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होली के रंग शरीर के साथ-साथ आत्मा को भी भिगोते हैं। यह अकेला ऐसा उत्सव है, जिसमें परंपरा भी है और मस्ती भी
साजन मिश्र,प्रख्यात शास्त्रीय गायक।
होली के रंग शरीर के साथ-साथ आत्मा को भी भिगोते हैं। यह अकेला ऐसा उत्सव है, जिसमें परंपरा भी है और मस्ती भी। होरी गायन में इसकी झलक देखी जा सकती है। देखो लला, मेरी आंख न खटके, कौन तरह से तुम खेलो होरी। इस होरी में राधा या जो भी गोपियां हैं, उनका भाव यह है कि देखो कान्हा, इस तरह से होली खेलो कि आंख में अबीर या गुलाल या रंग नहीं जाए। अगर आंख में चला गया, तो गारी मैं दूंगी, तोहे न छोड़ूंगी, अबकी फाग में तोहे भी रंगूंगी, यानी मैं तुम्हें गाली दूंगी और तुम्हें भी न छोड़ूंगी, रंगों से तुमको भी रंग दूंगी। बेशक, बनारस में मसाने की होली भी खेली जाती है, लेकिन हम लोग वृंदावन क्षेत्र के भाव में रहते हैं। काशी जरूर विराजते हैं, मगर वृंदावन वाली होरी गाते-बजाते हैं। जैसे, खेल रहि रंग होरी उनके दोउ नैना, जैसे चांद और चकोरे, खेल रहि रंग होरी उनके दोउ नैना या खेलत अबीर गुलाल, घनश्याम मिली गोपिन संग।
होली के दिन मुझे अनायास बचपन याद आ जाता है। उन दिनों बनारस में बड़ी हुड़दंगी होली हुआ करती थी। तब गुब्बारों का चलन नहीं था। सभी बच्चों के हाथों में पिचकारी हुआ करती थी। मेरी दादी हम दोनों भाइयों (बड़े भाई पंडित राजन मिश्र) को पीतल की बड़ी-बड़ी पिचकारियां देती थीं। हमारे साथ एक सहायक भी चला करता था, जो रंग भरी बाल्टी लिए होता था। अमूमन उम्र में एकाध साल छोटेे लड़के को ही यह जिम्मेदारी मिला करती थी। पूरा मोहल्ला मिलकर होली खेलते। थोड़ी देर तक हम पिचकारी चलाते, फिर अपने सहायक को चलाने के लिए दे दिया करते।
हम परिचित-अपरिचितों को रंग-अबीर तो लगाते ही थे, चुहलबाजियां भी किया करते। ऐसी ही एक घटना में हम लोगों ने एक छोटे बच्चे को सब्जी वाली बड़ी सी टोकरी में बैठाकर उसके ऊपर चादर डाल दी थी। मैंने टोकरी का एक सिरा यूं पकड़ा, मानो उसे उठाना चाहता हूं, लेकिन भारी होने के कारण उठा नहीं पा रहा हूं। एक राहगीर की नजर मुझ पर पड़ी और वह मेरी मदद को आया। वह जैसे ही टोकरी उठाने के लिए झुका, बच्चे ने हो-हो कहकर उस पर रंग डाल दिया। हमारी इस तरह की शैतानियां होलिका दहन से ही शुरू हो जाती थीं। होलिका दहन के लिए हम लकड़ियां चुना करते। किसी के घर में यदि कोई लकड़ी हमें दिख जाती, तो हम उसे बताए बिना चुपचाप उड़ा ले आते। कई बार इसके लिए उनकी शिकायतें भी घर आती थीं। लेकिन पिताजी (पंडित हनुमान मिश्र) जानते थे कि होली बच्चों का त्योहार है, इसलिए हमें थोड़ा-बहुत डांटकर उनकी बातों को नजरंदाज कर देते थे।
उन दिनों मोहल्ले-मोहल्ले में होलिका दहन की प्रतियोगिता भी होती थी कि किसकी होलिका कितने दिनों तक जली? अमूमन होली से एक रात पहले होलिका दहन होता, जिसकी आग होली के अगले दिन तक सुलगती रहती। पड़ोस के मोहल्ले से पता किया जाता कि किसकी होलिका ज्यादा देर तक जली। इसका एक अलग उल्लास हम बच्चों में रहा करता था।
मुझे याद है कि किस तरह होली पर हम भाई धमा-चौकड़ी मचाया करते थे। हम दिन में रंग खेलते, और शाम को अबीर-गुलाल। दादी हम भाइयों को टीका लगाकर हाथ में कुछ पैसे दे देतीं। हमें बादाम-अखरोट का पैकेट भी दिया जाता और गले में खजूर-नारियल लगी माला पहना दी जाती। उन दिनों बनारस में ऐसी मालाएं खूब बिका करती थीं। कहा जाता था कि दिन भर भीगे रहने के कारण शरीर ठंडा हो जाता है, जिसके कारण सूखे मेवे या ड्राई फ्रूट की गरमाहट जरूरी है। माला से तोड़-तोड़कर हम लोग खजूर-नारियल खाया करते थे।
वे हमारे लिए स्वर्णिम दिन थे। जिस कबीर चौरा मोहल्ला में हम रहा करते थे, वह कलाकारों का मोहल्ला है। सारे कलाकार हमारे यहां आते, बैठते और बादाम-पिस्ता की ठंडई पीते थे। फिर गाना-बजाना होता था। कभी-कभी बीच में पिताजी हमें भी आवाज लगाने को कहते, तो हम लगाया करते। अब तो धीरे-धीरे सब कुछ बदल गया। हालांकि, पिछले करीब 10 वर्षों से हम भाई बनारस जाकर ही होली खेला करते थे। शाम को गाना-बजाना होता, जिसमें कुछ स्थानीय कलाकार भाग लेते थे। बाद में हम भी गाते थे। मगर अब सब कुछ खत्म हो गया है। समय के साथ दुनिया ही बदल गई है। भैया भी होली को लेकर इतने उत्साहित रहा करते थे कि दो महीने पहले से ही टिकट लेने की ताकीद किया करते। तब उत्साह देखने लायक होता था।
वैसे, बनारस आज भी परंपराओं को जीता है। आज भी होली की शाम जब लोग आपस में मिलते हैं, तो अबीर-गुलाल का टीका लगता है। कोशिश यही होती है कि सभी श्वेत वस्त्र पहनें। आज भी घरों से होलिका दहन के लिए कंडे, लकड़ी का टुकड़ा, मिठाई आदि हाथों का स्पर्श लगाकर भेजे जाते हैं। पूर्वजों की उस मान्यता में हमारा आज भी विश्वास है कि यदि आप हाथ का स्पर्श लगाकर दान करते हैं, तो होलिका दहन के साथ रोग वगैरह भी खत्म हो जाते हैं। इस नियम को मेरा परिवार आज भी मानता है। गायन होली का बहुत खूबसूरत पक्ष है। तकनीक की कसौटी पर भले ही फाग आपको पसंद न आए, लेकिन जिस खूबसूरती से लोग इसका गायन करते हैं, वह मन को मोह लेता है। हम कलाकार होरी सुनते भी हैं और गाते भी हैं। वैसे तो, किसी भी कलाकार का गायन मुझे नापसंद नहीं है, लेकिन पिताजी, चाचाजी (पंडित गोपाल मिश्र) और बड़े भैया के साथ-साथ पंडित हरिशंकर मिश्र, श्रीचंद्र मिश्र, गिरिजा देवी, सिद्धेश्वरी देवी, रामू पंडित जैसे कलाकारों का गायन खास पसंद रहा है।
होली के इस अवसर पर ईश्वर से यही प्रार्थना है कि अपने देश का हर व्यक्ति स्वस्थ रहे और होली उसके लिए मंगलमय हो। कोविड काल हम सबके लिए एक विनाशकारी दौर रहा है। आहिस्ता-आहिस्ता हम इससे उबर रहे हैं। इसलिए, जितना हो सके, स्वस्थ रहें। रंग और पिचकारी खेलें। खूब मस्ती करें। शैतानियां करें। मगर मर्यादा का भी पूरा ख्याल रखें। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ सबको होली की मुबारकबाद!
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
Gulabi Jagat
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