सम्पादकीय

कबीरा आप ठगाइए

Rani Sahu
3 Oct 2022 7:06 PM GMT
कबीरा आप ठगाइए
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कबीर कक्का की उलटबाँसियों का कोई जवाब नहीं। जब भी कहा, सौलह आने टंच कहा। लेकिन कहा हमेशा ज़माने से उलट। जब भी ठगने या ठगाने की बात होती है, अपने को ही ठगने की बात करते हैं औरों को नहीं। स्कूल में पढ़ी इस उलटबाँसी, 'कबीरा आप ठगाइए, और न ठगिए कोए, आप ठगे सुख ऊपजे, और ठगे दु:ख होए' में फँसने के बाद आज तक बाहर नहीं निकल पाया। आज तक नहीं समझ पाया कि मज़ा ठगने में है या ठगाने में। बनने में है या बनाने में। वैसे यह विचारों पर नियंत्रण का ही कमाल है कि कबीर ने बनने या बनाइए शब्द का प्रयोग नहीं किया। क्योंकि बनने या बनाइए से उसी शब्द की बू आती है, जिसके बारे में आप अभी भी सोच रहे हैं। ख़ैर शब्दों की बहस में न पड़ते हुए हमें भाव केन्द्रित होना चाहिए। अगर आप साधु स्वभाव के हैं तो ठगे या बनाए जाने पर बुरा नहीं मानेंगे।
लेकिन अगर स्वभाव में संसार हो तो आदमी आप ठगाए जाने की बजाय औरों को ठगने का वही आनंद ले सकता है जो आजकल बाबा रामदेव उठा रहे हैं। उनके मिलावटी घी और शहद उन अच्छे दिनों की याद दिलाते हैं, जिनके आने पर भारत में जल्द ही राम राज्य स्थापित होने पर घी की नदियाँ बहेंगी। दूध इसीलिए नहीं कि बाबा दूध नहीं बेचते और शहद इसीलिए नहीं कि हमारे पुराणों और ऐतिहासिक ग्रंथों में उसका जिक़्र नहीं आता। लेकिन अपने जीवन के चौवन सालों के अनुभव के आधार और ठोस सुबूतों की बिना पर यह कह सकता हूँ कि आदमी दूसरों द्वारा ठगे जाने पर दु:ख, पीड़ा और विषाद से भर उठता है। किन्तु ख़ुद अपनी सुविधा और मरज़ी से ठगे जाने पर सुखद महसूस करता है। मेरे एक मित्र हैं, जो साल भर पहले रिटायर हो चुके हैं। पर आज भी उनके लेखों, कहानियों और कविताओं के छपने पर जो फ़ोटो किताबों, रिसालों और अख़बारों में चिपकती है, वह तीस साल पुरानी है। अपनी बढ़ती उम्र को छिपाने के लिए आदमी बालों और दाढ़ी में तरह-तरह के खिजाब लगाता है। आदमी को पता है कि वह ख़ुद भी बन रहा है और दूसरों को भी बना रहा है। दूसरों को भी पता है क्योंकि उन्होंने ख़ुद भी बाल रंगे हैं। इस तरह स्वयम् बनने पर और दूसरे को बना कर वे सुखद अनुभव करते हैं। लेकिन चेहरे की झुर्रियाँ उम्र का पता बता देती हैं।
लेकिन सब ख़ुश हैं। इससे कार्ल माक्र्स के समतावादी सिद्धांत को समझने में मदद मिलती है। लोगों के इस तरह बनने और बनाए जाने की इस अटूट कड़ी ने कभी कुटीर उद्योग रहे खिजाब व्यवसाय को कलर इन्डस्ट्री के खरबों के कारोबार में बदल दिया। ऐसी ही मिसाल उन अंधभक्तों की भी है जो आम दिनों और ख़ासकर नवरात्रि के दौरान रामदेव के पतंजलि ब्रैंड या अन्य ब्रैंड का वह ख़ालिस देसी घी जोत जलाने के लिए खऱीदते हैं, जो भारतवासियों के लिए ख़ास हड्डियाँ या आलू उबाल कर या अन्य कृत्रिम तरीक़ों से फैक्टरी में बनाया जाता है। अंधश्रद्धा में पगे ये भक्त बन कर भी ख़ुश रहते हैं। जब घी बनाने वालों की काठ की हांडी मज़े से लालच के चूल्हे पर मुनाफा काट रही है, तो वे सबको बना कर अति प्रसन्न क्यों नहीं होंगे। लेकिन जब जगत नियंता ही बनने के बाद सब से प्रसन्न हैं, तो भला किसी को क्या ऐतराज़। मैं, घर में जब भी पत्नी को ऐसा घी खऱीदने के लिए टोकता हूँ तो जवाब मिलता है, 'प्रभु के कामों में टाँग नहीं डालते।' जो जोत डेढ़ सौ रुपये के मिलावटी तेल से जलाई जा सकती है, उसे अंधभक्त छ: सौ रुपए किलो के नकली घी से खऱीद कर जलाने में पुरसुकून हैं। पत्नी स्वेच्छा से बनने के बाद भगवान को बना कर ख़ुश है और मैं, जानते-बूझते बनने के बावजूद उसे प्रसन्न देखकर मुदित हूँ। उधर, अपनी सृष्टि से सभी को बनाने वाले भगवान, औरों के साथ स्वयम् को बनता देख कर भी प्रसन्न हैं।
पी. ए. सिद्धार्थ
लेखक ऋषिकेश से हैं

By: divyahimachal

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