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By डॉ अश्विनी महाजन
भारत के नीति-निर्माताओं के लिए आत्मनिर्भरता कोई नया शब्द नहीं है. आजादी के बाद जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में योजनागत विकास के नाम पर जो नीति बनी, उसे भी आत्मनिर्भर भारत कहा गया था, लेकिन जो कार्यनीति अपनायी गयी, जिसे अर्थशास्त्री महालनोबिस कार्यनीति के नाम से पुकारते हैं, उसमें भारत को आत्मनिर्भर बनाने के लिए बड़े और मूलभूत उद्योगों की स्थापना, बड़े बांधों के निर्माण समेत देश को एक मजबूत औद्योगिक ढांचा देने की बात कही गयी थी.
इसे आत्मनिर्भरता की कार्यनीति कहा गया, पर प्रारंभिक रूप से इसके कारण विदेशों पर निर्भरता इतनी बढ़ गयी कि 1965 के भारत-पाक युद्ध के बाद हमें तीन वर्षों तक योजना की छुट्टी करनी पड़ी, क्योंकि योजना को कार्यान्वित करने के लिए जरूरी आर्थिक संसाधन देश के पास नहीं थे. देश में औद्योगीकरण की जिम्मेदारी सार्वजनिक क्षेत्र को सौंपी गयी और कहा गया कि विकास का एकमात्र यही सही रास्ता है तथा निजी क्षेत्र या निजी उद्यमिता के माध्यम से यह इसलिए नहीं हो सकता, क्योंकि निजी क्षेत्र के पास न तो संसाधन हैं, न ही जोखिम लेने की क्षमता व इच्छाशक्ति और न ही दीर्घकालीन दृष्टि.
धीरे-धीरे अर्थव्यवस्था के लगभग हर क्षेत्र में सार्वजनिक क्षेत्र का बोलबाला हो गया और निजी उद्यम दोयम दर्जे पर आ गया. कुछ वस्तुओं के उत्पादन के लिए निजी उद्यम को अनुमति तो मिली, लेकिन उसमें भी लाइसेंस व्यवस्था लागू कर दी गयी. इनके लिए कच्चे माल हेतु कोटा व्यवस्था लागू हुई. अधिक उत्पादन करने पर दंड का प्रावधान भी किया गया.
स्वाभाविक तौर पर सरकारी क्षेत्र के दबदबे और निजी क्षेत्र का दम घोटती आर्थिक नीतियों से कायम व्यवस्था का असर यह हुआ कि देश में जो भी उत्पादन होता था, वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धात्मक नहीं होता था. इसका कारण था कि निजी क्षेत्र के लिए प्रौद्योगिकी विकास, नये मॉडल बनाने और कुशलता बढ़ाने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं था.
ऐसे में संभव था कि लोग अच्छे उत्पाद सस्ते दामों पर विदेशों से आयात कर लें. तब निजी और सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा उत्पादित वस्तुओं के लिए बाजार बाधित हो जाता. इस संभावना को समाप्त करने के लिए विदेशी वस्तुओं के आयात पर कई तरह की रोक जरूरी थी. एक ओर अनेक वस्तुओं के आयात पर प्रतिबंध लगाया गया, जिसे मात्रात्मक नियंत्रण कहते हैं, तो दूसरी ओर जिन वस्तुओं के लिए आयात की अनुमति थी, उन पर बहुत आयात शुल्क लगाया गया, ताकि लोग आयात से हतोत्साहित हो जाएं.
चूंकि आयात नियंत्रित हो गया, तो देश में विदेशी मुद्रा की मांग भी नियंत्रित हो गयी. ऐसे में सरकार आसानी से विनिमय दर को अपनी मर्जी के अनुसार तय कर सकती थी. वर्ष 1964 तक डॉलर की विनिमय दर केवल 4.16 रुपये प्रति डॉलर थी, 1966 और 1967 में रुपये का मूल्य ह्रास क्रमशः 6.36 और 7.50 रुपये प्रति डॉलर तक हो गया. वर्ष 1980 तक यह आठ रुपये प्रति डॉलर से भी कम रहा और बाद में यह तेजी से गिरने लगा और अब तक यह लगभग 79 रुपये प्रति डॉलर पर पहुंच गया है.
ऐसी आर्थिक नीति से आत्मनिर्भरता तो प्राप्त हो गयी, देश में कई वस्तुओं का उत्पादन शुरू हो गया और विदेशों पर उनके लिए निर्भर नहीं होना पड़ता था, लेकिन प्रतिबंधात्मक नीतियों के परिणामस्वरूप सीमित विकास, अकुशल और निम्न-गुणवत्ता वाला उत्पादन, निम्न स्तर की तकनीक और अनुसंधान एवं विकास व राष्ट्र निर्माण में लोगों की भागीदारी का अभाव रहा. भारतीय निर्यात की दक्षता और प्रतिस्पर्धात्मकता अपने निम्न स्तर पर थी. विश्व स्तर पर भारत के निर्यात का हिस्सा घट रहा था.
उदारीकरण की नीतियों के चलते निजी उद्यमों के लिए तो द्वार खुल गये, लेकिन विदेशों से आयात को भी यकायक खोल दिया गया. आयात पर लगे प्रतिबंधों को हटाने के साथ ही आयात शुल्कों को भी घटा दिया गया. आयात वृद्धि के साथ विदेशों पर निर्भरता बढ़ गयी. वर्ष 2001 में चीन द्वारा विश्व व्यापार संगठन में सदस्यता लेने के बाद सस्ते चीनी उत्पादों की बाढ़-सी आ गयी और देश में उद्योगों का पतन होना शुरू हुआ. ऐसे में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2020 में आत्मनिर्भर भारत की संकल्पना को देश के समक्ष प्रस्तुत किया, तो एक ओर उसका स्वागत करते हुए यह माना गया कि भूमंडलीकरण की आंधी में जो उद्योग नष्ट हो गये, उन्हें पुनर्स्थापित करने का अवसर मिल पायेगा, पर आलोचकों ने यह कह कर उसे खारिज करने का प्रयास किया कि यह नेहरूवाद की पुनरावृत्ति हो जायेगी.
हम आत्मनिर्भर भारत के लिए विदेशी आयातों पर रोक लगायेंगे, तो देश में कार्यकुशलता घट जायेगी और अर्थव्यवस्था अंतर्मुखी हो जायेगी, लेकिन सरकार द्वारा उठाये गये कदमों से यह संकेत मिलता है कि 2020 की आत्मनिर्भरता की संकल्पना नेहरू की आत्मनिर्भरता की संकल्पना से बिल्कुल अलग है. प्रधानमंत्री मोदी द्वारा घोषित आत्मनिर्भर भारत की नीति का सबसे महत्वपूर्ण आयाम यह था कि उस संकल्पना में उन वस्तुओं का देश में उत्पादन बढ़ाना था, जिसके लिए देश विदेशों पर ज्यादा निर्भर करता था. गौरतलब है कि पिछले लगभग 20 वर्षों से देश में चीनी माल का दबदबा इस कदर बढ़ गया था कि पहले से स्थापित हमारे उद्योग बंद होते गये.
नयी संकल्पना के तहत ऐसे 14 उद्योगों की सूची बनी, जिन्हें पुनर्स्थापित करने की जरूरत थी. ये उद्योग थे- इलेक्ट्रॉनिक्स, चिकित्सा उपकरण, दवाएं, टेलीकॉम, खाद्य उत्पाद, एसी, एलईडी, उच्च क्षमता सोलर पीवी मॉड्यूल, ऑटोमोबाइल और ऑटो उपकरण, वस्त्र उत्पाद, विशेष स्टील, ड्रोन इत्यादि. इस नीति के दूसरे आयाम के तहत चिह्नित क्षेत्रों में उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए उत्पादन से संबद्ध प्रोत्साहन यानी प्रोडक्शन लिंक्ड इनसेंटिव देने की योजना बनी तथा 13 उद्योगों को अगले कुछ वर्षों में 1.97 लाख करोड़ रुपये देने का लक्ष्य रखा गया.
बाद में सोलर पीवी मॉड्यूल हेतु अतिरिक्त 19,500 करोड़ रुपये और सेमी कंडक्टर उत्पादन के लिए 10 अरब डॉलर का प्रावधान भी रखा गया. इन वस्तुओं का आयात रोकने हेतु आयात शुल्क में वृद्धि भी की जा रही है. इन प्रयासों से सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में दो से चार प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है. गांवों की आत्मनिर्भरता भी जरूरी होगी. कृषि के साथ पशुपालन, मुर्गीपालन, मत्स्यपालन, स्थानीय उद्योग, बांस, मशरूम उत्पादन आदि को बढ़ावा देकर गांवों की आमदनी भी बढ़ायी जा सकती है और विकेंद्रित विकास के साथ देश में खुशहाली का एक नया अध्याय भी जुड़ सकता है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
Gulabi Jagat
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