सम्पादकीय

'मेरा जीवन सपाट समतल मैदान है, जिसमें गड्ढे तो हैं पर पहाड़ नहीं' – मुंशी प्रेमचंद

Tara Tandi
31 July 2021 6:59 AM GMT
मेरा जीवन सपाट समतल मैदान है, जिसमें गड्ढे तो हैं पर पहाड़ नहीं – मुंशी प्रेमचंद
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सी को साहित्य कहते हैं और गल्प भी साहित्य का एक भाग है.”

"जो वस्तु आनंद नहीं प्रदान कर सकती, वह सत्य भी नहीं हो सकती. जहाँ आनंद है, वहीं सत्य है. साहित्य काल्पनिक वस्तु है; पर उसका प्रधान गुण है आनंद प्रदान करना, और इसीलिए वह सत्य है. मनुष्य ने जगत् में जो कुछ सत्य और सुंदर पाया है, और पा रहा है, उसी को साहित्य कहते हैं और गल्प भी साहित्य का एक भाग है."

– मुंशी प्रेमचंद

आज कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की 141वीं जयंती है. आज से ठीक 141 साल पहले 31 जुलाई,1880 को उत्‍तर प्रदेश के वाराणसी जिले से कुछ 80 किलोमीटर दूर एक गांव लमही में प्रेमचंद का जन्‍म हुआ था. पिता अजाबराय लमही के डाकमुंशी हुआ करते थे. बच्‍चे के जन्‍म पर उसका नाम रखा गया धनपतराय. प्रेमचंद नाम तो उन्‍होंने बाद में खुद रखा अपना, जब उन्‍होंने इस नाम से लिखना शुरू किया. शुरू में वो फारसी भाषा में लिखते थे क्‍योंकि उनकी शुरुआती शिक्षा-दीक्षा भी फारसी में ही हुई थी. प्रेमचंद का बचपन बहुत आसान नहीं था. पिता से बहुत अपनापा नहीं था और मां महज सात बरस की उमर में चल बसी थीं. पिता ने दूसरा विवाह कर लिया. दूसरी मां ने न कभी उन्‍हें मां का प्‍यार दिया और न वो कभी बेटा ही हो पाए. हालांकि का साया भी ज्‍यादा लंबे समय तक सिर पर रहा नहीं. जब वो सिर्फ 16 साल के थे तो पिता भी चल बसे. एक बरस पहले ही उन्‍होंने धनपतराय का विवाह किया था. तब उनकी उम्र सिर्फ 15 साल थी.

इतनी कम उम्र में पिता के निधन के कारण अचानक घर की सारी जिम्‍मेदारियों का बोझ उन पर आन पड़ा. इतनी कम उम्र में इतना दुख, संघर्ष और जीवन के उतार-चढ़ावों ने ही शायद उन्‍हें लेखक बना दिया. प्रेमचंद ने लिखा भी है कि "वही लिखता है, जिसके भीतर कोई पीड़ा, कोई बेचैनी होती है." ये कहना सिर्फ प्रेमचंद का नहीं है. गैब्रिएल गार्सिया मार्खेज से लेकर ओरहान पामुक तक ने ये कहा है कि लेखन सिर्फ किसी गहरी पीड़ा से ही उपजता है. सुख में तो मनुष्‍य सुखी होने में ही इतना व्‍यस्‍त होता है. सुख से सुख उपज सकता है, सुख से रचना नहीं होती. सच भी है, संसार का कोई सृजन पीड़ा के बगैर संभव नहीं. मां को अपार कष्‍ट और पीड़ा दिए बगैर तो नया जीवन भी संसार में नहीं आता. सृजन का उत्‍स ही दुख है.

15 साल की उम्र में जिनके साथ प्रेमचंद का विवाह हुआ था, उनके बारे में ज्‍यादा कुछ लिखा हुआ नहीं मिलता. रामविलास शर्मा की किताब से इतना ही पता चलता है कि पहली पत्‍नी के साथ उनके संबंध बहुत अच्‍छे नहीं थे. 1906 में शिवरानी देवी के साथ उनका दूसरा विवाह हुआ था. शिवरानी देवी बाल विधवा थीं. उन दोनों की तीन संतानें हुईं- श्रीपत राय, अमृत राय और कमला देवी श्रीवास्तव. अमृत राय खुद आगे चलकर लेखक और अनुवादक हुए. उन्‍होंने विश्‍व साहित्‍य की कुछ अनूठी कृतियों का हिंदी में अनुवाद किया है. रॉबर्ट फ्रॉस्‍ट का उपन्‍यास स्‍पार्टाकस उनमें से एक है, जो हिंदी सहित्‍य का अब तक का सबसे उम्‍दा अनुवाद है. अमृत राय ने 'कलम का सिपाही' नाम से अपने पिता की लंबी जीवनी भी लिखी थी, जो हिंदी साहित्‍य के सबसे उत्‍कृष्‍ट जीवनियों में से एक है.

पत्‍नी शिवरानी देवी के साथ मुंशी प्रेमचंद

शिवरानी देवी के साथ प्रेमचंद के संबंध बहुत मधुर थे. उन्‍होंने एक किताब लिखी थी- 'प्रेमचंद घर में,' जिसमें उन्‍होंने अपने पति से जुड़ी यादों को एक जगह संजोया है. इस किताब में एक जगह शिवरानी देवी लिखती हैं-

शादी के पहले मेरी रुचि साहित्य में बिल्कुल नहीं थी. उसके बारे में मैं कुछ जानती भी नहीं थी. मैं पढ़ी भी नहीं के बराबर थी.

कानपुर से 'सोज़े वतन' का पार्सल आया. एक कॉपी रख ली. बाक़ी मजिस्ट्रेट को वापस कर दी गईं.

उन दिनों मैं अकेले महोबे में रहती थी. वे जब दौरे पर रहते तो मेरे साथ ही सारा समय काटते और अपनी रचनाएँ सुनाते. अंग्रेज़ी अखबार पढ़ते तो उसका अनुवाद मुझे सुनाते. उनकी कहानियों को सुनते-सुनते मेरी भी रुचि साहित्य की ओर हुई. जब वे घर पर होते, तब मैं उनसे पढ़ने के लिए कुछ आग्रह करती. सुबह का समय लिखने के लिए वे नियत रखते. दौरे पर भी वे सुबह ही लिखते. बाद को मुयाइना करने जाते. इसी तरह मुझे उनके साहित्यिक जीवन के साथ सहयोग करने का अवसर मिलता. जब वे दौरे पर होते, तब मैं दिन भर किताबें पढ़ती रहती. इसी तरह साहित्य में मेरा प्रवेश हुआ. उनके घर रहने पर मुझे पढ़ने की आवश्यकता न प्रतीत होती.

मुझे भी इच्छा होती कि मैं भी कहानी लिखूं. हालांकि मेरा ज्ञान नाममात्र को भी न था, पर मैं इसी कोशिश में रहती कि किसी तरह मैं कोई कहानी लिखूं. उनकी तरह तो क्या लिखती? मैं लिख-लिखकर फाड़ देती. और उन्हें दिखाती भी नहीं थी. हां, जब उन पर कोई आलोचना निकलती तो मुझे उसे सुनाते. उनकी अच्छी आलोचना प्रिय लगती. काफ़ी देर तक यह ख़ुशी रहती.मुझे यह जानकार गर्व होता है कि मेरे पति पर यह आलोचना निकली है. जब कभी उनकी कोई कड़ी आलोचना निकलती, तब भी वे उसे बड़े चाव से पढ़ते. मुझे तो बहुत बुरा लगता.

मैं इसी तरह कहानियां लिखती और फाड़कर फेंक देती. बाद में गृहस्थी में पड़कर कुछ दिनों के लिए मेरा लिखना छूट गया. हां, कभी कोई भाव मन में आता तो उनसे कहती, इस पर आप कोई कहानी लिख लें. वे ज़रूर उस पर कहानी लिखते.

मेरी पहली 'साहस' नाम की कहानी 'चाँद' में छपी. मैंने वह कहानी उन्हें नहीं दिखाई थी. 'चांद' में आपने देखा. ऊपर आकर मुझसे बोले—'अच्छा, अब आप भी कहानी-लेखिका बन गईं.' फिर बोले—'यह कहानी आफ़िस में मैंने देखी. आफ़िसवाले पढ़-पढ़कर खूब हँसते रहे. कइयों ने मुझ पर संदेह किया.'

तब से जो कुछ मैं लिखती, उन्हें दिखा देती. हाँ, यह ख़याल मुझे ज़रूर रहता कि कहीं मेरी कहानी उनके अनुकरण पर न जा रही हो क्योंकि मैं लोकापवाद से डरती थी.

उस पूरी किताब में ऐसे अनेकों प्रसंग बार-बार आते हैं, जहां दोनों के संबंधों की सहजता, सरलता और प्रगाढ़ता की झलक मिलती है.

यूं तो प्रेमचंद ने काम करना मैट्रिक की पढ़ाई पूरी करने के बाद ही शुरू कर दिया था. वो एक स्‍कूल में पढ़ाने लगे थे. 1910 में उन्‍होंने अंग्रेज़ी, दर्शन, इतिहास और फ़ारसी विषय से बारहवीं पास की. 1919 में वे शिक्षा विभाग में के इंस्पेक्टर बन गए. नौकरी ठीकठाक चल रही थी. घर भी चल रहा था और लेखन भी.

उर्दू में लिखी पहली किताब सोजे वतन को जब अंग्रेजों ने जब्‍त कर लिया था तो उसके बाद वो नाम बदलकर प्रेमचंद नाम से हिंदी में लिखने लगे थे. लेकिन वो वक्‍त दूसरा था. आजादी की लड़ाई जोरों पर थी. पूरे देश में गांधीजी के असहयोग आंदोलन का असर था. यह आग इतनी बड़ी और इतनी गहरी थी कि कोई भी उसके असर से अछूता नहीं रह सकता था. गांधीजी की एक पुकार पर प्रेमचंद ने लगी-लगाई सरकारी नौकरी छोड़ दी. ये बात है 23 जून, 1921 की. एक दिन प्रेमचंद दफ्तर गए और अंग्रेज हुक्‍मरान को अपना इस्‍तीफा थमा आए. भीतर एक फिक्र भी थी कि अब क्‍या होगा. घर-गृहस्‍थी की गाड़ी कैसे चलेगी. लेकिन एक बार जो फैसला कर लिया तो मुड़कर पीछे नहीं देखना था. उसके बाद प्रेमचंद ने जीवन में कभी सरकारी नौकरी नहीं की. माधुरी आदि पत्रिकाओं में लिखकर घर का खर्च चलाते रहे. बाद में सरस्‍वती प्रेस खरीदा और हंस पत्रिका की शुरुआत की. व्‍यवसाय उनके खून में नहीं था. बिजनेस रास न आया. प्रेस चला नहीं, घाटा हुआ और कर्जा ऊपर से चढ़ गया. कर्ज उतारने के लिए उन्‍होंने मुंबई जाकर फिल्‍मों के लिए लिखने का काम लिया. मोहनलाल भवनानी के सिनेटोन कम्पनी के साथ कॉन्‍ट्रैक्‍ट भी साइन हुआ, लेकिन मुंबई शहर भी उन्‍हें रास नहीं आया. एक साल का कॉन्‍ट्रैक्‍ट था. वो दो महीने भी उसे निभा नहीं पाए और मुंबई छोड़कर बनारस लौट आए. सिर पर कर्ज और गरीबी का साया मंडरा रहा था. तबीयत लगातार बिगड़ती जा रही थी.

आखिरकार 8 अक्‍तूबर, 1936 को उन्‍होंने दुनिया को आखिरी बार भरी नजरों से देखा और रुखसत हो गए. उस वक्‍त उनकी उम्र महज 56 साल थी. लेकिन 56 साल की उम्र में उस शख्‍स ने हिंदी को विरासत में इतना कुछ दे दिया था कि जिसे पढ़ते, समझते, गुनते-बुनते हुए तमाम सदियां गुजर जानी थीं. महज 56 साल की उम्र तक उन्‍होंने इतना कुछ लिख दिया था कि जिसे पढ़ने के लिए एक पूरी उम्र भी कम पड़ जाए. 18 उपन्‍यास, 300 से ज्‍यादा कहानियां, 3 नाटक, बाल साहित्‍य, अनगिनत निबंध, लेख और दो संस्‍मरण.

कहते हैं जीवन की आंकलन वर्षों में नहीं होता. प्रेमचंद के जीवन से बेहतर इसका पैमाना और क्‍या हो सकता है. प्रेमचंद ने लिखा था- "मेरा जीवन सपाट समतल मैदान है जिसमें गड्ढे तो कहीं-कहीं पर हैं, परन्तु टीलों, पर्वतों, घने जंगलों, ग़हरी घाटियों और खण्डरों का स्थान नहीं है." उन्‍होंने भले अपने जीवन की यात्रा को खुद ऐसे नहीं देखा कि उसमें कहीं गहरी खाइयां तो कहीं ऊंचा पहाड़ भी है, लेकिन उनका लिखा हुआ साहित्‍य अंत में वही ऊंचा पहाड़ हो गया, जिसे अपने जीवन काल में वो खुद तो देखने से चूक गए, लेकिन आज हम सब जिसे सिर उठाकर गर्व से माथा ऊंचा करके देखते हैं. प्रेमचंद के काम का कद खुद प्रेमचंद से कहीं ऊंचा हो गया है.

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