दानवी कानून दिया जिसने न केवल आरोपी पर यह ज़िम्मेदारी डाल दी कि वह खुद को बेकसूर साबित करे बल्कि भारी मात्रा में ड्रग्स रखने वाले के लिए मौत की सजा अनिवार्य बना दी (जैसा सिंगापुर या ईरान में है) और जज के लिए कोई विकल्प नहीं छोड़ा।
भारत में कानून और न्याय की प्रक्रिया से जुड़े हर किसी को मालूम है कि एक भयंकर भूल हो गई है, लेकिन इस पर सवाल कौन उठाए? इसमें कुछ-कुछ साल पर संशोधन किए जाते रहे हैं। पहला संशोधन 1988 में हुए और ड्रग्स के निजी इस्तेमाल के लिए कैद घटाकर 1-2 साल की गई।
रीगन के दबाव में हमने इन अपराधों को गैर-जमानती बना दिया और अनिवार्य मौत की सजा के अलावा संपत्ति की जब्ती का प्रावधान भी शामिल कर दिया। जब कई हाईकोर्टों ने इस कानून के कई हिस्सों की अलग व्याख्या की तो 1994 में पी.वी. नरसिम्हाराव सरकार ने यह जांचने के लिए कमिटी का गठन किया कि यदाकदा ड्रग्स का इस्तेमाल करने वालों, छोटे विक्रेताओं, झोपड़पट्टी वालों के प्रति यह कानून कितना कठोर है।
कमिटी ने कानून को और नरम बनाया लेकिन संशोधन 2001 में (वाजपेयी सरकार के दौरान) किए गए। इसके एक दशक बाद बॉम्बे हाइकोर्ट ने अनिवार्य सजा-ए-मौत को परे कर दिया। यूपीए-2 सरकार ने एक कमिटी बनाई और मार्च 2014 में इस अनिवार्य सजा को खत्म कर दिया गया।
लेकिन बाकी बहुत कुछ बचा रहा, जैसे धारा 37 व 54 के तहत मामूली शक होने पर भी दोषी मान सकते हैं या धारा 67 किसी अधिकारी को अधिकार देती है कि वह किसी को भी समन कर सकता है, एक गवाह के रूप में और उस पर गंभीर आरोप भी लगा सकता है, 'क्या तुम ड्रग्स लेते हो? ड्रग्स बांटते हो?' तो खबर यह बन सकती है, 'एनसीबी की पूछताछ में सुपरस्टार… ने कहा, मैं ड्रग्स नहीं लेता'।
इस कानून ने उन्हें दीपिका पादुकोण, रकुल प्रीत सिंह, और दूसरे कई को समन करने का अधिकार दिया और हमारे टीवी चैनलों को कई दिनों तक उनकी आकर्षक तस्वीरें दिखाने का मौका दे दिया। सबसे ताजा हैं अनन्या पांडे, जिनके बारे में खबरें दी जा रही है कि एनसीबी उनसे 'पूछताछ' कर रहा है।
इस तरह के कानूनों का दुरुपयोग ही होता है और हासिल कुछ नहीं होता। 'विधि लीगल' नामक थिंक टैंक की कानूनविद नेहा सिंहल और नवीद अहमद ने बताया है कि 2018 में भारत में एनडीपीएस कानून के तहत 81,778 लोगों पर आरोप दर्ज किए गए, जिनमें 99.9% लोगों पर ड्रग्स के निजी उपभोग का आरोप लगाया गया।
इसके साथ ही केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं सशक्तीकरण मंत्रालय की 2019 की रिपोर्ट 'भारत में मादक द्रव्यों के दुरुपयोग का परिमाण' भी देखें। कहा गया कि उस दौरान भारत में भांग का इस्तेमाल 3 करोड़ लोग कर रहे थे। अगर इन सब पर एनडीपीएस कानून लागू कर दिया गया तो हिसाब लगाएं कि कितनी जेलें बनानी पड़ेंगी। इसके अलावा 60 लाख लोग अफीम की लत के शिकार थे। कड़े ड्रग्स लेने वालों की संख्या 8.5 लाख थी।
दिल्ली की नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी का एक अध्ययन बताता है कि 2000 से 2015 के बीच 15 साल में निचली अदालतों ने ऐसी केवल पांच सजा-ए-मौत सुनाईं। इनमें से चार को अपील के बाद उम्रकैद में बदल दिया गया और पांचवें को, आप शायद यकीन न करें, बरी कर दिया गया।
मच्छर मारने के लिए बंदूक!
नार्कोटिक्स ड्रग्स एंड साइकोट्रॉपिक सब्स्टेंसेज एक्ट नामक कानून विचित्र, कठोर, अव्यावहारिक, निष्प्रभावी, शोषणकारी, और दुरुपयोग किया जाने वाला कानून है। टीवी के पर्दे पर जो कहानी चल रही है वह इसके खुल्लमखुल्ला दुरुपयोग की कहानी ही है। यहां सवाल यह नहीं है कि अमुक बेकसूर है या कसूरवार। यह छिछले मजे लेने का समय नहीं है। हमने मच्छर को मारने के लिए बंदूक का इस्तेमाल कर डाला। और बंदूक भी उन्हें थमा दी जिन्हें इसका गलत इस्तेमाल करने की आदत है।
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