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झारखंड की हेमंत सोरेन सरकार के भविष्य को लेकर जिस तरह असमंजस कायम है
सोर्स- Jagran
झारखंड की हेमंत सोरेन सरकार के भविष्य को लेकर जिस तरह असमंजस कायम है, वह राज्य के हित में नहीं। इसलिए और भी नहीं, क्योंकि झारखंड इन दिनों कई गंभीर समस्याओं से दो-चार है। जब सरकार को इन समस्याओं से जूझना चाहिए, तब वह खुद को बचाने में जुटी हुई है और इस क्रम में अपने विधायकों को राज्य के बाहर भी ले गई है। इसका मतलब है कि जैसे राज्य सरकार अपनी जिम्मेदारियों का सही तरह से निर्वहन नहीं कर पा रही होगी, वैसे ही साझा सरकार के विधायक भी। जब उन्हें अपनी जनता के बीच होना चाहिए, तब वे दूसरे राज्य में हैं।
हैरानी नहीं कि राज्य की जनता के साथ शासन और प्रशासन भी असमंजस से ग्रस्त हो। असमंजस से ग्रस्त प्रशासन आवश्यक फैसले करना तो दूर रहा, फैसले लेने से ही इन्कार करता है। यदि हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाली सरकार को समर्थन दे रहे सभी विधायक उनके पीछे खड़े हैं तो फिर उन्हें रांची से रायपुर ले जाने का क्या औचित्य? सवाल यह भी है कि यदि कोई विधायक पाला बदलने के लिए तैयार हो तो उसे ऐसा करने से रोकना कैसे संभव है? आखिर ऐसे में उन्हें इधर-उधर घुमाने का क्या मतलब?
इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि अभी हाल में जब शिवसेना में टूट हुई तो उद्धव ठाकरे गुट के कई ऐसे विधायक एकनाथ शिंदे गुट के पाले में चले गए, जिन्होंने बागी विधायकों को समझाने-बुझाने का जिम्मा अपने सिर लिया था। विधायकों को छत्तीसगढ़ ले जाने के सवाल पर वहां के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने यह कहा है कि यदि वे झारखंड में रहते तो भाजपा को उन्हें खरीदने का मौका मिल जाता। पता नहीं उनका यह अंदेशा कितना सही है, लेकिन आखिर क्या कारण है कि कांग्रेस के विधायक कुछ ज्यादा ही टूटने को तैयार रहते हैं?
जो भी हो, यह ठीक नहीं कि पद के दुरुपयोग मामले में फंसे हेमंत सोरेन को लेकर चुनाव आयोग जिस नतीजे पर पहुंचा है, उसे सार्वजनिक करने को लेकर झारखंड के राज्यपाल देर कर रहे हैं। इस देरी का कोई मतलब नहीं। यह सफाई गले नहीं उतरती कि राज्यपाल विधि विशेषज्ञों से सलाह ले रहे हैं। क्या सलाह लेने में इतना अधिक समय लगता है? हेमंत सोरेन की ओर से मुख्यमंत्री पद के दुरुपयोग मामले में चुनाव आयोग चाहे जिस नतीजे पर पहुंचा हो, ऐसे अनुमान अधिक अहमियत नहीं रखते कि वह इस्तीफा देकर फिर से मुख्यमंत्री पद की शपथ ले सकते हैं और छह माह में चुनाव जीतकर फिर विधायक बन सकते हैं, क्योंकि अंदेशा केवल यही नहीं है कि उनकी सदस्यता खारिज हो सकती है। अंदेशा इसका भी है कि उन पर चुनाव लड़ने की रोक भी लग सकती है।
Rani Sahu
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