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By: divyahimachal
देश की वास्तविकता को देश कितना देखता है या हकीकत से रूबरू होने के लिए मीडिया पर कितना भरोसा करें, यह बहस का विषय अब रहा नहीं। पिछले कुछ सालों में हमने जो देखा, वह सुनाई नहीं दिया और जो मीडिया ने सुनाया, उसे सुनकर कान बहरे और दृष्टि कमजोर होती गई। ऐसे में नागरिक के सवाल लाभार्थी होने की मचान पर चले गए, जबकि देश का गुणगान करना हमारी व्यथा हो गई। इस दौरान दिखाने वाल मीडिया, पढ़ाने वाली पत्रकारिता और समाज के मनोरंजन में नफरत का बाजार गर्म करने वाला फिल्म जगत इतना परवान चढ़ गया कि फिल्में सियासत की तिजोरी को गर्म करने लगीं या लोगों को भीड़ बनाकर जोतने लगीं। जहां कहने की बात सुनने की फिरौती बन जाए या देश एक तरह के राग द्वेष में पहेलियों के अर्थ बदलने लगे, वहां एक सच्ची अभिव्यक्ति की जरूरत थी, जिसे पूरा करने की वजह से देशभर में ‘विक्रम राठौड़’ जीत रहा है। यह विक्रम राठौर पिछले कुछ वर्षों से नदारद था या इसे हमारी व्यवस्था ने ही कहीं कैद करके रखा था। यह ‘विक्रम राठौर’ हमारे भीतर भी था। मीडिया के भीतर भी था और फिल्मों के विषयों में भी था, लेकिन हम सभी ने पिंजरे बना लिए थे। इस ‘विक्रम राठौर’ को शाहरुख खान ने अपनी ताजातरीन फिल्म ‘जवान’ में जिंदा कर दिया है।
यह फिल्म वही सब कुछ बोल रही है, जो हमारे कानों में पहले से मौजूद है। यह वही दिखा रही है, जो हमारी लोकतांत्रिक आंखें देख रही हैं। ‘जवान’ फिल्म खेत में किसान को, बैंक में आम उपभोक्ता को व चुनाव में ईवीएम मशीन के जरिए आम मतदाता के साथ बोल रही है। फिल्म का एक व्यावसायिक पक्ष रहा होगा या फिल्म इंडस्ट्री के बासीपन को मिटाने की भूख रही होगी, लेकिन देश में ‘वक्त’ की सही परिस्थिति का मुआयना अगर ‘जवान’ के जरिए हो रहा है, तो यह कालखंड याद किया जा रहा है। फिल्म दर्शक अभी कुछ दिन पहले तक एक खास मजमून की तलाश में इतिहास देख रहे थे, लेकिन ‘जवान’ के माध्यम से वे हकीकत से रूबरू होने के लिए थियेटर से वास्तविकता के शब्द खोज रहे हैं। यह नागरिक संवाद की नई परिभाषा है जो फिल्मी पर्दे पर एक जुनून की तरह चिन्हित है। हम इसे महज फिल्म या फिल्म का क्रॉफ्ट मानें, लेकिन विषयों की तीव्रता में जिस हिंदोस्तान को शाहरुख खान दिखा रहे हैं, वहां फिल्म से कहीं ज्यादा देश की समीक्षा हो रही है। देश की समीक्षा में किसानों की आत्महत्या के कारण दिखाई दे रहे हैं। सरकारी अस्पतालों की स्थिति दिखाई दे रही है, तो ऑक्सीजन को तड़पती लाशों के बीच भी गुनाह ढूंढने की व्यवस्था में कोई निर्दोष शहीद हो रहा है।
व्यवस्था के दागों पर फिल्म की टिप्पणियां रौंगटे खड़े कर देती हैं, तो क्या वहां दर्शक सिर्फ फिल्म देख रहा है। यकीनन नहीं क्योंकि वहां वह व्यवस्था की आंच में खुद को टटोल रहा है। फिल्म के कथानक में व्यवस्था के साक्ष्य दर्शक को नागरिक समाज बना रहे हैं, इसलिए वहां सूचना के अवरुद्ध लिफाफे खुल रहे हैं। कम से कम इस फिल्म ने मीडिया के आचरण और गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार को शीशे पर उतार दिया है। यह वह सच है जिससे कोसों दूर बैठ चुके मीडिया ने अपने दायित्व से कन्नी काट ली है। हम फिल्म को फिल्म की तरह नहीं देख रहे, लेकिन फिल्म से मिले ‘विक्रम राठौर’ के चरित्र से यह उम्मीद रखते हैं कि अब गंूगे हो चुके समाज की अंगुलियों पर लोकतंत्र के प्रश्न और व्यवस्था से पूछने का साहस पैदा होगा। मुंबई फिल्म उद्योग से निकला यह साहसिक कदम उस ‘भारत’ के करीब पहुंच रहा है, जिसकी खातिर हम सभी आजाद हुए या जिसकी मर्यादा के लिए हमने भारतीय संविधान का निर्माण किया।
Rani Sahu
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