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- बदलते परिवेश में...
पिछले कुछ सालों में टेलीविजन पर जम कर बोलने वालों की न केवल संख्या में वृद्धि हुई है, लेकिन उनके तर्क और बहस का स्तर भी गिरा है। चीखना चिल्लाना और ऊंची आवाज में अपने तर्क को तर्कसंगत करना बहुत से लोगों की प्रवृत्ति बन गई है। अपनी बात को मनवाने के लिए उसे जोर देकर कहना, अधिकतर प्रवक्ताओं की आदत बन गई है। अभी हाल ही में, भारतीय जनता पार्टी के दो प्रवक्ताओं द्वारा दिए गए वक्तव्य कारण विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी को, इन प्रवक्ताओं को पार्टी से निष्काषित करना पड़ा। प्रश्न यह नहीं कि आप आवेश में आकर क्या कह जाते हैं या किसी एंकर के उकसाने पर आप क्या कहते हैं, प्रश्न यह है कि क्या जो वक्तव्य आप दे रहे हैं, उससे आपकी पार्टी जिसका आप प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, क्या वह आप की तर्क और वक्तव्यों का समर्थन करेगी, क्या यह उनकी नीति के पक्ष में है। इसके दूरगामी क्या परिणाम हो सकते हैं? क्या यह अलगवाद को बढ़ावा देगा? टविटर और दूसरे सामाजिक प्लेटफार्म से यह बात जंगल में फैली आग की तरह सब को अपनी चपेट में ले लेती है और जंगल की आग को बुझाना मुश्किल होता है।
सोर्स- divyahimachal