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- सप्तपदी का सबक
आज मैं जीवन से जुड़े एक खास मुकद्दमे का जि़क्र करना चाहता हूं जिसका फैसला अभी इसी साल आया है 2021 में, वो भी चौदह साल बाद। आज से 15 साल पहले 2006 में जयदीप मजूमदार और भारती जायसवाल मजूमदार ने शादी की। जयदीप सेना में अधिकारी हैं और भारती उत्तराखंड के टिहरी के एक सरकारी कालेज में फैकल्टी मैंबर। शादी के एक साल बाद ही दोनों में झगड़ा शुरू हो गया। पति ने तलाक की अर्जी लगा दी जबकि पत्नी ने वैवाहिक रिश्तों के स्थापना के आदेश की। भारती ने सेना के अन्य अधिकारियों को चिट्ठियां डालनी शुरू कर दीं कि जयदीप तंग करता है, अच्छा बर्ताव नहीं करता, साथ नहीं रहता। पति ने सभी आरोपों से इन्कार करते हुए चिट्ठियां को अपनी इज्जत के खिलाफ बताकर इसे क्रूरता बताया। पहली बात, तलाक का मामला 2007 में ही शुरू हो गया था जिसका फैसला करने में अदालत को 14 साल लग गए। दोनों के लिए ये समय 14 साल के वनवास जैसा ही तो रहा होगा। सवाल यह है कि विवाह हुआ लेकिन एक साल बाद ही एक दूसरे से ऊब भी गए, और ऊब गए तो अदालत चले गए, अफसरों को चिट्ठियां लिखने लगे। चौदह साल रगड़े खाते रहे, अदालतों के चक्कर काटते रहे, वकीलों की फीस भरते रहे लेकिन आपस में बैठ कर अलग होने का फैसला नहीं कर सके। ऐसा क्यों है कि हमारे स्कूल-कालेज हमें सिर्फ रोजग़ार के लिए तैयार करते हैं, जीवन के लिए तैयार क्यों नहीं करते? हमारे शिक्षाविद क्यों नहीं सोचते कि जीवन जीने का कोई मैन्युएल तैयार करें और बच्चों को उसकी सीख दें? माता-पिता भी बचपन से ही जीवन की अहम बातों की सीख देना क्यों नहीं शुरू कर देते? पर क्या जरूरी है कि खुद माता-पिता का ही जीवन सुखी हो और उनमें झगड़े न होते हों? कब समझेंगे हम कि शिक्षा जरूरी है, आमदनी जरूरी है, लेकिन जीवन का सुख सबसे पहले आता है। कैसे सुनिश्चित करें कि शादी का पैगाम लेकर आए, पति-पत्नी और उनके परिवारों के लिए जान की आफत न बन जाए। शादी हो तो खुशमिज़ाजी हो, गले पड़ा ढोल न हो, गले की फांस न बन जाए।