सम्पादकीय

संस्कृत कविता में लोक बिंब का विधान

Rani Sahu
4 Sep 2021 7:08 PM GMT
संस्कृत कविता में लोक बिंब का विधान
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महान उस ईश्वरीय बिंब का प्रतिबिंबन है यह हमारी पृथ्वी/सृष्टि। यहां जितनी भी विचित्रताएं

डा. ओमप्रकाश सारस्वत, मो.-9418054054

महान उस ईश्वरीय बिंब का प्रतिबिंबन है यह हमारी पृथ्वी/सृष्टि। यहां जितनी भी विचित्रताएं, समरसताएं, निर्मितियां, ध्वंस एवं स्वीकार्यताएं/ अनुकूलताएं है, वे सब उस सर्वशक्तिमान सत्ता के ही प्रतिरूप हैं। विद्वान मूलत: इस दृश्यमान जगत को उस परम सृष्टा की प्रतिरचना मानते हैं और दार्शनिक इसे 'रेपलिका, जो इस ब्रह्मांड का सूक्ष्म प्रतिरूप है। इस पिंड रूपी शरीर में जितने भी रहस्य हैं, वे सब इसी सृष्टि के प्रतिनिधि हैं। तमाम परख-परीक्षाओं के अनंतर पारखियों ने इसीलिए अंतत: कहा कि 'यत्पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे। संसार का संस्कार है कि किसी भी मनोरम वस्तु को पुन:-पुन: देखना और उसकी लिपियों/प्रतिलिपियों की पुनर्रचना करना। एक प्रकार से यह अच्छा भी है। अच्छी वस्तु की पुनर्रचना होनी चाहिए। होती रहनी चाहिए। लोभनीय का पुन: सृजन और दर्शनीय का पुन: दर्शन होते रहना चाहिए। सृष्टि के दो ही मूल तत्त्व हैं, सृजन और आकर्षण। आकर्षण ही वस्तुओं को आपस में बांधे रखता है। इस सृष्टि के सभी पदार्थ आपस में किसी न किसी स्तर पर एक-दूसरे से बंधे हैं। तभी यह सृष्टि अनेक भिन्नताओं-विभिन्नताओं में समस्त है। बिंब का प्रतिबिंबन और सृजन का पुन: सृजन इसी कारण है।
कारणताओं की शृंखला ही जगती की उद्भवता का हेतु है। बिंबधर्मिता की कथा भी ऐसे ही अपना रूप-स्वरूप निर्मित करती है। हमारी संस्कृत की लौकिक कविता में, महाकवि कालिदास, भवभूति, बाण, दंडी, सुबंधु आदि कवियों की कल्पना, दृष्टांतों, उपमाओं, रूपकों आदि की अद्भुत रचना है, जो अपनी आलंकारिक छटा तथा अर्थ की दूरंगमा छवियों से रसज्ञों की तृषा को परमतोष की सीमा तक ले जाते हैं। एक-एक श्लोक, कई-कई अर्थ लोकों की रम्यताओं का विकास कर देता है। अनेकानेक ध्वनियों और शैलियों की रमणीयता से भावकों की सत्ता की तृष्टि करता है। कई-कई प्रतीक-बिंब रचना के प्रतिमान बन कर शब्द संसार की अस्मिता का प्रस्तरण बनकर प्रस्तुत होते हैं। सृष्टि का जो रूप कवि की दृष्टि में समा गया, वही समझो अमर हो गया। कहीं हिरणों की अठखेलियां, तो कहीं सिंह-शावकों की केलियां, कहीं पक्षियों की उडारियां तो कहीं वनमहियों की मस्तियां, अपनी स्वाभाविकता में, वन्य प्राणियों के व्यापार को जीवंत कर देते हैं।
इन कवियों की कविता जिन भी प्राणियों, अरण्यों की सत्ता को अपना वण्र्य विषय बना लेती है, वहां एक मोद के वातावरण का उदय हो जाता है। 'मेघदूत काव्य की प्रकृति और मानवीय स्वभाव की यथार्थता दोनों की गहराई, एक अपूर्ण वर्णन भी ऊंचाई को व्यक्त करते हैं। शाश्वत सत्यों और लौकिक बिंबों के सभी चमत्कार यहां उपलब्ध हैं। 'मेघदूत शब्दों, भावों, भाव-भंगिमाओं की एक ऐसी 'एलबम है जिसके चित्रों, चित्रों के आशयों, को देख कर मन उत्फुल्ल हो उठता है।
कितने ही मनोरम रूप, कितनी ही व्यंजनाओं को प्रकाशित करते हैं। यक्ष-पत्नी के मनोलोक की सारी व्यथा-व्यंजना जहां पर कई तरह की अनुभूतियां, मानवीय अभीप्साएं गुम्फित हैं, बोलते से लगते हैं। एक श्लोक देखते हैं : 'मेघालोके भवति सुखिनोअप्यन्यथावृत्ति चेत:। कण्ठाक्लेबप्रणयनि जने कि पुनर दूृर संस्थे। मेघ-3. श्लोक अपनी अर्थक्षमता में एक साथ मिलन और विरह के कई-कई चित्र बना डालता है। कालिदास का 'मेघदूत नर-नारी के बहुविध संवेदनात्मक अनुभूतियों का दस्तावेज है। ऐसे ही दिगंबर जैनाचार्य 108 श्री ज्ञानसागर मुनि जी महाराज के महाकाव्य 'जयोदय (पूर्वाद्र्ध) में लोकाचार का एक बिंब दृष्टव्य है जहां पर रण जीत कर लौटे घोड़ों के उत्कर्ष/शौर्य का वर्णन है।
राजा के स्वागतार्थ महलों में लौटने पर लोकाचार के अनुसार की गई अल्पना/रंगोली का रंगारंग चित्रण है। लोक रीतियों का चित्रण दर्शनीय है : 'प्रणयस्यैव वीजानि मौक्तिकाति विरेजिरे। चतुष्क चरणे स्त्रीभि:, प्रयुक्तातियदंगणेम। जयोदय :10, 91। मंडपस्थल में स्त्रियों द्वारा चौक पूरने में प्रयुक्त मोती के दाने, प्रेम के बीजों की तरह सुशोभित हो रहे थे। यहां पर कवि ने स्वागत के समय चौक पूरने जैसी पावनी प्रथा को लिख कर अपने लोकाचार को बहुत ही सुंदर महत्त्व दिया है। मोती के दानों का प्रेम के बीजों की तरह खिलना/बिखरना कितने ही लोक और शास्त्र के बिंबों की सृष्टि करता है।
चौक पूरना जैसी लोक रस्में लोक की परंपराओं की मान्यताओं को स्थापित करती हैं। ऐसे ही अनेक उदाहरणों-उपमाओं से भरा महाकवि भास का, समय और काल की दूरियों को समेटता 'स्वप्नवासवदत्तम् नाटक का एक श्लोक, जो चित्रोमय होता हुआ बिंबों के अनेक दृश्यों भरा लोभनीय वर्णन बन पड़ा है। यहां स्वाभाविकताएं, कल्पनाएं, उत्प्रेरणाएं मिलकर अनेक दृश्यों के 'कोलाज जैसा चित्रात्मक/मोदमय बना गया है। अनेक भावों, विचारों, दृश्यों को एक जमीन पर उतारना किसी मामूली कवि का कार्य नहीं। सूक्ष्मबुद्धिगत असाधारणताएं ही सी अद्भुतताओं की जन्म देती हैं। संस्कृत साहित्य में ऐसे अद्वितीय श्लोक/कविताएं विरल हैं। ऐसे श्लोक, बिंब, दृश्यों/वर्णनों की शोभा बढ़ाते है और प्रतीक, वर्णनों की सुंदरता। कई-कई बार, एक-एक श्लोक/कविता में कई-कई बिंब उभर आते हैं, किंतु प्रतीकों की इतनी संख्या कम ही जुटती है।
प्रतीक का क्षेत्र व्यापक और चिरस्थायी होता है। वह बड़े काल खंड को समेटता है तथा काल की दूरियों और विस्तृताओं की महता उसे क्षमताओं से भर देती है। बिंब तात्कालिक भी होता है, किंतु प्रतीक कालायामी है, जो समय की अपेक्षाओं में वत्र्त कर भी कालातीत बन जाता है। जैसे कालिदास की कविता में, बिंबों की छटा भी है तो प्रतीकों की संगति भी। ऋतु संहार, के ऋतुओं संबंधी श्लोक तत्कालीन समय और मौसम को ही नहीं दर्शाते, अपितु बसंत का वर्णन है तो पूरी की पूरी ऋतु को समक्ष ला देते हैं। यदि हिमालय का चित्रण है तो पूरी हिमालय की रेंज प्रत्यक्ष हो उठती है। यदि फूल का वर्णन है तो संपूर्ण फुलवाड़ी की दृश्यावली प्रत्यक्ष उपस्थित हो उठती है।
आप किसी भी बाग का एक पूरा बिंब, एक श्लोक में देख सकते हैं। यदि मलयानिल का अंकन है तो आप महकती हुई मलयपवन का स्पर्श महसूस कर सकते हैं। यदि कहीं पौरुष का उत्कर्ष है तो वैसी ही छवि दृष्टिगत हो जाएगी। ऐसे, यदि कहीं किसी मनोरमांगना का अंकन है तो एक भीनी-भीनी यौवन की गंध, मौसम में तैर जाती है। आशय यही कि जितनी भी दृश्यावलियों का चित्रांकन यहां है, वह ततत् रूपों, रंगों, भावों, क्रियाओं में बिंबायित है। इन कवियों की अधिकतर कविता अपने अभिप्रायों में, किसी न किसी रूप में बिंबधर्मी है।


Rani Sahu

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