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हेमंत कुमार पारीक: उस छोटे से बाजार में किताबों की पहले दस-बारह गुमटियां हुआ करती थीं। अब वहां मात्र एक पुस्तक विक्रेता बचा है- लल्लू। यह पुस्तैनी धंधा है उसका। साथ में लगी एक स्टेशनरी की गुमटी भी है। वहां अब भी रंजन पेन का पुराना बोर्ड टंगा है। कलम ने भी कई रूप बदल लिए हैं। शुरुआत में 'डंक' से लिखते थे। स्याही के लिए डेस्क में गोल खांचे बने होते थे। डंक ने रूप बदला और पेन हो गया।
अक्सर गर्मी के दिनों में ये पेन पतलून खराब कर दिया करते थे। इस समस्या से निजात दिलाई डाट पेन ने। यानी रिफिल वाले कलम ने। अलग से स्याही की झंझट खत्म हुई। आजकल कई ब्रांड में आते हैं डाट पेन। अब तो बाजार का स्वरूप ही बदल गया है। कभी छोटी-छोटी गुमटियां हुआ करती थीं, लेकिन अब कांक्रीट की पक्की दुकानें हैं। मगर अब भी वह पुस्तक विक्रेता और रंजन पेन वाला यथावत हैं।
यह दीगर बात है कि दूसरी दुकानों का नक्शा बदल गया है। पानवाले की दुकान ने मोबाइल के शो-रूम का रूप ले लिया है। दूसरी दुकानों पर कम्प्यूटर और फोटोकापियर मशीनें दिखने लगी हैं। जिन्होंने अपनी जवानी पान और बीड़ी बेचने में खपा दी, अब बुढ़ापे में मोबाइल बेच रहे हैं। मगर स्टेशनरी की दुकान पर रंजन पेन वाला बोर्ड अभी तक कायम है। इसी तरह लल्लू पाठ्य पुस्तक और पत्रिका बेच रहा है। समय के अनुसार वह नहीं बदला है। हालांकि आजकल पत्रिका और पुस्तकें खरीदने वाले अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं। ऐसे में यह विचार आता है कि वह किस प्रकार अपनी जीविका चलाता होगा?
एक दिन यही सवाल मैंने उससे पूछा था। उस वक्त एक नामचीन पत्रिका लेने उसकी दुकान पर पहुंचा था। आामतौर पर हर महीने की पांच तारीख के बाद ही उसके यहां जाता हूं। उस पत्रिका की कीमत अदा की, तो वह हंसते हुए बोला- बाबूजी, आप मेरे पुराने ग्राहक हैं इसलिए अब से आपको पांच प्रतिशत की छूट दे रहा हूं। कारण कि मुझे लगता है कि इस शहर में आप ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं, जो साहित्यिक पुस्तकें खरीदते हैं। बाकी तो वे लोग हैं, जो कामुकता से भरी पत्रिकाएं ले जाते हैं।
दरअसल, मेरी दुकान उन्हीं पत्रिकाओं की बदौलत चल रही है। और कितने दिनों तक चलेगी, कह नहीं सकता। आज तो इंटरनेट पर सब उपलब्ध है।… आश्चर्य होता है! पर बात सही है। मेरे एक मित्र अक्सर बगल वाली दुकान पर लगे रंजन पेन के बोर्ड को देखते ही कहते हैं कि मैं तो लिखना ही भूल गया हूं। बस मोबाइल पर अंगुलियां चला सकता हूं…। और स्याही वाले पेन बेचना भी आश्चर्य का विषय है, जो आज चलन में नहीं हैं।
पेन वाले को इस धंधे में पूरे पचास वर्ष हो गए हैं। पहले उसके पिता बेचते थे, अब बेटा उस परंपरा का वाहक है। कभी-कभार कोई बुजुर्ग ही उसकी दुकान से पेन खरीदता दिखता है। स्याही वाले पेन तो शो-केस में रखने लायक हैं। इसी तरह पुस्तक विक्रेता के पास पुरानी पुस्तकों का अंबार लगा है, जिनके पन्ने जर्द पीले पड़ गए हैं। मगर वह किस धुन में दुकान चला रहा है, पता नहीं? कभी-कभी मुझे भी लगता है कि मैं हर माह बेवजह पचास रुपए का खून करता हूं। पत्रिकाएं छपे रूप की अपेक्षा 'आनलाइन' पढ़ सकता हूं। मगर मुझे छपा हुआ पढ़ना यानी 'आफलाइन' होना ज्यादा सुकून देता है।
एक दूसरे मित्र हैं। उम्र में छोटे हैं। उन्होंने अपने कार्यस्थल पर दिए गए कक्ष का नक्शा ही बदल दिया है। बेकार पड़ी अलमारियों को सुधरवा कर विभिन्न विषयों की पुस्तकों से सजा दिया है। एक छोटी-सी लाइब्रेरी बन गई है। कहीं भौतिकी की किताबें हैं, कहीं रसायन की, तो कहीं गणित की।
कहते हैं कि 'आनलाइन' किताबें खरीदता हूं। आज आनलाइन कोचिंग देने वाली संस्थाएं और व्यापारिक कंपनियों ने खूब माल कूटा है। बदलते वक्त को जिसने पकड़ लिया, वही मालामाल है, वरना वह पुस्तक विक्रेता और रंजन पेन वाला, दोनों का कहना है कि वे तो केवल वक्त गुजारने के लिए दुकान चला रहे हैं। चाय-पान और किराना बेचने वालों ने समय के अनुकूल अपना धंधा बदल लिया है। वे खुश हैं। यही हाल स्कूल-कालेज में है।
कभी जो कक्षाएं छात्रों से गुलजार रहती थीं, वहां अब इक्का-दुक्का छात्र ही नजर आते हैं। सवाल उठता है कि ऐसे वक्त में मास्टर और प्रोफेसर की क्या जरूरत? स्कूल-कालेज का क्या प्रयोजन? बाजार में बैठा सोने-चांदी वाला मक्खी मारता दिखता है। एक दिन मैंने उससे कारण पूछा तो वह चहकते हुए बोला, सारा धंधा 'आनलाइन' चल रहा है जनाब! हम तो समय काटने यहां आते हैं। विचित्र है, प्रत्यक्ष के बजाय अब एक समांतर आभासी दुनिया ने हमारे गिर्द फैल गई है और हम अब भी उससे नाक सिकोड़े फिरते हैं।