सम्पादकीय

दिलीप कुमार की यादें: किरदार से बड़ा कलाकार नहीं

Gulabi
8 July 2021 4:58 PM GMT
दिलीप कुमार की यादें: किरदार से बड़ा कलाकार नहीं
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दिलीप कुमार की यादें

कलाकार कभी भी किरदार से बड़ा नहीं होता। न हो सकता है। जब भी कलाकार के पास उसके बड़ा होने का एहसास होता है, तब तक वह किरदार को जी नहीं पाता। जब वह किरदार को अपने से अधिक महत्व देने लगता है, उसका अहंकार कम होने लगता है। लोग उसके किरदार की तारीफ करने लगते हैं। किरदार को निभाने के बाद जब वह अपने वजूद में वापस लौटता है, तो उसे अपना वजूद ढूंढ़ना पड़ता है। अपने वजूद में लौटने के दरमियान जब वह कुछ नहीं होता, वह ईश्वर के सबसे करीब होता है।' फिल्म मधुमती की शूट के दौरान बिमल रॉय से बातचीत के बीच एकाएक यह बात दिलीप कुमार को सूझी थी और उनमें नई ऊर्जा भर आई थी। उन्होंने इस ओर बिमल दा का ध्यान खींचा और कहा, अचानक मुझे लगा कि कलाकार तो कभी किरदार से बड़ा हो ही नहीं सकता, और ये बात कभी मुझे पहले क्यों नही सूझी! आपको क्या लगता है बिमल दा! बिमल दा ने उसी पल उन्हें बाहों में भर लिया था।

दिलीप कुमार ने 1989 में दिल्ली के सिरीफोर्ट सभागार के बाहर कुछ लोगों के साथ यह वाकया साझा किया था। अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह के दौरान देश भारतीय सिनेमा के 75 साल पूरे होने पर उत्सव मना रहा था और हम दिलीप साहब के साथ यादों के उत्सव में थे। दिलीप साहब बिमल दा के साथ शुरुआत करना चाहते थे, पर ऐसा नहीं हो सका। बिमल दा ने 1944 में बांग्ला में फिल्म उदयेर पथे बनाकर उसका हिंदी अंतरण हमराही नाम से प्रस्तुत किया था, और दिलीप साहब ने ज्वार भाटा उसी साल की थी और अपनी इस पहली फिल्म में अपने साधारण अभिनय को लेकर हतोत्साहित हो गए थे। तीन साल बाद जुगनू प्रदर्शित होने वाली थी और देश को भी आजाद होना था, लेकिन दिलीप साहब के जेहन में बस दो जिक्र चहलकदमी कर रहे थे।
एक तो था तीस के दशक से प्राणवंत हुआ भारतीय सिनेमा का दौर और दूसरा, बिमल दा की हिंदी में बनी पहली फिल्म हमराही। ये दो जिक्र 1942 में बीस साल के यूसुफ खान के दिल की अमिट छाप थे। यह देश में 'भारत छोड़ो आंदोलन' का भी वक्त था। एक तरफ देश में आजादी की गहमागहमी और दूसरी ओर प्रभात फिल्म कंपनी, न्यू थियेटर और बॉम्बे टाकीज की बदलती परिस्थितियां। प्रभात फिल्म कंपनी के पंच तय नहीं कर पा रहे थे कि फिल्म की विषयवस्तु का रुख किस ओर मोड़ें, क्योंकि प्रमथेश चंद्र बरुआ बांग्ला में न्यू थियेटर के लिए पहली राजनीतिक फिल्म मुक्ति 1937 में और उससे पहले 1935 में देवदास बनाकर सवाक फिल्म की मुखशुद्धि कर चुके थे।
ऐसा ही कुछ किशोर यूसुफ हिंदी में भी चाहते थे, यानी हिंदुस्तानी सिनेमा में। कुछ देवदास-सा और कुछ मुक्ति-सा। सफलता के बावजूद बॉम्बे टॉकीज के सामने दो दिक्कतें आ चुकी थीं। पहली यह कि अशोक कुमार और देविका रानी की जोड़ी, अशोक कुमार और लीला चिटनीस की जोड़ी में बदल कर पूरी हो चली थी। कंपनी को आगे कुछ सूझ नहीं रहा था, यानी कुंदन लाल सहगल, पृथ्वीराज कपूर और अशोक कुमार से आगे का दौर क्या हो। दूसरी दिक्कत यह थी कि हिमांशु रॉय के मर जाने के बाद और निकोलाई रोरिख से शादी कर देविका रानी कंपनी को लेकर उदासीन भी हो गई थीं। अशोक कुमार और सुबोध मुखर्जी ने अपनी नई फिल्म कंपनी फिल्मिस्तान बना ली थी और उसके लिए कोई नया चेहरा ढूंढ़ रहे थे।
इस बीच, 40 का दशक शुरू हो गया था। 1943 तक यह सारा परिप्रेक्ष्य दिलीप कुमार के जेहन में था और वह फिल्म में अपने पहले किरदार से बस थोड़ी ही दूर थे, जैसे देश अपनी आजादी से। 1943 में दो फिल्में आईं और रुख फिर बदल गया। एक थी सहगल की तानसेन और दूसरी किस्मत। किस्मत में अशोक कुमार का नया अवतार था। बॉम्बे टॉकीज के लिए ही बनारस के ज्ञान मुखर्जी ने यह फिल्म बनाई थी और हिंदी फिल्मों को पहला फिल्म सूत्र दिया था खलनायक नायक का, जिसे हम दिलीप कुमार की तीसरी पीढ़ी में अमिताभ की दीवार में समझते हैं।
किस्मत के वक्त में ही बिमल रॉय उदयेर पथे शूट कर रहे थे। हिंदी में जब यह प्रदर्शित हुई, तो इसे समीक्षकों ने बुद्धिजीवियों की फिल्म घोषित की और दिलीप साहब ने मन बना लिया बिमल दा से मिलने का। मिलने से पहले तीन बातें हुईं, जो दिलीप कुमार के लिए महत्व की थीं। देश आजाद हुआ, 1953 में बिमल दा की फिल्म आई दो बीघा जमीन और तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने देश के नवनिर्माण के लिए मंत्र दिया पंचशील। उन दिनों फिल्म इंडस्ट्री समेत सभी गांधी जी और पंडित जी से प्रेरित थे। दिलीप साहब भी। पंडित जी नया भारत चाहते थे, जिसमें हो नई कहानी, नई कविता, नया थियेटर और नया सिनेमा का नया दौर। इसी उद्देश्य से उन्होंने 1952 में पहले अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह आयोजित कराया था। ज्वार भाटा से जुगनू होते हुए दिलीप कुमार 1948 में मेला और 1955 में फिल्म आजाद तक लोगों के दिल में अपने लिए मुकम्मल जगह बना चुके थे, एक पीढ़ी बना चुके थे। बस फिर क्या था, बिमल दा से मुलाकात हुई और मधुमती और देवदास जैसी फिल्में बनीं। पचास के दौर की ये फिल्में मील का पत्थर बन गईं, दिलीप कुमार, देव आनंद और राज कपूर भारतीय फिल्म दर्शकों के आइकन बन गए।
40 और 50 के दशक की बात करते हुए दिलीप साहब बिमल रॉय और फणि मजूमदार की बात खूब किया करते थे। उनके करिअर में दूसरा दौर आया फिल्म नया दौर से। नया दौर, गंगा जमुना और गोपी जैसी फिल्मों से हम भारतीय समाज के उस ग्रामीण समाज के चित्रण को समझ सकते हैं, जहां नायक न नायक था, न खलनायक। वह एक ऐसा आम आदमी है, जो सच और शुभता के पक्ष में संघर्षरत है। मुगले आजम से पहले तक दिलीप साहब अपने किसी किरदार को जीने के लिए किसी शैली की तलाश में मशगूल थे। उन दिनों वह अमेरिकी अभिनेता पॉल म्यूनि से प्रभावित थे और वह इस प्रभाव को संजोए रखना चाहते थे। उनसे उन्होंने सीखा थे कि दो संवाद के दौरान खामोशी कैसे पैदा की जा सकती है।
इस बीच, शम्मी कपूर, राजेंद्र कुमार, जॉय मुखर्जी और मनोज कुमार की अगली पीढ़ी पनप चुकी थी और वह मनोज कुमार के साथ आदमी जैसी फिल्म कर रहे थे। यह शैली तो प्रतिष्ठित हो ही गई कि फुसफुसाहट और खामोशी के बीच शब्द को अपना उच्चार कैसे मिले, साथ ही किरदार को कलाकार से ऊपर प्रतिष्ठित करने की उनकी सोच भी वह अगली दोनों पीढ़ियों के मन में रोप चुके थे। यानी अमिताभ और फिर अनिल कपूर, शाहरुख खान की पीढ़ी में। इन पीढ़ियों को आप अभिनय करते देखें, तो आपको दिलीप साहब जी दिखेंगे, और जीवित दिखेगा यह विचार कि हमेशा बड़ा होता है किरदार, दिलीप कुमार जैसे कलाकार के लिए।
क्रेडिट बाय अमर उजाला
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