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हिजाब इस्लाम का अभिन्न हिस्सा नहीं है
रवि पाराशर
हिजाब इस्लाम का अभिन्न हिस्सा नहीं है. यह फ़ैसला सुनाया है कर्नाटक हाईकोर्ट के तीन जजों मुख्य न्यायाधीश ऋतुराज अवस्थी, न्यायमूर्ति जेबुन्निसा मोहिउद्दीन खाजी और न्यायमूर्ति कृष्णा एम दीक्षित की खंडपीठ ने. दो महिला न्यायाधीशों वाली तीन जजों की खंडपीठ के इस फ़ैसले का सीधा सा अर्थ यह हुआ कि अब ड्रेस कोड वाले स्कूल-कॉलेजों में मुस्लिम छात्राएं हिजाब नहीं पहन सकेंगी. उन्हें ड्रेस कोड का पालन करना होगा. बहुत मुमकिन है कि इस फ़ैसले को जल्द ही सुप्रीम कोर्ट में चुनौती मिलेगी. यानी स्कूल-कॉलेजों में हिजाब को लेकर यह अंतिम निर्णय नहीं है.
ज़ाहिर है कि इस ग़ैरज़रूरी मसले को इतना संवेदनशील बना दिया गया है कि कर्नाटक सरकार ने सभी जिलों में धारा 144 लगा दी है. ज़्यादा संवेदनशील इलाकों के शिक्षण संस्थान फ़ैसले के दिन बंद रखे गए. तनाव बढ़ता है तो हो सकता है कि कुछ इलाक़ों में स्कूल-कॉलेज कई दिनों तक बंद रखे जाएं. वैसे अब ऐसा होने की आशंका कम ही है. बहरहाल, हाई कोर्ट ने अपने फ़ैसले में हिजाब से जुड़े तीन मुख्य सवालों के स्पष्ट उत्तर दिए हैं.
तीन सवालों के जवाब
कोर्ट ने माना कि मुस्लिम महिलाओं के लिए हिजाब पहनना इस्लाम में अनिवार्य धार्मिक प्रथा नहीं है. कोर्ट ने यूनिफ़ॉर्म तय करने के स्कूल-कॉलेजों के अधिकार को सुरक्षित रखा है. छात्र-छात्राएं एडमिशन के लिए ड्रेस कोड में मनमानी छूट का हक़ हासिल नहीं कर सकते हैं. मतलब यह हुआ कि स्कूल मैनेजमेंट चाहे तो ड्रेस कोड में छूट दे सकते हैं. लेकिन इस तरह प्रतिकार से नफरत भरा माहौल बन सकता है, जो उचित नहीं होगा. कोर्ट ने यह भी माना कि सरकार के पास इस संबंध में आदेश जारी करने का अधिकार है. फरवरी में कर्नाटक सरकार ने अगले आदेश तक स्कूल-कॉलेजों में धार्मिक पहनावे पर प्रतिबंध लगाने का आदेश जारी किया था.
चुनाव पर नहीं पड़ा असर
इस अंदेशे से इनकार नहीं किया जा सकता है कि उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों से ऐन पहले हिजाब विवाद को गर्माया गया था. इसकी शुरुआत कर्नाटक में मामला ज्यादा गर्माने से कई महीने पहले कर दी गई थी. गुजरात में हिजाब आंदोलन शुरू करने के प्रयास किए गए लेकिन वहां नाकामी हाथ लगी. पांच राज्यों के चुनाव में चार राज्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जादू की वजह से बीजेपी की झोली में फिर से जाने का जनमत आ जाने के बाद लगता नहीं है कि हिजाब विवाद के सूत्रधार अब इस मसले को गर्माने का प्रयास नए सिरे से करेंगे. इसी वर्ष अंत में गुजरात में भी विधानसभा चुनाव होने हैं. तब तक हो सकता है कि हिजाब विवाद के इंजीनियर इसका इंजन चालू रखें. लेकिन अब इस मामले में उतनी आवाज़ नहीं होगी, जितनी कि कर्नाटक और देश के कई और हिस्सों में हम सुन चुके हैं.
सुप्रीम कोर्ट में जल्दी हो विचार
यह बात अलग है कि मामले को सुप्रीम कोर्ट ले जाकर इतनी जल्दी वे हार नहीं मानेंगे. वैसे भी इस तरह के मामले सुप्रीम कोर्ट में आकर ही निपट पाते हैं. सबसे बड़ी अदालत को चाहिए कि वह अपील होने के बाद जल्द अपना फैसला सुनाए. राजनैतिक नफ़े-नुकसान के तराज़ू पर इस तरह के विवादों को नहीं तोला जाना चाहिए. सभी धर्मों के नेताओं को इस बारे में आम राय बनानी चाहिए. इसे धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण के हथियार के तौर पर नहीं लेना चाहिए.
हिजाब, बुरक़ा या दूसरे धर्मों से जुड़े प्रतीक चिह्न पहनने को लेकर भारत में विवाद पहली बार नहीं हुआ है. कई बार यह मुद्दा बड़ी अदालतों के सामने उठा है और हर बार व्यवस्था मिल भी जाती है. लेकिन अब समय आ गया है, जब इस तरह के सभी मसलों का अंतिम समाधान निकाला जाए. जहां तक हिजाब या बुरक़ा जैसे धार्मिक पहनावों का सवाल है, तो हम जानते ही हैं कि कई मुस्लिम देशों में भी इन्हें पहनने की अनिवार्यता नहीं है. सामाजिक सुरक्षा की दलील देते हुए कई देशों ने इस तरह के पहनावे पर प्रतिबंध लगा रखे हैं. जबकि एकाध मुस्लिम देश में सभी धर्मों की महिलाओं को सिर ढंकना पड़ता है.
धर्म गुरु कटुता दूर करें
भारत विविन्न संस्कृतियों का सबसे बड़ा गुलदस्ता है. यहां अल्पसंख्यक जितने सुरक्षित हैं, दुनिया के किसी हिस्से में उतने सुरक्षित नहीं हैं. ऐसे में मुस्लिम धर्म गुरुओं का दायित्व बनता है कि वे इस तरह के ग़ैर-धार्मिक मसलों पर उदारतापूर्वक विचार करें और समाज के सामने अपनी राय खुल कर रखें. अगर तीन जजों की कर्नाटक हाई कोर्ट की पीठ ने हिजाब को धार्मिक तौर पर अनिवार्य करार नहीं दिया है, तो ज़ाहिर है कि हिजाब का नाता धार्मिक आस्था के तहत नहीं ही आता होगा.
क्या धर्म गुरु यह बात नहीं समझते हैं? या फिर उन्हें अपने समुदाय के कट्टरपंथियों का डर है? धर्म की बातें या धर्म से जुड़ी निष्ठाओं से जुड़े मसले अगर संविधान, आईपीसी और सीआरपीसी के तहत व्याख्यायित न्यायिक सिद्धांतों के आधार पर चलने वाली लोकतांत्रिक अदालतें अंतिम तौर पर तय करने लगेंगी तो फिर सकारात्मक धार्मिक परंपराओं, निष्ठाओं, मान्यताओं को जीवित और मज़बूत करने वाले धर्म गुरुओं की समाज में क्या भूमिका होनी चाहिए?
किसी समय धर्म गुरुओं का महत्व राज सत्ताओं से ऊपर होता था. लेकिन आज धर्म को अधर्म की राजनीति का विषय बना दिया गया है. भारतीय संदर्भों में धर्म का सही अर्थ भी विकृत कर दिया गया है. ज़रूरत इस बात की है कि सभी धार्मिक नेतृत्वकर्ताओं को मिल-जुल कर तय करना चाहिए कि वे समाज को वोटों की राजनीति में नहीं फंसने देंगे. एक बार ऐसा हो गया, तो अनेकता में एकता का भारतीय मूल मंत्र पूरी पवित्रता से गूंजने लगेगा. दुनिया में जो हालात हैं, ऐसे में यह लक्ष्य प्राप्त करना सभी धर्मों के गुरुओं का ध्येय होना चाहिए.
Rani Sahu
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