सम्पादकीय

न्याय या विपरीत न्याय?

Triveni
14 Aug 2021 2:13 AM GMT
न्याय या विपरीत न्याय?
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सवाल है कि ये संशोधन क्यों लाया गया है। जाहिर है कि इसका मकसद अलग-अलग राज्यों में अब तक दबंग मानी जाने वाली जातियों की तरफ से उठ रही आरक्षण की मांग को पूरा करना है।

obc constitution amendment bill सवाल है कि ये संशोधन क्यों लाया गया है। जाहिर है कि इसका मकसद अलग-अलग राज्यों में अब तक दबंग मानी जाने वाली जातियों की तरफ से उठ रही आरक्षण की मांग को पूरा करना है। लेकिन आरक्षण जिस सोच के तहत लागू किया गया था, उसके साथ यह न्याय होगा या यह उसकी भावना के खिलाफ है?

जिस समय दौर राज्यों के अधिकारों छीने जाने का है, उस समय केंद्र सहजता से अन्य पिछड़े समुदायों (ओबीसी) की अपनी सूची बनाने का अधिकार राज्यों को देने के लिए तैयार हो गया। इससे संबंधित 127वां संविधान संशोधन विधेयक संसद में सर्व-सम्मति से पारित हुआ। चुनाव को केंद्र में रख कर अपनी सारी सोच तय करने वाली राजनीतिक पार्टियों की निगाह में आरक्षण शब्द एक ऐसा पवित्र गाय है, जिससे संबंधित पहलुओं पर कोई सवाल उठाना या उसमें निहित समस्याओं की तरफ इंगित करना उनके साहस के दायरे में नहीं रहा है। सवाल है कि ये संशोधन क्यों लाया गया है। जाहिर है कि इसका मकसद अलग-अलग राज्यों में अब तक दबंग मानी जाने वाली जातियों की तरफ से उठ रही आरक्षण की मांग को पूरा करना है। इस तरह कहीं पाटीदार, कहीं मराठा, कहीं जाट, कहीं गूजर और धीरे-धीरे कहीं उनसे भी कहीं ज्यादा सशक्त जातियों को आरक्षण देने का रास्ता खुल जाएगा। ये सवाल उठाने की हिम्मत किसी दल नहीं है कि इससे आरक्षण जिस सोच के तहत लागू किया गया था, उसके साथ न्याय होगा या यह उसकी भावना के खिलाफ होगा? जिस समय सार्वजनिक क्षेत्र में नौकरियां और शिक्षा वैसे ही सीमित होती जा रही है, उसमें आरक्षित सीटों पर भीड़ बढ़ाने से किसका भला होगा? जाहिर है, इसके साथ आरक्षण की 50 फीसदी सीमा को हटाने की मांग जोर पकड़ेगी।
लेकिन अगर वैसा किया भी जाए, तो क्या उससे असल समस्या का समाधान निकल जाएगा? आरक्षण के पीछे सोच प्रतिनिधित्व देना था। मूल सोच में यह कभी भी गरीबी या बेरोजगारी हटाओ की योजना नहीं था। मगर देश में रोजगार के घटते अवसरों और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में गिरावट ने अधिक से अधिक जातियों के भीतर ये सोच पैदा की कि अगर आरक्षण मिल जाए, तो उनकी आर्थिक मुसीबत का हल हो जाएगा। जरूरत इस गलतफहमी का मुकाबला करने थी। जरूरत इस बात पर जोर देने की थी कि अगर न्यायपूर्ण और नियोजित आर्थिक विकास नहीं होगा, तो आरक्षण वह मतलब भी खो देगा, जो पहले कभी इसमें निहित था। मगर ये बात सोचने की जरूरत वो समूह भी महसूस नहीं करते, जिनका हित नीतियों के व्यापक परिवर्तन से जुड़ा है। इसलिए राजनीतिक दलों के लिए दिखावटी कदम उठा कर वोट बटोर लेना संभव बना हुआ है। ये दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है।


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