सम्पादकीय

नई जिंदगी की तलाश

Rani Sahu
3 Aug 2022 6:48 PM GMT
नई जिंदगी की तलाश
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मुर्दा होंठों पर थोड़ी सी जि़न्दगी के लक्षण, थोड़ी सी फडफ़ड़ाहट अभी दिखाई नहीं दी

मुर्दा होंठों पर थोड़ी सी जि़न्दगी के लक्षण, थोड़ी सी फडफ़ड़ाहट अभी दिखाई नहीं दी। कैसे दिन गुजर गए। अकल्पनीय, दुख और क्षोभ के हर सीमान्त से परे। इस देश के लोगों को आज तक बड़बोले बायोस्कोप दिखाए गए हैं। इस बायोस्कोप में से दादी मां के जादुई पिटारे सा ऐसा शब्दजाल निकाल कर महामना रचते रहे कि लोगों को हमेशा लगता रहा कि सच उनके वोटों से रचा हुआ उनका सुनहरा संसार अभी निकल कर सामने आया कि आया। अच्छे दिन उनकी जेब में रखे किसी विदेशी कीमती पेन की तरह चमक रहे हैं। अब कोई हाथ बेकार नहीं रहा, नौकरियां उनके पीछे-पीछे चलेंगी और भूखे पेट पर तबला बजाओ। अब ऐसा किसी गाने, किसी नाटक के संवाद में भी कहा या बोला गया तो सबको गलत लगेगा। गन्दी बस्तियां महानगरों का पिछवाड़ा होती हैं। यह सच हम भूल जाएंगे। न मक्खी रहेगी न मच्छर, न कूड़ा रहेगा और न कर्कट।

स्वच्छ भारत के नारों से आकाश कुछ इस प्रकार गूंजने लगा कि लगता पर्यावरण प्रदूषण बखानने वाले युग बोध से कट गए। ऐसा नहीं कि इस जागते देश में पहले विषाणु नहीं थे लेकिन ये विषाणु नजऱ आते थे। नौकरशाही की फाइलों के नीच लगे चांदी के पहियों के रूप में नजऱ आते थे कि जो नागरिकों के दिए गए समयबद्ध सेवा के अधिकार को बातूनी बना देते। इस सेवा के सूचना पट्ट नजऱ आते, नीचे वही ठनठन गोपाल। अधूरे प्रोजैक्टस, गुम कर दी गई फाईलें और क्लर्कों से लेकर अफसरशाही तक का सेवा चाहने वालों के बारे में स्मृतिभ्रम। अपनी जि़न्दगी बस इसी तारीख पर तारीख में इन दफ्तरों की दहलीज़ों पर अपने जूतों के तलवे घिसाने में गुजऱ गई। काम अभी भी स्थगन के भंवर में हैं और इसकी चौकी उठा कर विलम्ब के अंधेरों में पहुंचा देने वाले महानुभाव हमारी पकड़ में न आए। परन्तु इन्हें विषाणु कैसे कह देते शक्लोसूरत से तो हम जैसे बेचारे से लोग लगते थे। कड़ी फटकार से इन पर कभी असर नहीं होता। कायदा-कानून और दण्डविधान को इनकी ऐसी दवा बता दिया गया जो कभी कारगर होती अभी तक नजऱ नहीं आई। फिर आया मध्यजनों और बीच के दलालों का युग। देश के कायाकल्प में गैर-सरकारी सेवा संस्थानों का महत्व बहुत बताया जाता रहा है।
जहां बैंक और सरकारी वित्तीय संस्थान काम न करें, वहां ये गैरकानूनी सेवा और वित्तीय संगठन सब कुछ कर गुजऱते हैं, सुनते हैं। पिछले दिनों अपने देश पर वित्तीय आपातकाल की गाज गिर गई। कहां सपना था, अमरीका और चीन जैसे बाहुबलियों को पछाड़ कर दुनिया का सबसे शक्तिमान महाबलि बन जाने का और कहां देश में ऐसी मंदी, ऐसी बेरोजग़ारी और ऐसी महंगाई आ गई कि जैसी पिछले कई वर्षों से न देखी थी। स्वत:स्फूर्त विकास के सब सपने धराशायी हो गए। खेतीहर देश भारत में खेतीबाड़ी सदा पूरी आबादी का दो तिहाई काम रही है। कृषि इस देश में जीने का ढंग थी। लेकिन जब इस देश ने शक्तिमानों के सामने सलाम के सिवाय जीने का कोई और ढंग ही नहीं सीखा, सदियों गोरे अंग्रेज़ों को कोर्निश बजाते रहे। अब नए मालिक भा गए तो उनकी जी हज़ूरी में सलाम बजाने लगे। पहले लोगों को अपने अपराधों की शर्मिंदगी से चेहरा ढकते देखा था। अब तो हर आदमी को चेहरा छिपाने का हुक्म हो गया। किसी को अपना यह बीमार हो सकने वाला चेहरा दिखाया तो भारी जुर्माना लगेगा। लीजिए, अब अतीत हमें आसरा देने लगा। मलेरिया की, प्लेग की, इबोला की, सार्स की दवाईयां नया कलेवर घर आपकी मार्किट हरने के लिए चली आ रही हैं। अनुगृहीत हो संक्रमित लोग इनमें अपनी मुक्ति तलाश करते हैं क्योंकि पुरानी इबारतों पर नए शीर्षक, पुराने चेहरों पर नए मुखौटे देखने की उन्हें आदत हो गई है।
सुरेश सेठ

By: divyahimachal

Rani Sahu

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