सम्पादकीय

बदलते परिवेश में टेलीविजन बहस के मायने

Rani Sahu
7 Jun 2022 7:19 PM GMT
बदलते परिवेश में टेलीविजन बहस के मायने
x
पिछले कुछ सालों में टेलीविजन पर जम कर बोलने वालों की न केवल संख्या में वृद्धि हुई है

पिछले कुछ सालों में टेलीविजन पर जम कर बोलने वालों की न केवल संख्या में वृद्धि हुई है, लेकिन उनके तर्क और बहस का स्तर भी गिरा है। चीखना चिल्लाना और ऊंची आवाज में अपने तर्क को तर्कसंगत करना बहुत से लोगों की प्रवृत्ति बन गई है। अपनी बात को मनवाने के लिए उसे जोर देकर कहना, अधिकतर प्रवक्ताओं की आदत बन गई है। अभी हाल ही में, भारतीय जनता पार्टी के दो प्रवक्ताओं द्वारा दिए गए वक्तव्य कारण विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी को, इन प्रवक्ताओं को पार्टी से निष्काषित करना पड़ा। प्रश्न यह नहीं कि आप आवेश में आकर क्या कह जाते हैं या किसी एंकर के उकसाने पर आप क्या कहते हैं, प्रश्न यह है कि क्या जो वक्तव्य आप दे रहे हैं, उससे आपकी पार्टी जिसका आप प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, क्या वह आप की तर्क और वक्तव्यों का समर्थन करेगी, क्या यह उनकी नीति के पक्ष में है। इसके दूरगामी क्या परिणाम हो सकते हैं? क्या यह अलगवाद को बढ़ावा देगा? टविटर और दूसरे सामाजिक प्लेटफार्म से यह बात जंगल में फैली आग की तरह सब को अपनी चपेट में ले लेती है और जंगल की आग को बुझाना मुश्किल होता है।

टेलीविजन और दूसरे सामाजिक प्लेटफार्म पर अपने वक्तव्य देने के लिए, हर राजनीतिक दल अपने प्रवक्ता चुनता है,जो खास कर उस समय अपने वक्तव्यों का ध्यान रख सकें जब वे कहीं भी पार्टी या उसकी विचारधारा को व्यक्त कर रहे हो, बहस में आप अपने व्यक्तिगत विचार व्यक्त नहीं कर सकते, अगर आप किसी पार्टी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। पार्टी अगर उस से सहमत नहीं है तो आपको उसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है, जैसे भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता और एक मीडिया प्रभारी को भुगतना पड़ा। पार्टी और देश के हित में अगर आप कुछ कहते हैं तो बात अलग है, लेकिन अगर आप की भावनाएं किसी समुदाय को आहत करती हैं या आपसी रंजिश पैदा करती हैं तो यह वक्तव्य अक्षम्य है। देश टविटर या टेलीविजन चैनल पर की गई बहस से नहीं चलता, अमुक चैनल की टीआरपी आप बढ़ा सकते हैं। हमारा एक वक्तव्य कितने लोगों को ठेस पहुंचा सकता है इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए, जो भी प्रवक्ता कुछ भी वक्तव्य देता है। इस देश में जहां अब भी बहुत से लोग सुनी सुनाई बातों पर भरोसा कर अपना निर्णय, वक्तव्य या प्रतिक्रिया बदलते हैं, किसी भी स्थिति को आपे से बाहर करने के लिए काफी है। भारतीय जनता पार्टी के दो प्रवक्ताओं द्वारा दिए गए दो वक्तव्यों की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर न केवल घोर निंदा की गई अपितु प्रवासी भारतीयों और भारतीय निर्यातित उत्पादों के बहिष्कार की भी बातें होने लगी। खाड़ी के देशों ने जिनमें कुवैत, साऊदी अरब, कतार शामिल हैं, ने इस विषय को लेकर भारतीय सरकार से जवाब मांगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रयासों से बहुत से खाड़ी के देश भारत में निवेश करने के लिए तैयार हैं और कई व्यापार समझौते भी पिछले कई सालों में हुए हैं। प्रश्न यह है कि किसी प्रवक्ता की राय पर जिस से पार्टी का नेतृत्व सहमत नहीं है, उस से भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि को क्या धूमिल होने दिया जा सकता है। क्या पिछले कई सालों की मेहनत को बेकार जाने दिया जा सकता है। कानपुर में दो समुदायों में आपसी दंगे भड़क गए, जिन पर मुश्किल से काबू पाया गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक, मोहन भागवत का यह ब्यान की दोनों समुदायों को आपस में आमने सामने बैठ कर बात करनी चाहिए, इस बात की तरफ इशारा करता है कि विभाजन की राजनीति शायद समय की मांग नहीं है। आपसी द्वेष और घृणा से कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता। उधर भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा का यह कहना कि उनका वाराणसी और मथुरा में चल रही न्यायिक बहस में, कोर्ट जो भी निर्णय करेगा, वह उन्हें मान्य होगा। यह बहुत ही सार्थक प्रयास और सोच है। पिछले सप्ताह जो भी राजनीतिक उथल -पुथल हुई, विशेष टिप्पणियों की वजह से। उससे कुछ बातें साफ हो जाती हैं, जो किसी भी पार्टी के लिए, अपने प्रवक्ता और मीडिया प्रभारी चुनते समय ध्यान में रखनी होंगी। जो भी कार्यकर्ता आप चुन रहे हैं, वह आपकी पार्टी की नीतियों से अच्छी तरह परिचित है या नहीं। जब वह किसी मंच पर बात कर रहा है, तो क्या वह अपनी बात रख रहा है या पार्टी की बात कर रहा है।
क्या उस व्यक्ति को उकसाया जा सकता है? ताकि वह आवेश और भावनाओं में बह कर कुछ भी कह दे जिसका खामियाजा पार्टी को बाद में भुगतना पड़े। उस व्यक्ति विशेष का, जिस भी पार्टी का वह प्रतिनिधित्व कर रहा है चाहे वह राज्य स्तर पर हो या राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, पार्टी के विषय में किस तरह वक्तव्य देना है, उसका ध्यान रख पाएगा या नहीं। राजनीतिक वक्तव्यों के लिए किसी चर्चित या बिना सोच समझ कर बोलने वाले लोगों की जरूरत नहीं होती। आप के वक्तव्य इतने सार्थक और महत्त्वपूर्ण होने चाहिए कि आप उनसे चर्चित हों। प्रत्येक राजनीतिक दल में हर तरह के लोग होते हैं अपनी-अपनी विशेषताएं होती हैं, जिनमें संगठन, जमीन से जुड़ाव, लोगों में लोकप्रियता और व्यवहार। सब के सब बुद्धिजीवी अच्छे वक्ता हों यह जरूरी नहीं। लेकिन जो व्यक्ति अपनी बात सब के सामने रख रहा है, वह उस समय कितना संतुलित है यह बहुत महत्त्वपूर्ण है। एक बार अपनी बात कहने के बाद, उसके परिणाम आपके वश में नहीं रहते, क्योंकि उस परिवेश और परिस्थिति में कौन कैसे अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है, उस पर आपका नियंत्रण नहीं रहता। सोशल मीडिया पर एक हद के बाद नियंत्रण नहीं है, क्योंकि यह एक सीमा तक ही नियंत्रित है। सोशल मीडिया पर तथ्यों और वक्तव्यों की जब तक पुष्टि होती है तब तक नुकसान हो चुका होता है। टेलीविजन चैनलों और सामाजिक मंचों पर हो रही बहस को आप रोक नहीं सकते, क्योंकि सबको अभिव्यक्ति का अधिकार प्राप्त है। लेकिन जो व्यक्ति आप का प्रतिनिधित्व कर रहा है आप उसकी जांच परख, बोलने की क्षमता और बौद्धिकता तो जांच सकते हैं।
रमेश पठानिया
स्वतंत्र लेखक

सोर्स- divyahimachal


Rani Sahu

Rani Sahu

    Next Story