सम्पादकीय

टूटे हुए खिलौनों का श्रृंगार; चाहें कितना भी संकट का समय हो मनुष्य गिरकर उठना जानता है

Rani Sahu
5 Sep 2021 3:20 PM GMT
टूटे हुए खिलौनों का श्रृंगार; चाहें कितना भी संकट का समय हो मनुष्य गिरकर उठना जानता है
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सिनेमा या टेलीविजन पर दर्शक कार्यक्रम देखकर प्रसन्न होता है। कार्यक्रम नापसंद आने पर वह चैनल बदल देता है

जयप्रकाश चौकसे। सिनेमा या टेलीविजन पर दर्शक कार्यक्रम देखकर प्रसन्न होता है। कार्यक्रम नापसंद आने पर वह चैनल बदल देता है। सिनेमाघर से भी दर्शक बाहर चले जाते हैं। अधिकतर लोगों की पसंद ही कार्यक्रम के लिए पूंजी और साधनों को पाने का जरिया बनती है। फिल्मकार, कलाकार और सृजन करने वाले कैसे अपना काम करते हैं। यह जानने की इच्छा होती है। अधिकतर लोग फल खाते समय वृक्ष लगाने वाले का नाम जानने की कोशिश नहीं करते हैं। यह स्वाभाविक है। रोटी खाते समय अनाज उपजाने किसान के बारे में कौन सोचता है।

वर्तमान में किसान हड़ताल को कितना समय हो चुका है। यह भी आवाम जानना नहीं चाहता है। आवाम तो यह भी नहीं जानता कि हड़ताल दो कारपोरेट कंपनियों द्वारा अनाज खरीदने के एकाधिकार नियम के खिलाफ की जा रही है ताकि आम आदमी को अनाज के लिए अधिक दाम नहीं देना पड़े। महंगाई और वस्तुओं की कमी मनुष्य के द्वारा बनाई जाती हैं। सन् 1942 में पड़ा अकाल भी मनुष्य द्वारा ही निर्मित था। फिल्म 'अकलेर संधाने' इसी तथ्य को रेखांकित करती है।
फिल्म अभिनय कला को दो श्रेणियों में बांटा गया है। मेथड स्कूल का कलाकार बार-बार अभ्यास कर अपने आपको तैयार करता है। स्वाभाविक अभिनय करने वाला कलाकार पटकथा को समझकर अभिनय करता है। इस प्रकरण में कौन सही है और कौन गलत का मामला ही नहीं है। परदे पर प्रभाव क्या है यही महत्वपूर्ण है। वर्तमान में राजकुमार राव मेथड स्कूल और आयुष्मान खुराना स्वाभाविक के माने जाते हैं। वर्तमान में अभिनय क्षेत्र में आने वाले को स्टूडियो नहीं, जिम में भेजा जाता है।
उसे तैरना सीखने को कहा जाता है। यह क्या कम है कि उसे मरने के सीन में मरने को नहीं कहा जा रहा है। अभिनेता को सीन में अभिव्यक्त की जाने वाली भावना को आत्मसात करना चाहिए। उस भावना को अपनी वैचारिक मिक्सी में देर तक चलाना चाहिए। कैमरा ऑन होते ही उसे अपने साथ काम करने वाले कलाकार की जगह किसी अपने की कल्पना करना चाहिए। अत: अभिनय में 'इंटरनालाइजेशन ऑफ इमोशन' और 'सब्सीट्यूशन ऑफ पात्र' का तरीका इस्तेमाल करना चाहिए। अगर सीन ममता का है तो अन्य पात्र की जगह अपनी मां की कल्पना करनी चाहिए। लव सीन के लिए अपनी उस प्रेमिका को याद करना चाहिए जिसे कभी अपनी भावना अभिव्यक्त नहीं कर पाए। सृजन प्रक्रिया पर हावर्ड गार्डनर की किताब 'क्रिएटिविटी' प्रकाशित हुई है।
इसमें व्यक्तित्व निर्माण की बात भी की गई है। एक विवरण है कि किशोरावस्था में मोहनदास करमचंद गांधी ने हाथ घड़ी चुराई और वे पकड़े गए। उनके पिता ने उन्हें कोई दंड नहीं दिया और पिता स्वयं ही 1 दिन के उपवास पर बैठ गए। गांधी जी ने भी उपवास और असहयोग के अनूठे साधनों से देश को स्वतंत्रता दिलाई। वर्तमान में हम फल चख रहे हैं परंतु वृक्षारोपण करने वालों के बारे में सोचते तक नहीं है। खाकसार ने भी सृजन प्रक्रिया समझने के लिए ताजमहल के निर्माण की कथा लिखी। जिसमें बादशाह शाहजहां और आर्किटेक्ट इसा आफंडी की मुलाकात, मित्रता और अंत में जन्मी शत्रुता का विवरण है।
मेघा बुक्स दिल्ली ने 'ताज बेकरारी का बयान' प्रकाशित किया था। क्या सृजन प्रक्रिया जान लेना आवश्यक है? कल्पना करें कि हम समझाना चाहते हैं कि प्याज क्या है। प्याज के छिलके उतारते समय हम पाते हैं कि प्याज का अस्तित्व ही नहीं बचा परंतु जिन उंगलियों से प्याज के छिलके उतारे थे उनमें उनकी गंध समा गई। आगा, उषाकिरण और देवानंद अभिनीत अमिया चक्रबर्ती की फिल्म का गीत है- 'मिट्टी से खेलते हो बार-बार किसलिए, इन टूटे हुए खिलौनों का श्रृंगार किसलिए।' सृजन प्रक्रिया भी कुछ इसी तरह है।
एक विद्वान ने तो यहां तक कहा कि पूरा अंतरिक्ष ही मानव कल्पना द्वारा गढ़ा गया मिट्टी का खिलौना है। श्रृंगार करना भी मनुष्य का काम है। शैलेंद्र ने लिखा है- 'आदमी है आदमी की जीत पर यकीन कर, अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर।'


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