सम्पादकीय

इंदौर से सीखें स्वच्छता

Rani Sahu
22 Nov 2021 6:47 PM GMT
इंदौर से सीखें स्वच्छता
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स्वच्छता के राष्ट्रीय मानकों में हिमाचल की शहरी आबादी ने यूं तो प्रदेश को पांचवीं पायदान पर पहुंचा दिया

स्वच्छता के राष्ट्रीय मानकों में हिमाचल की शहरी आबादी ने यूं तो प्रदेश को पांचवीं पायदान पर पहुंचा दिया, लेकिन इन करवटों में अभी कई त्रुटियां स्पष्ट हैं। लुढ़कते हुए शिमला का आंचल क्यों मैला नजर आया या धर्मशाला क्यों सर्वेक्षण के प्रथम सौ शहरों में स्थान प्राप्त नहीं कर पाया, यह विश्लेषण का विषय हो सकता है। प्रदेश के आठ शहरों की स्वच्छता रैंकिंग में आया सुधार आशाजनक है, तो आठ नगरों में आई गिरावट की निशानियां चुननी पड़ेंगी। यह तस्वीर उस प्रदेश की है जहां पर्यावरण ही प्रकृति और प्रकृति ही प्रेरणा है। इस दौरान इंदौर पांचवीं बार और 2017 से 2021 तक देश की सर्वोच्च स्वच्छता को प्रमाणित करता शहर बना, तो इस नजाकत को समझना होगा। विडंबना यह है कि हम अपने ही स्वच्छता के मानदंडों को भूल गए हैं। अपनी ही प्रेरणास्रोत यानी शिमला शहर की सफाई को नजरअंदाज करते हुए इसे 65वीं पायदान से 102वें स्थान पर देख रहे हैं।

आश्चर्य यह कि शिमला शहर का वजूद भी अब प्रदेश की राजधानी के बूते नहीं चल रहा। आज शहर के भीतर गंदगी के उपनगर उभर रहे हैं और आवासीय व्यवस्था का कचूमर निकल गया है। स्वच्छता के लिए शहरी विकास योजनाओं का बड़ा योगदान होता है, लेकिन पंगु बना नगर नियोजन विभाग अब इस औकात में नहीं छोड़ा कि कुछ नवाचार के साथ आगे आए। एक नवाचार धर्मशाला में अंडरग्राउंड डस्टबिन लगाने से शुरू हुआ, लेकिन राजनीति और धन के अभाव ने इसे भी रौंद दिया। हमारा मानना है कि कूड़ा-कर्कट प्रबंधन केवल शहरी आवरण के काबिल नहीं, बल्कि शहरों की परिधि में अति विकसित गांव भी इसके दायरे में आ गए हैं। इंदौर शहर को ही गौर से देखें तो एक दशक पहले वहां की स्थितियां और परिस्थितियां इस काबिल नहीं थीं कि चमत्कारिक रूप से यह महानगर स्वच्छता के अपने मॉड्यूल के लिए देश भर का आदर्श बन जाएगा। 2015 में 180वीं पायदान से निरंतर प्रथम रहना प्रशासन, सरकार, जनता, नीतियों, योजनाओं व नवाचार की जीत है। इंदौर की महापौर शालिनी गौड़ का जिस तरह जिक्र होता है, क्या हिमाचल के पांच नगर निगमों का ऐसा नेतृत्व हो रहा है। वहां के निगमायुक्त मनीष सिंह और कलेक्टर सी नरहरी ने जिस कायदे से प्रबंधन, परिवर्तन व नागरिक चेतना का प्रसार किया, क्या हिमाचल के योग्य अधिकारियों को इसी तरह आगे बढ़ने का मौका मिल पाएगा।
धर्मशाला नगर निगम की स्थापना के बाद निगमायुक्त बदलने का रिकार्ड तो बना, लेकिन शहरी व्यवस्था के खाके में न उचित स्टाफ और न ही अधिकारी आज तक मिले। इंदौर अपने संसाधन पर जोर देता हुआ आज कचरे से ही सालाना बीस करोड़ की कमाई कर रहा है, लेकिन इधर धर्मशाला की प्रस्तावित ग्रीन टैक्स की फाइल को ही मंजूरी देने में हाथ कांप जाते हैं। इंदौर में शहरी प्रबंधन की खासियत यह भी रही कि वहां न केवल सफाई कर्मचारियों के व्यवहार में परिवर्तन लाया गया, बल्कि निकम्मे लोग निलंबित भी कर दिए गए। इसी तरह नागरिक समाज को जवाबदेह बनाने की उदारता के बीच कुछ कठोर सबक भी दिए गए। वहां टिकाऊ इंतजाम करते हुए सुशासन को प्रभावशाली, ई-गवर्नेंस, आवासीय व्यवस्था तथा संसाधनों के विकास पर जोर दिया गया। हिमाचल में इसके विपरीत अगर एक के मुकाबले पांच नगर निगम बना दिए गए, तो यह नहीं सोचा गया कि कब तक समाहित क्षेत्रों को टैक्स मुक्त रखकर पालते हुए नागरिक सुविधाएं प्रदान करेंगे। मैसूर और चंडीगढ़ के प्रयासों से भी सीखें तो समझ आएगा कि किस तरह कचरा संग्रहण सत्तर से अस्सी फीसदी हो सकता है और इसके निस्तारण से आय प्राप्त होगी। हिमाचल को अपने दो स्मार्ट शहरों को कम से कम स्वच्छता के मामले में उच्च शिखर हासिल करना है, तो शहरी विकास महकमे में ढांचागत परिवर्तन तथा कॉडर विकास की दिशा में प्रयासरत रहना होगा। कूड़ा-कचरा प्रबंधन और समग्र विकास की दृष्टि से राज्य में कम से कम छह विकास प्राधिकरणों का गठन करना होगा ताकि गांव को भी स्वच्छता के शहरी नियोजन अगर बांटा जाए तो एक साथ छह बड़े कूड़ा संयंत्र परियोजनाएं, इतनी ही आवासीय योजनाएं, कर्मचारी नगर, ट्रांसपोर्ट नगर, नए बाजार और व्यवस्थित विकास के लिए लैंड बैंक उपलब्ध होगा। हिमाचल के स्वच्छता इंतजामों में भूमि आबंटन का पेंच फंसाने में वन संरक्षण अधिनियम भी मुजरिम है।

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