सम्पादकीय

न्याय भी दलित विरोधी

Rani Sahu
21 Aug 2022 6:59 PM GMT
न्याय भी दलित विरोधी
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मान्यता है कि कानून अंधा होता है। ऐसा असंख्य मामलों के संदर्भ में देखा और महसूस किया जाता रहा है
By: Divyahimachal
मान्यता है कि कानून अंधा होता है। ऐसा असंख्य मामलों के संदर्भ में देखा और महसूस किया जाता रहा है, लेकिन अब लगता है कि कानून की नई, मान्य परिभाषा होनी चाहिए कि कानून विवेकहीन, अमर्यादित, पुरुषवादी, जातिवादी और संवेदनहीन भी होता है। कानून से हमारा अर्थ प्रतीकात्मक भी है, जिसके दायरे में मजिस्टे्रट और जज भी आने चाहिए। हमने जानबूझ कर 'न्यायाधीश' शब्द का प्रयोग नहीं किया, क्योंकि मानव-समाज आज भी उन्हें नैतिक, सम्मानित और नीर-क्षीर विवेक का ईमानदार चेहरा मानता है। अपवाद वहां भी हैं। जिस घटना का हम विश्लेषण कर रहे हैं, उसी के आधार पर कानून और जज की नई परिभाषा के हम हिमायती हैं। केरल के एक सेशन जज ने यौन-उत्पीडऩ के मामले में फैसला सुनाते हुए टिप्पणी की है कि कथित पीडि़ता ने ऐसे कामोत्तेजक कपड़े पहने थे कि आरोपित ने भद्दी और अश्लील फिकरे कसे। बचाव पक्ष ने पीडि़ता के कुछ फोटो जज के सामने पेश किए थे। आरोपित का व्यवहार जज को स्वाभाविक लगा, लिहाजा प्रथमद्रष्ट्या यौन उत्पीडऩ का मामला स्वीकार नहीं किया गया। एक अन्य मामले में उसी जज साहेब की मान्यता थी-'चूंकि लडक़ी दलित थी, लिहाजा आम धारणा के मुताबिक आरोपित उसे छू तक नहीं सकता।' यौन-उत्पीडऩ के मामलों को आम सामाजिक धारणाओं के कुचक्र में फंसा दिया गया। जज के निर्णय में 'अस्पृश्यता' की मानसिकता साफ झलक रही थी। बहरहाल मलयाली लेखक एवं सामाजिक कार्यकर्ता सिविक चंद्रन को अदालत ने अग्रिम जमानत दे दी। नारी के प्रति ऐसे विद्वेष, धारणा और अछूत सोच ने न्यायपालिका के तटस्थ और महान संस्थान को झकझोर कर रख दिया। यौन-उत्पीडऩ के संदर्भ में दलित होने की संकीर्ण व्याख्या की गई है।
दलित के प्रति घृणा और अछूत का भाव भी जज के कथन में निहित है। यह भाव बीते दिनों की कई घटनाओं में देखा गया है। बहरहाल जज ने आरोपितों के खिलाफ आईपीसी की धारा 354 को लगाना प्रथमद्रष्ट्या जरूरी नहीं समझा और लैंगिक व्यवहार की तमाम हदें पार करने वाले को जमानत मिल गई। स्थिति जो भी हो, एक जज के कारण न्यायपालिका, व्यापक विमर्श के बाद बनाई गई धारा 354, दलित होने के कारण देश के दो नागरिकों को न्याय नहीं और हमारी मनुवादी, पुरुषवादी, सवर्णवादी मानसिकता आदि सवालिया हो गईं। सर्वोच्च अदालत के निर्देशों का भी उल्लंघन किया गया कि जमानत देते हुए निचली अदालतों के जज फिजूल की टिप्पणियां करने से बचें। दरअसल औसत जज भी समाज के बीच से ही आते हैं और स्थापित मानसिकता को महसूस करते हुए ही जज के ओहदे पर आसीन होते हैं। एक तरह से वे ऐसे संस्कार अपने समाज और समय से ही ग्रहण करते हैं। सवाल है कि क्या न्याय-दूत माने जाने वाले जजों के लिए भी कोई आचार-संहिता होनी चाहिए? क्या अब भी समाज के कुछ कोनों और जेबों में दलित-विरोधी भाव हैं, जिनके कारण कानून और फैसले नहीं बदल पाए हैं और कानून, जज आदि संवेदनशील नहीं हुए हैं? सरकारी आंकड़े गवाह हैं कि कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार के 10 सालों में 14,000 से ज्यादा दलित लड़कियों और महिलाओं से बलात्कार दर्ज किए गए, जबकि मोदी सरकार के आठ सालों के दौरान यह आंकड़ा 20,000 को लांघ चुका है। यदि बीते 20 सालों के रिकॉर्ड का आकलन किया जाए, तो करीब 49,000 दलित बलात्कार के केस सामने आए हैं। यह वीभत्स हालात हैं। अब जज साहेब से सवाल किया जाना चाहिए कि इतनी दलित, अछूत लड़कियों, महिलाओं को सवर्ण बलात्कारियों ने छुआ था अथवा नहीं? आश्चर्य है कि ये मामले उस राज्य से आए हैं, जहां के विकास-मॉडल में नारी सशक्तिकरण की भी खूब भूमिका रही है। 19वीं सदी के आंदोलनों में नारी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर खूब सक्रिय रही है। वह सिर्फ यौन-प्रयोग और उपभोग की जि़ंदा वस्तु ही नहीं रही। लेकिन तमाम परिवर्तन और सुधार भी औसत आदमी की मानसिकता संवारने में असमर्थ रहे हैं। अब आरोपित जज के बारे में शीर्ष न्यायपालिका क्या फैसला लेती है, हम उन्हीं के विवेक पर छोड़ते हैं। न्याय बिना किसी भेदभाव के होना चाहिए। अगर न्याय करते समय भेदभाव या पक्षपात किया जाता है तो न्याय, न्याय नहीं रहता है। हमारे देश में न्यायाधीश का पद बड़ी गरिमा का पद माना जाता है। इसलिए सभी लोगों को न्याय सुलभ हो, यह न्यायाधीशों का भी कत्र्तव्य है।
Rani Sahu

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