सम्पादकीय

विराट व्यक्तित्व के स्वामी रहे जेपी

Gulabi Jagat
11 Oct 2022 11:51 AM GMT
विराट व्यक्तित्व के स्वामी रहे जेपी
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By शिवानंद तिवारी:
आधुनिक भारतीय इतिहास में जेपी अर्थात जयप्रकाश नारायण अपनी तरह के अनोखे व्यक्तित्व थे. दो-दो क्रांतियों में नेतृत्वकारी भूमिका निभाने वाला जेपी के अलावा इतिहास में कोई दूसरा नजर नहीं आता. साल 1942 के 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' आंदोलन में अनुपम भूमिका निभाने वाले चालीस वर्षीय जयप्रकाश नारायण ने 72 वर्ष की उम्र में 1974 के छात्रों और युवाओं के संपूर्ण क्रांति आंदोलन में नायक की भूमिका निभायी थी.
यह जेपी के ही विराट व्यक्तित्व का दबाव था, जिसकी वजह से गैर वामपंथी पार्टियों ने अपने स्वतंत्र अस्तित्व को विलीन कर जनता पार्टी का गठन किया था. उसी जनता पार्टी ने 1977 के चुनाव में इंदिरा कांग्रेस को शिकस्त देकर देश में पुनः लोकतंत्र को स्थापित किया था. इमरजेंसी का खात्मा और लोकतंत्र की पुनर्स्थापना जेपी और उनके नेतृत्व में चलाये गये आंदोलन की बहुत बड़ी उपलब्धि थी.
आज की पीढ़ी को यह नहीं मालूम होगा कि जवाहरलाल नेहरू जेपी को अपने छोटे भाई और उत्तराधिकारी के रूप में देखते थे. जेपी की पत्नी प्रभावती जी और इंदिरा जी की मां कमला नेहरू में गहरी दोस्ती थी. प्रभावती जी तो इंदिरा जी को अपनी बेटी ही मानती थीं. जेपी भी इंदिरा जी को उसी दृष्टि से देखते थे और उन्हें इंदु कह कर संबोधित करते थे. उन्हीं इंदिरा गांधी के शासन के विरूद्ध जेपी ने 1974 के छात्र युवा आंदोलन का नेतृत्व किया था.
उसी बीच 12 जून, 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा जी के चुनाव को रद्द घोषित कर दिया. दरअसल, 1971 के चुनाव में इंदिरा जी रायबरेली से चुनाव जीती थीं. उनके मुकाबले में समाजवादी राजनारायण जी थे. उन्होंने हाईकोर्ट में अपनी याचिका में इंदिरा जी पर चुनाव में अवैध तरीके इस्तेमाल का आरोप लगाया और अदालत ने उसे सही ठहराते हुए चुनाव को रद्द घोषित कर दिया.
दिल्ली के रामलीला मैदान में 25 जून, 1975 को तमाम विपक्षी दलों की ओर से संयुक्त सभा बुलायी गयी थी. उस सभा में जेपी सहित सभी विपक्षी नेताओं ने नैतिकता के आधार पर इंदिरा जी से प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने की मांग की. उसी रात इंदिरा जी ने आपातकाल यानी इमरजेंसी लागू कर दिया तथा जयप्रकाश जी, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी समेत कई विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया.
जेपी को पीजीआई, चंडीगढ़ के गेस्टहाउस में अकेले नजरबंद कर दिया गया और उसकी चहारदीवारी को ऊंचा कर दिया गया ताकि अंदर से बाहर का दृश्य भी नहीं दिखे. नजरबंदी में भी जेपी को अकेलेपन की क्रूर मानसिक यंत्रणा की सजा दी गयी. जेपी को सुगर की शिकायत थी. वहां उनका गुर्दा खराब होने लगा. चेहरे और हाथ-पैर में सूजन होने लगा. चार महीना दस दिन बाद वह मुक्त हुए और दिल्ली आये. उनकी हालत देख कर साथियों को चिंता हुई. तत्काल उन्हें मुंबई के जसलोक अस्पताल में भर्ती कराया गया. वहां उनका डायलिसिस शुरू हुआ.
इस बीच 1977 में इंदिरा जी ने अचानक लोकसभा चुनाव की घोषणा कर दी. चुनाव की चुनौती तो जयप्रकाश जी पहले ही कबूल कर चुके थे. इस चुनाव का दारोमदार उन्हीं के कंधे पर था. जिस रामलीला मैदान की सभा में उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद इंदिरा जी से इस्तीफा मांग कर गिरफ्तार हुए थे, उसी मैदान से उन्होंने इंदिरा जी के विरूद्ध चुनाव अभियान की शुरुआत की थी.
चुनाव का नतीजा अनुकूल आया और इंदिरा जी अपने बेटा संजय गांधी सहित चुनाव में बुरी तरह पराजित हुईं. जनता पार्टी के प्रधानमंत्री के रूप में मोरारजी भाई ने 24 मार्च, 1977 को शपथ लिया. उसी दिन उसी रामलीला मैदान में विजय रैली रखी गयी थी. सभी विजयी नेताओं के साथ जयप्रकाश जी को भी उस विजय रैली को संबोधित करना था, लेकिन जेपी उस विजय रैली में नहीं जाकर गांधी शांति प्रतिष्ठान के अपने कमरे से निकल कर एक-सफदरजंग वाली कोठी में, जहां उनकी पराजित इंदू रहती थीं, वहां गये. उनके साथ प्रतिष्ठान के सचिव राधाकृष्ण और वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी तथा इंदिरा जी के साथ एचवाई शारदा प्रसाद थे.
यहां उस दृश्य का जो वर्णन प्रभाष जोशी जी ने किया है, उसको उद्धृत करने की इजाजत चाहूंगा- 'अद्भुत मिलना था वह. मिल कर इंदिरा गांधी रोयीं और जेपी भी रोये. जेपी के बिना इंदिरा गांधी पराजित नहीं हो सकती थीं और जेपी उनसे संघर्ष नहीं करते, तो देश में लोकतंत्र नहीं बच सकता था, लेकिन जेपी अपनी विजय पर हुंकार करने के बजाय अपनी पराजित बेटी के साथ बैठ कर रो रहे थे. ऐसा महाभारत लड़ने वाले एक ही कुल के दो योद्धा कर सकते थे.
उस वक्त की और आज की राजनीति में दो नेता ऐसा नहीं कर सकते. जेपी के लिए वह बेटी इंदु थीं. भले ही उनके खिलाफ जेपी ने आंदोलन चलाया और चुनाव अभियान की अगुवाई की. निजी तौर पर इंदिरा गांधी भी जेपी को अपना चाचा मानती रहीं, लेकिन राजनीतिक लड़ाई तो उन्होंने भी आखिरी दम तक लड़ी थी. जेपी जैसे बेटी से पूछते हैं- इंदिरा जी से पूछते हैं- सत्ता के बाहर, अब काम कैसे चलेगा? घर का खर्च कैसे निकलेगा? इंदिरा जी ने कहा कि घर का खर्च तो निकल जायेगा.
पापू (जवाहरलाल नेहरू) की किताबों की रॉयल्टी आ जाती है, लेकिन मुझे डर है कि ये लोग मेरे साथ बदला निकालेंगे. जेपी को यह बात इतनी गड़ गयी कि शांति प्रतिष्ठान लौटते ही उन्होंने उसी दिन प्रधानमंत्री बने मोरारजी देसाई को पत्र लिखा. कहा कि लोकहित में इंदिरा शासन की ज्यादतियों पर जो भी करना है, जरूर कीजिए, लेकिन इंदिरा गांधी पर बदले की कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए.'जयप्रकाश जी के व्यक्तित्व के इस अद्भुत पक्ष की चर्चा ना के बराबर हुई है.
आजकल की राजनीति को देखकर युवाओं को लगता होगा कि राजनीति तो हमेशा ऐसे ही चलती है. जब वे जयप्रकाश नारायण और इंदिरा गांधी के इस प्रकरण के बारे में जानेंगे, तो उनको निश्चित ही सुखद आश्चर्य होगा कि हमारे देश में ऐसे-ऐसे महान लोग भी हुआ करते थे.
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