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- सपनों की लक्ष्मण रेखा
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अभी हमने सिर उठाया भी नहीं, कि उससे पहले ही उन्हें खतरा पैदा हो गया, कि ये लोग सिर उठायेंगे तो जीने की राह मांगेंगे। पीठ भरने का वसीला मांगेंगे। खोई हुई जानों का हिसाब मांगेंगे। इसलिए इससे क्या बेहतर नहीं कि ये सिर उसी प्रकार झुके रहें, और अपनी जान और माल की खैर खैरीयत हमसे मांगते रहें। आप पूछ सकते हैं, कौन सी जान और कौन सा माल? किस माल की हिफाजत करने की बात कहते हैं आप? सुना नहीं है क्या, जर, जोरू और जमीन पर कब्जा ताकत वाले का होता है। ताकत तो अपने वंश दर वंश हवेलियों वालों को सौंप दी। रजवाड़ाशाही खत्म हो गई। देश के करोड़ों बांके नौजवानों ने एक लम्बी लड़ाई लड़ कर सामंतवाद को नेस्तनाबूद कर दिया है। इतिहास ने बताया। फिर यहां बदल कर कहां से नये रजवाड़े और नये सामन्त आ गये? ये नाम जनता के राज का लेते हैं और पहले तो उम्र भर अपनी कुर्सी नहीं छोड़ते, फिर वंशगत परम्परा में उनके वारिसों आने वाले सब वारिसों की वोटों की वसीयत अपने नाम करवा लेते हैं।
इस जमाने का कोई भरोसा नहीं है, साब। जाने कब करवट बदल ले। जाने किस दांव अपना हाथ बदल अपनी हार को जीत में बदल दे। वैसे भी जीत का लड्डू हमेशा ही ऊपर वालों के हाथ रहता है। तब भी जब वोटें पडऩे का मौसम करीब आया, और आपने युगों से लम्बित अच्छे दिनों का सपना साकार होने का एक ट्रेलर हमें दिखा दिया और पूरी फिल्म दिखाने का सपना भविष्य के कंधों पर लाद दिया। लेकिन याद रखिये कल, आज और कल में जो बीत गया वह कल तो कभी मुडक़र आता नहीं और आने वाला कल कभी मिलता नहीं, जब भी मिलेगा, वह यही आज बन कर ही मिलता है। वही रंग उतरा आज जिसमें आने वाले दिनों में अच्छे दिन दे देने के वायदों को दोहराया जाता है। उन लोगों ने दोहराया है, जो बरसों बाद आपका और भी निर्जीव होता चेहरा पहचानने चले आये थे। नये वायदों के कनकौओं के साथ, एक बार फिर से आकाश में उडऩे का एहसास दे रहे हैं। यह वे एहसास हैं जो काम किये बिना देश के आत्मनिर्भर हो जाने की तस्वीर बनाते हैं। आंकड़ों के ऐसे खेल दिखाते हैं कि गिरावट की ओर सरपट भागती अर्थव्यवस्था का शेयर सूचकांक बल्लियों उछलने लगता है। इन्होंने पूरा विश्व एक मंडी बना देने का वायदा किया था न। लीजिये पूरे विश्व में पेट्रोल और डीजल की कीमतें प्रति लीटर सैकड़ा पार कर गयीं। अपना देश कुछ अधिक तरक्की पसंद है, इसलिए एक-दो नहीं यहां पूरे आठ राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में इनका दाम सौ से ऊपर चला गया। इससे केन्द्रीय और राज्य के राजस्व खजाने की बहार लौट आयी, पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतें बढ़ी हैं तो बढऩे दो, आखिर इस गिरते हुए माहौल में कुछ तो बढऩा चाहिए। जनता की हायतौबा की चिन्ता करना, उनके लिए हम घर-घर बिजली चालित कार ले आने का सपना बांट देंगे। फिलहाल उन्हें पेट्रोल रहित साइकिलें चलाने का संदेश दे दिया है। देश की चाल धीमी हो गई तो क्या? इस देश के लोगों को तो वैसे ही कीड़ी चाल से रेंगने की आदत है। धरती पर रेंगना और आकाशचारी होकर विकास के आंकड़ों के वायुयान की सवारी करना इनकी पुरानी आदत है। अब आप जितना चाहें आंकड़ों की सत्यता की जांच कर वैकल्पिक आंकड़े ले आयें, हमने संकट बचा लिया और अपनी कुर्सी भी। अभी फिर लोगों को महामारी से फरार होते हुए, सभ्य जीवन, रोजी और रोटी की कामना करते देखा तो फिर घोषणा कर दी है, अपने आपको बंदिशों से आजाद न समझो। बस अब चुप लगा जाइए और अपनी जानों को कुर्सीधारियों की अमानत मानिये। वे खैरात बांटते रहेंगे, अब बस दुआओं से काम चलाइए। बदलाव के नारे मंचों तक सीमित रहे तो बेहतर।
सुरेश सेठ
By: divyahimachal
Rani Sahu
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