सम्पादकीय

अखिलेश यादव से हो रहा है मुसलमानों का मोहभंग, लेकिन विकल्प क्या है?

Rani Sahu
16 April 2022 9:07 AM GMT
अखिलेश यादव से हो रहा है मुसलमानों का मोहभंग, लेकिन विकल्प क्या है?
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उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद विधान परिषद में भी समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) को बुरी तरह मुह की खानी पड़ी है

यूसुफ़ अंसारी

उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद विधान परिषद में भी समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) को बुरी तरह मुह की खानी पड़ी है. इसके बाद समाजवादी पार्टी के मुखिया और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) के ख़िलाफ़ पार्टी में मुस्लिम नेताओं ने एक तरह से मोर्चा खोल दिया है. आज़म ख़ान और शफ़ीक़ुर्रहमान बर्क़ से लेकर कई मुस्लिम नेताओं की नाराज़गी सामने आई है. प्रदेश में माहौल बन गया है कि मुसलमानों का समाजवादी पार्टी और ख़ासकर अध्यक्ष अखिलेश यादव से मोहभंग हो रहा है. लेकिन सवाल यह है कि अखिलेश से नाराज़ मुसलमानों के पास आख़िर विकल्प क्या है?
क्या है अखिलेश से नाराज़गी की वजह?
समाजवादी पार्टी के तमाम मुस्लिम नेता अखिलेश पर यही आरोप लगा रहे हैं कि मुसलमानों पर जुल्म हो रहा है और अखिलेश यादव पूरी तरह चुप हैं. इस दर्द को समाजवादी पार्टी के लंभुआ सुल्तानपुर विधानसभा के सचिव सलमान जावेद राईनी ने पार्टी से दिए अपने इस्तीफे में बयां किया है. ज़िला अध्यक्ष को भेजे अपने इस्तीफे में उन्होंने लिखा है, 'मुसलमानों के साथ हो रहे जुल्म के खिलाफ, प्रदेश से लेकर दिल्ली तक सत्ता की मलाई खाने वाले समाजवादी पार्टी के पदाधिकारियों, नेताओं का आवाज़ न उठाना, आज़म ख़ान साहब को परिवार सहित जेल में डाल दिया गया! नाहीद हसन को जेल भेजा गया! शहज़िल इस्लाम का पेट्रोल पंप गिरा दिया गया! अखिलेश यादव खामोश रहे! जो कायर नेता अपने विधायकों के लिए भी आवाज़ नहीं उठा सकता वो आम कार्यकर्ता के लिए क्या आवाज उठाएगा…?' सलमान राईनी ने यह चिट्ठी सोशल मीडिया पर भी साझा की है. यह जमकर वायरल हो रही है. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि मुसलमानों के बीच किस तरह समाजवादी पार्टी के खिलाफ माहौल बन रहा है.
पार्टी में बढ़ा नाराज़गी का दायरा
सलमान जावेद राईनी पार्टी नेतृत्व के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले अकेले नेता नहीं है. उनसे पहले संभल से सांसद शफ़ीकुर्रहमान बर्क़ अखिलेश यादव के ख़िलाफ़ बयान दे चुके हैं. विधान परिषद के लिए हुए मतदान वाले दिन मीडिया से बात करते हुए उन्होंने कहा था कि वो बीजेपी के कामकाज से संतुष्ट नहीं हैं. बीजेपी सरकार मुसलमानों के हित में काम नहीं कर रही है. बीजेपी तो छोड़िए समाजवादी पार्टी ही मुसलमानों के हित में काम नहीं कर रही. बर्क़ के बाद समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता आज़म ख़ान के मीडिया प्रभारी ने भी अखिलेश यादव के नेतृत्व पर गंभीर सवाल उठाए थे. उनकी नाराज़गी इस बात को लेकर है कि आज़म खां ढाई साल से जेल में बंद हैं. अखिलेश यादव उनकी रिहाई की कोशिश तो को छोड़िए, आवाज तक नहीं उठा रहे हैं. आज़म ख़ान के परिवार की तरफ से मीडिया प्रभारी के इस बयान पर कोई टिप्पणी नहीं आई है. इसलिए माना जा रहा है कि यह बयान आज़म खान की सहमति से दिया गया है. मुस्लिम नेताओं की इस नाराज़गी से समाजवादी पार्टी में हड़कंप मचा हुआ है.
मुस्लिम संगठनों का भी एसपी से मोहभंग
समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव से मुसलमानों के मोहभंग होने वाला दायरा बढ़ता जा रहा है, विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी का समर्थन करने वाले मुस्लिम संगठनों ने भी मुसलमानों से समाजवादी पार्टी का साथ छोड़ने की अपील कर दी है. बरेलवी मसलक के सबसे बड़े संगठन ऑल इंडिया तंजीम उलेमा-ए-इस्लाम ने इसकी शुरुआत की है. संगठन के राष्ट्रीय सचिव मौलाना शहाबुद्दीन रिजवी ने बाक़ायदा एक बयान जारी करके मुसलमानों से एसपी का साथ छोड़ने और विकल्प तलाशने की अपील की है. इसके साथ ही उन्होंने मुसलमानों को बीजेपी का विरोध नहीं करने की सलाह भी दे डाली है. मौलाना शहाबुद्दीन रिजवी ने अपने बयान में कहा है कि मुसलमानों में डर और निराशा है मगर वह सकारात्मक रहें. यह विश्लेषण करने की ज़रूरत है कि हम किसके साथ खड़े हैं और कहां खड़े हैं.
अखिलेश की नेतृत्व क्षमता पर गंभीर सवाल
समाजवादी पार्टी के मुस्लिम नेताओं के साथ अब मुस्लिम संगठन भी अखिलेश यादव के नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठा रहे हैं. खासकर विधान परिषद के चुनाव में समाजवादी पार्टी के खराब प्रदर्शन के बाद यह सवाल और पुख्ता होकर उभर रहे हैं. दरअसल समाजवादी पार्टी के गढ़ समझे जाने वाले इटावा, मैनपुरी और आज़मगढ़ जैसे ज़िलों में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हुई है. इससे आम धारणा बन रही है कि अखिलेश यादव अपने ही लोगों को बीजेपी में जाने से नहीं रोक पा रहे. शहाबुद्दीन रिजवी ने भी अपने बयान में इस मुद्दे को उठाया या है. उन्होंने कहा है कि विधानसभा चुनाव में मुसलमानों ने समाजवादी पार्टी को एक तरफा वोट दिया था. इससे पार्टी की ताक़त तो बढ़ी, मगर उसकी सरकार नहीं बन सकी. इसके लिए अखिलेश यादव पूरी तरह ज़िम्मेदार हैं. वो अपने समुदाय यानि यादव वोटरों को एकजुट रखने में पूरी तरह नाकाम रहे. यादव बहुल 43 विधानसभा सीटों पर बीजेपी की जीत इसका ठोस सबूत है.
विकल्पों पर विचार
सबसे अहम और बड़ा सवाल यह है कि अखिलेश यादव से नाराज होने वाले पार्टी के भीतर के नेताओं और मुस्लिम संगठनों के पास आखिर विकल्प क्या है? सबसे पहले गौर करते हैं कि मौलाना शहाबुद्दीन रिजवी ने अपने बयान में क्या कहा है. उन्होंने कहा है, 'मुसलमानों को धर्मनिरपेक्षता का ठेका लेना बंद कर देना चाहिए. राजनीति और भागीदारी पर नए सिरे से बात करें. एक ख़ास पार्टी के सहारे रहकर कुछ नहीं मिलेगा. इसके अलावा दूसरे विकल्प पर विचार करें. किसी के ख़िलाफ़ होकर दुश्मनी नहीं लेनी चाहिए.' इसे साफ है कि वह मुसलमानों को बीजेपी से दुश्मनी का भाव त्यागने की अपील कर रहे हैं और बीजेपी के साथ जुड़ कर हिस्सेदारी मांगने की बात कर रहे हैं. विधान परिषद के चुनाव में तमाम चुने हुए मुस्लिम प्रतिनिधियों ने खुले तौर पर बीजेपी को वोट दिया है, बीजेपी के टिकट पर जीतने वाले कई सदस्यों ने खुले तौर पर यह स्वीकार किया है कि उनके क्षेत्र से उन्हें मुस्लिम ग्राम प्रधानों जिला पंचायत के सदस्यों, चेयरमैनों और नगर पालिका व पंचायत अध्यक्षों के साथ-साथ पार्षदों के वोट भी मिले हैं.
क्या बीएसपी हो सकती है मुसलमानों के लिए विकल्प
पिछले तीन दशकों से उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुसलमानों के लिए समाजवादी पार्टी और बीएसपी दो ही विकल्प रहे हैं. कांग्रेस 1989 में सत्ता से बाहर होने के बाद पूरी तरह से हाशिए पर रही है. इस विधानसभा चुनाव में सबसे ज्यादा नुकसान बीएसपी को हुआ है. उसका करीब 10 फीसदी वोट कम हुआ है. जबकि समाजवादी पार्टी का 10 फीसदी वोट बढ़ा है. इसका मतलब ये है कि भविष्य में समाजवादी पार्टी ही बीजेपी का विकल्प बन सकती है. बीएसपी में बीजेपी का विकल्प बनने की ताक़त अब नहीं रही. ऐसे में समाजवादी पार्टी से नाराज़ मुसलमानों के लिए बीएसपी एक मज़बूत विकल्प नहीं हो सकती.
वैसे भी जिन मुद्दों पर समाजवादी पार्टी से मुसलमानों की नाराज़गी है उन मुद्दों पर बीएसपी प्रमुख मायावती का भी वही रवैया है जो अखिलेश यादव का है. ऐसे में बीजेपी को हराने की सोच रखने वाले मुसलमानों के लिए बीएसपी मज़बूत और भरोसेमंद विकल्प नहीं हो सकती. बीएसपी का पुराना रिकॉर्ड बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाने का है. इस बार विधानसभा चुनाव में भी बीएसपी के बारे में यह चर्चा आम थी कि अगर बीजेपी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला तो वह बीएसपी की वजह से सरकार बना सकती है.
क्या उभर सकता है मुस्लिम नेतृत्व?
उत्तर प्रदेश के राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि आज़म ख़ान और शफ़ीक़ुर्रहमान बर्क़ जैसे मुस्लिम नेता असदुद्दीन ओवैसी के साथ मिलकर कोई मुस्लिम मोर्चा खड़ा कर सकते हैं. हालांकि इस बात की संभावना बहुत कम है. इसका कोई तार्किक आधार भी नहीं है. मुस्लिम नेतृत्व वाली कई पार्टियां पहले ही मुसलमानों के उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पाई हैं. आज़म ख़ान भले ही अपनी कट्टर मुस्लिम छवि के लिए जाने हों, लेकिन राजनीति उन्होंने हमेशा धर्मनिरपेक्षता की ही की है. समाजवादी पार्टी से 6 साल के लिए निकाले जाने जाने के बाद भी उन्होंने न अपनी अलग पार्टी बनाई थी और न ही किसी दूसरी पार्टी का दामन थामा था.
हालांकि, ओवैसी आज़म ख़ान को अपनी पार्टी में लाने की भरसक कोशिश कर चुके हैं. लेकिन आज़म ख़ान या उनके परिवार ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया कि वह उनके साथ जा सकते हैं. वैसे भी राजनीति में आज़म ख़ान का क़द असदुद्दीन ओवैसी के मुक़ाबले कहीं ज्यादा बड़ा है. आज़म ख़ान समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह के बाद नंबर दो की हैसियत में रहे हैं. अखिलेश यादव की सरकार में भी उनकी वही स्थिति थी. यह रुतबा छोड़कर वह असदुद्दीन ओवैसी का पिछलग्गू बनने की ग़लती कम से कम उम्र के इस पड़ाव में तो नहीं ही करेंगे, जब उनका स्वास्थ्य किसी पार्टी के लिए सक्रिय रूप से काम करने की इजाज़त नहीं दे रहा हो.
राजनीति में क़यास लगते रहते हैं. पार्टियों के भीतर नाराज़गी चलती रहती है. ये बग़ावत में तब तक नहीं बदलती जब तक सामने कोई ठोस विकल्प न हो. समाजवादी पार्टी से नाराज चल रहे मुस्लिम नेताओं के सामने विकल्प का संकट है. जो विकल्प है भी वो सब आजमाए हुए हैं. लिहाजा नाराजगी देर सबेर ठंडी पड़ जाएगी. लगता है नाराज़गी जताने वाले मुस्लिम नेता समाजवादी पार्टी के भीतर ही अपनी जगह मज़बूत करना चाहते हैं. इस नाराज़गी से अखिलेश यादव को एक मजबूत संकेत ज़रूर मिल रहा है कि उन्हें अपने राजनीतिक तौर-तरीकों को बदलना होगा. उन्हें यह साबित करना होगा कि आगे चल कर वो योगी आदित्यनाथ का विकल्प बन सकते हैं. अंदरूनी और बाहरी नाराज़गी से जूझते हुए अखिलेश यादव के लिए यही सबसे बड़ी चुनौती है.
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