सम्पादकीय

बात दरअसल पटाखों की नहीं, हम इंसानों की जहालत की है

Shiddhant Shriwas
1 Nov 2021 7:33 AM GMT
बात दरअसल पटाखों की नहीं, हम इंसानों की जहालत की है
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मनुष्‍य के अलावा शायद ही कोई ऐसा दूसरा जीव है धरती पर, जो अपनी ही बर्बादी का सामान इतने गर्व और दुस्‍साहस के साथ जुटाता हो.

ये एक ऐसी बात है, जो हर साल इस मौके पर लिखी और कही जाती है और हर साल ही ऐसा होता है कि एक बड़ा तबका इस बात को न सुनता है, न समझता है, उल्‍टे सरकार और न्‍यायालय से लेकर आपको ही कोसना शुरू कर देता है.

आज मेरी सुबह की शुरुआत सोशल मीडिया पर लिखी एक पोस्‍ट से हुई, जिसमें एक महिला न्‍यायाल को इस बात के लिए कोस रही थी कि उसने छोटे बच्‍चों के हाथों से फुलझडि़यां छीनने का पूरा इंतजाम कर लिया है और ऐसा करके वो खुश हैं. पिछले कई सालों से लगातार सुप्रीम कोर्ट दिवाली के पहले इस तरह के फैसले देता रहा है, जिसमें पटाखों को पूरी तरह प्रतिबंधित करने से लेकर उसे लेकर रेगुलेटरी गाइडलाइंस जारी करने की बातें होती रही हैं.
पटाखे और उनसे होने वाला वायु प्रदूषण इंसान के स्‍वास्‍थ्‍य के लिए हमेशा से ही खतरा था, लेकिन पिछले साल से यह खतरे का निशान खतरे की आखिरी सीमा को भी पार कर गया है. अलग से कहने की जरूरत नहीं कि इसकी वजह है वो महामारी, जिसने पिछले दो साल से पूरी दुनिया में इंसान को अपनी गिरफ्त में ले रखा है और अभी भी हम उससे पूरी तरह मुक्‍त नहीं हो पाए हैं.
यहां मैं ऐसी कम से कम दस स्‍टडी और रिसर्च का हवाला दे सकती हूं, जो वायु प्रदूषण और कोविड महामारी के सीधे संबंध पर रौशनी डालती हैं. पिछले साल नवंबर में अमेरिका में हुई एक ग्‍लोबल स्‍टडी का नतीजा ये था कि दुनिया के जो शहर पहले ये वायु प्रदूषण के मामले में निचले पायदानों पर खड़े थे, वहां कोविड के केसेज ज्‍यादा हुए. पिछले दिनों एक स्‍टोरी काफी चर्चा में रही थी कि कैसे जर्मनी का एक गांव अभी तक कोविड से बिलकुल अछूता बना हुआ है. जब पूरा जर्मनी कोविड की भयानक चपेट में था, उस गांव में एक भी व्‍यक्ति तक कोविड नहीं पहुंच सका.
पटाखों का इतिहास: कहां से आया बारूद?
हमें कतई आश्‍चर्य नहीं होना चाहिए इस बात पर कि अब एक नई रिपोर्ट कह रही थी कि वह गांव जर्मनी का सबसे साफ हवा वाला गांव है, जिसकी हवा में पर्टिकुलेट मैटर की संख्‍या पूरे देश में सबसे कम है.
जर्मनी का वो गांव कोविड के प्रकोप से इसीलिए बचा रहा क्‍योंकि वहां की हवा साफ है, शुद्ध है और वहां के लोगों के फेफड़े स्‍वस्‍थ और मजबूत हैं. फेफड़े स्‍वस्‍थ और मजबूत इसलिए हैं क्‍योंकि वहां के लोग बरसों से बेहतर, शुद्ध और प्रदूषण रहित हवा में सांस ले रहे हैं.
और इतनी आसान, बुनियादी और वैज्ञानिक बात हमें समझ में नहीं आती कि पटाखे हवा को प्रदूषित करते हैं. उस हवा को, जिसमें हम सांस ले रहे हैं. इसलिए इंसान के द्वारा जलाया गया हरेक पटाखा उसके खुद के खिलाफ उठाया गया कदम है.
ऐसे उदाहरण कम ही देखने को मिलते हैं, जब इंसान अपने ही खिलाफ उठाए कदम को पूरे जोर-शोर के साथ, तर्क और कुतर्क के साथ सही साबित करने की कोशिश करे.
कुछ ऐसे भी महानुभाव हैं, जो पटाखों को धर्म से जोड़ने की कोशिश करते हैं. अगर खुद अपने देश की अदालत और सरकार पटाखों पर प्रतिबंध लगा रही है तो इसमें भी उन्‍हें हिंदू धर्म के प्रति साजिश नजर आने लगती है. अपना धर्म खतरे में दिखाई देने लगता है. पिछले साल तनिष्‍क के एक विज्ञापन पर सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक पर काफी बवाल हुआ. वो विज्ञापन सिर्फ ये कह रहा था कि इस दिवाली को रौशनी और मिठाई के साथ मनाइए. पटाखों से इनकार करिए. लेकिन इससे भी एक तबके को मियादी बुखार ने जकड़ लिया. उन्‍हें लगा कि ये हिंदू धर्म के खिलाफ कोई साजिश है क्‍योंकि ऐसे विज्ञापन पर क्रिसमस के लिए तो नहीं बनाते.
सच तो ये है कि हर चीज को धर्म और सनातन से जोड़ने की कोशिश करने वाले अपने ही इतिहास से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं. अगर उन्‍होंने इतिहास पढ़ा होता तो उन्‍हें पता होता कि पटाखे सनातन हिंदू संस्‍कृति का हिस्‍सा कभी थे ही नहीं. हिंदुस्‍तान में बारूद सबसे पहले मुगल लेकर आए थे, जिसका इस्‍तेमाल वो युद्ध में तोपों से गोले दागने के लिए करते थे. सबसे पहले पटाखे लेकर आने वाले तो अंग्रेज थे.
मराठी के इतिहासकार दत्‍तात्रय बलवंत पारसनिस ने अपनी किताब में इस बारे में विस्‍तार से लिखा है. वे लिखते हैं कि कैसे कोलकाला से लखनऊ गए एक अंग्रेज अफसर ने आसमान में रंग-बिरंगे पटाखे छोड़े, जिनसे तरह-तरह की रौशनियां निकल रही थीं और आवाजें हो रही थी. लखनऊ के नवाब इस आतिशबाजी को देखकर दंग रह गए. अंग्रेज ने नवाब का दिल जीत लिया.
भारत में उन्‍नीसवीं सदी में कोलकाता में पटाखों की पहली फैक्‍ट्री की स्‍थापना हुई, जो अंग्रेजों ने की थी. भारतीस वेद, पुराण, शास्‍त्रों और प्राचीन ग्रंथों में कहीं भी पटाखे का कोई जिक्र नहीं मिलता क्‍योंकि पटाखे हमारी संस्‍कृति का हिस्‍सा कभी थे ही नहीं. भगवान राम के 14 साल का वनवास काटकर अयोध्‍या लौटने पर अयोध्‍यावासियों ने उनके स्‍वागत में पूरे शहर को रौशन जरूर किया था लेकिन उन्‍होंने पटाखे नहीं जलाए थे. पटाखों का जिक्र न तो तुलसीदास के रामचरितमानस में मिलता है और न ही वाल्‍मीकि रचित रामायण में.
इसलिए भारतीय संस्‍कृति, हिंदू संस्‍कृति और सनातन संस्‍कृति को बचाने का सारा तर्क भी एक बेहद अज्ञानी और मूर्खतापूर्ण कुतर्क के अलावा और कुछ नहीं है.
मनुष्‍य के अलावा शायद ही कोई ऐसा दूसरा जीव है, जो अपनी ही बर्बादी का सामान इतने गर्व और साहस के साथ जुटाता हो और उसके बचाव में तर्क भी देता हो. दिवाली में बहुत कुछ ऐसा है, जिसका संबंध हमारी खुशी से है. रौशनी का, दियों का, मिठाई का, परिवार के आपस में मिलने-जुलने, एकजुट होकर खुशी मनाने का. अगर इन सारी खुशियों में एक पटाखे न हों तो खुशी कोई कम नहीं हो जाएगी.
इसलिए बच्‍चों के हाथों से फुलझ़डि़यां छीन लेने जैसे बेहद मासूम से नजर आने वाले, लेकिन निहायत मूर्खतापूर्ण कुतर्क इस सच पर से पर्दा नहीं डाल सकते कि बात पटाखों की नहीं, बात दरअसल हम इंसानों की जहालत की है. हमारी मूर्खताओं की है.
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