सम्पादकीय

जुगाड़, मसखरी और साहित्य

Rani Sahu
4 July 2022 6:58 PM GMT
जुगाड़, मसखरी और साहित्य
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जुगाड़ में मसख़री हो सकती है या मसख़री में जुगाड़। यह भले ही शोध का विषय हो, लेकिन वर्तमान साहित्य में होने वाले जुगाड़ और मसख़री पर शोध की कोई गुँजाइश नहीं। कम से कम स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक सम्मेलनों के आयोजन या बँटने वाले पुरस्कारों को देखते हुए तो यही लगता है

जुगाड़ में मसख़री हो सकती है या मसख़री में जुगाड़। यह भले ही शोध का विषय हो, लेकिन वर्तमान साहित्य में होने वाले जुगाड़ और मसख़री पर शोध की कोई गुँजाइश नहीं। कम से कम स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक सम्मेलनों के आयोजन या बँटने वाले पुरस्कारों को देखते हुए तो यही लगता है। पहले लिखने में जुगाड़ और मसख़री, फिर छपने और साहित्यिक सम्मेलनों में भाग लेने या पुरस्कारों से तथाकथित अलंकरण हेतु जुगाड़ और मसख़री। हिमाचली साहित्य के दर्पण पर जमी जुगाड़ और मसख़री की धूल पर शिमला में इस बरस आयोजित अंतरराष्ट्रीय साहित्योत्सव ने देश-दुनिया को कितना कुछ दिया होगा, इसका अंदाज़ा हिमाचली साहित्यकारों की बंदरबाँट और जुगाड़ुओं को जमाने के लिए मसख़री की उस जामन से लगाया जा सकता है जो हिमाचल भाषा, कला एवं संस्कृति विभाग और अकादमी द्वारा हर साल प्रायोजित पुरस्कारों के लिए इस्तेमाल की जाती है। हिमाचल विभाग और अकादमी ने सिंथेटिक दूध की तरह नई प्रादेशिक बोलियों के आविष्कार को मान्यता की जामन लगा कर पहाड़ी-हिमाचली, हिमाचली-पहाड़ी, हिमाचली-मंडयाली या हिमाचली-कुल्लवी जैसी मनघडंत बोलियों के अखिल भारतीय व्यंजन बनाने की पूरी कोशिश की। हिमाचल के जिन चवालीस लेखकों को कथित अंतर्राष्ट्रीय लिटरेचर फेस्टिवल में आमंत्रित कर उनकी आदमक़द तस्वीरों को रिज और माल रोड पर टांगा गया, उनमें से अठाईस तो केवल स्थानीय बोलियों के लेखक थे।

बेचारी धौलाधार उस समय से कवियों की प्रशंसा के बाण झेल रही है जब उस पर कई मीटर बर्फ की चादर बिछती थी। अब तो धौलाधार के पहाड़ कथित कवियों के भोथरे शब्दों जितने नंगे हो चुके हैं। विभाग को वरिष्ठ साहित्यकार गौतम शर्मा व्यथित का वह पांडित्यपूर्ण कार्य भी नज़र नहीं आया, जो अँधेरे में भी रिफ्लेक्टर की तरह चमकता है। उन्हीं की तरह वरिष्ठ सशक्त कवयित्री सरोज परमार को भारी भरकम नदी होने के बावजूद भाषा विभाग ने पालमपुर की भिरल खड्ड से आगे नहीं बढ़ने दिया। लोकप्रिय कवि पंछी के मंडयाली गीत भाषा विभाग के लिए साईबेरिया के पंछी साबित हुए। चंचल सरोलवी की ठेकेदारनी की बडि़याँ बिना तड़के के रह गईं। हिन्दी और पहाड़ी के ग़ज़लगो द्विजेन्द्र द्विज का नवीन संग्रह 'ऐब पराणां सीहस्से दा' अपने ऐब ढूँढ़ता हुआ 'जन मन गण' गाता ही रह गया। प्रकाश चंद्र धीमान के उपन्यास 'छः चार' के लिए भाषा विभाग कांगड़ी कहावत की तरह 'छः चार' की तरह 'छः चार' सिद्ध हुआ। कृष्णा ठाकुर के गीत साहित्य उत्सव के कृष्ण पक्ष में कहीं खो गए। गणेश गनी के बिल्ली के पाँव पर चलते किस्से 'गाजड़ बेलों' में मस्त होकर रह गए। नवनीत शर्मा का नया काव्य संग्रह उनके प्रथम संग्रह 'ढूँढ़ना मुझे' को ढूँढ़ता रह गया। इस साल के अकादमी पुरस्कार की मैराथन में सबसे आगे चल रहे अजय पाराशर के दोहा संकलन 'कस्तूरी' को भाषा विभाग और अकादमी ने ऐसा बाबुआई अडँगा लगाया कि उसकी महक कहीं सुदूर उत्तर-पूर्व में खो गई। ज़ाहिर है कहीं झोल हो तो बात की जा सकती है लेकिन जब झोल में ही झोल हो तो शाम को ऐसे अन्तरराष्ट्रीय साहित्योत्सव के आयोजक तो पीटर स्कॉट या रॉयल चैलेंज जैसे महंगे व्हिस्की ब्रांड पीते नज़र आते हैं।
पी. ए. सिद्धार्थ
लेखक ऋषिकेश से हैं
सोर्स- divyahimachal
Rani Sahu

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