सम्पादकीय

वैश्विक व्यवस्था को लोकतांत्रिक बनाए रखने के लिए संयुक्त राष्ट्र में सुधारों को टालना वैश्विक शांति के हित में नहीं है

Rani Sahu
27 Feb 2022 3:23 PM GMT
वैश्विक व्यवस्था को लोकतांत्रिक बनाए रखने के लिए संयुक्त राष्ट्र में सुधारों को टालना वैश्विक शांति के हित में नहीं है
x
रूस-यूक्रेन के बीच चल रहे संघर्ष के दौरान एक बार फिर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) अपनी भूमिका को निभा पाने में असफल प्रतीत हो रहा है

डा. अभिषेक श्रीवास्तव।

रूस-यूक्रेन के बीच चल रहे संघर्ष के दौरान एक बार फिर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) अपनी भूमिका को निभा पाने में असफल प्रतीत हो रहा है। विगत वर्षों में ऐसी कई अंतरराष्ट्रीय घटनाएं हुईं जिसने इस वैश्विक संस्था की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया है। इस वैश्विक संकट में सुरक्षा परिषद की असफलता 'विश्व सरकार' की संकल्पना को लगातार कमजोर कर रही है, जहां महाशक्तियां स्वयं नियम आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को चुनौती दे रही हैं। वर्तमान परिस्थितियों में यह भी त्रुटिपूर्ण है कि 77 वर्ष पूर्व हुए विश्व युद्ध के विजेता देशों को सुरक्षा परिषद में वीटो जैसी विशेष शक्तियां प्राप्त हैं, जिसका उपयोग कम और दुरुपयोग अधिक हुआ है। आज भी संयुक्त राष्ट्र विश्व युद्ध के बाद की भू-राजनीतिक संकीर्णताओं से बाहर नहीं निकल पाया है। सुरक्षा परिषद 21वीं सदी में भी 'शीत-युद्ध सिंड्रोम' से ग्रस्त दिख रहा है। यही वजह है कि पिछले कई दशकों से संयुक्त राष्ट्र की संरचना में बदलाव की मांग की जा रही है, परंतु चीन तथा अमेरिका के परस्पर टकराव के कारण सुरक्षा परिषद का सुधार वर्षों से लंबित है।

विगत वर्षों में देखा जाए तो वीटो प्राप्त महाशक्तियों ने ही नियम आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को सर्वाधिक नुकसान पहुंचाया है। चीन एक तरफ यूक्रेन के मामले में क्षेत्रीय अखंडता तथा संप्रभुता के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के अनुसार व्यवस्था को चलाने की बात करता है, दूसरी तरफ सामुद्रिक कानून पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेेलन के अनुबंध-सात के तहत गठित मध्यस्थता न्यायाधिकरण को ही मान्यता नहीं देता। दक्षिण चीन सागर में चीन की विस्तारवादी नीति ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में युद्ध के हालात पैदा कर दिए हैं।
आतंकवाद और मानवाधिकार हनन जैसे विषयों पर भी सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों की आपसी खींचतान ने इन वैश्विक चिंताओं को बढ़ा दिया है। विदित है कि आतंकी मसूद अजहर के मामले में सुरक्षा परिषद के चार स्थायी सदस्य उसे वैश्विक आतंकवादी घोषित करने के समर्थन में थे, लेकिन चीन इस फैसले के विरोध में था और उसने वीटो लगा दिया। हालांकि बाद में चीन द्वारा मसूद अजहर को वैश्विक आतंकवादी घोषित किया गया। चीन और पाकिस्तान द्वारा अपने अल्पसंख्यक नागरिकों पर लगातार अत्याचार किया जा रहा है। चीन में दमन का शिकार होने वालों में तिब्बती, ईसाई, उइगर मुस्लिम तथा हांगकांग में नागरिक अधिकारों के लिए लडऩे वाले लोग शामिल हैं। वहीं पाकिस्तान में भी हिंदुओं तथा सिखों पर लगातार अत्याचार हो रहे हैं। गिलगित-बाल्टिस्तान एवं बलूचिस्तान प्रांत में मानवाधिकार हनन का मामला तो अब अंतरराष्ट्रीय चिंता का विषय बन चुका है। पाकिस्तान में हो रहे अल्पसंख्यकों के उत्पीडऩ को ह्युुमन राइट्स वाच के अनुसार 'महामारी' की संज्ञा दी गई है। ऐसी स्थिति में भी चीन और पकिस्तान का संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार परिषद में निर्वाचित होना तथा सुरक्षा परिषद की चुप्पी संयुक्त राष्ट्र के भविष्य के लिए चिंताजनक है।
जाहिर है संयुक्त राष्ट्र में कई स्तरों पर सुधार की आवश्यकता है। सदस्य देशों की बढ़ती संख्या के अनुसार इसके सुरक्षा परिषद का विस्तार न करना इसके व्यापक उद्देश्यों को प्रभावित कर रहा है। संयुक्त राष्ट्र के प्रारंभिक वर्षों में इसकी सदस्य संख्या 113 थी, जो आज बढ़कर 193 हो चुकी है, परंतु आज भी सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य सिर्फ पांच हैं जिससे विश्व व्यवस्था असंतुलित हो चुकी है। एक तरफ जहां यूरोप के दो देशों को सुरक्षा परिषद में स्थान मिला है, वहीं न तो भारत जैसे प्रमुख देश को स्थान मिला है, जिसने संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियानों में सर्वाधिक योगदान दिया है, न ही अफ्रीका का कोई भी देश सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य है। जबकि संयुक्त राष्ट्र का 50 प्रतिशत से अधिक कार्य अकेले अफ्रीकी देशों से संबंधित है। वर्तमान वैश्विक व्यवस्था में भारत, जापान, जर्मनी, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका तथा आस्ट्रेलिया जैसे देशों की भूमिका महत्वपूर्ण है। आवश्यक है कि इन देशों को सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाया जाए। भारत आतंकवाद, क्षेत्रीय शांति, जलवायु परिवर्तन, हरित ऊर्जा एवं आर्थिक सहयोग जैसे वैश्विक मुद्दे पर भारत प्रमुख रूप से नेतृत्वकारी भूमिका में है। साथ ही बहुपक्षवाद में सक्रिय भागीदारी करते हुए विश्व व्यवस्था को बहुध्रुवीय नेतृत्व के अंतर्गत बनाए रखना चाहता है।
गौरतलब है कि जिस यूएनएससी को विश्व में शांति तथा लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए स्थापित किया गया था वह अपने पांच स्थायी सदस्यों के निहित स्वार्थ की भेंट चढ़ गया। 193 सदस्यीय संस्था में पांच देशों के पास 'वीटो' के नाम पर विशेष शक्ति होना संयुक्त राष्ट्र के लोकतांत्रिक तथा समावेशी चरित्र पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है। इसलिए 'वीटो' जैसी निर्णायक व्यवस्था में सुधार लाना चाहिए, अन्यथा इसे समाप्त कर देना चाहिए
चाहे रूस द्वारा यूक्रेन पर एकतरफा हमला हो या अफगानिस्तान में तालिबान का कब्जा हो या चीन द्वारा लगातार अपने पड़ोसी देशों की संप्रभुता को चुनौती देना हो या जलवायु परिवर्तन के कारण उभरे खतरे पर महाशक्तियों की मनमानी हो, संयुक्त राष्ट्र का इन सभी मुद्दों पर असहाय दिखना कहीं खतरनाक है। प्रश्न सिर्फ महासभा की कार्यप्रणाली पर नहीं है, अपितु उसके प्रमुख अंग सुरक्षा परिषद, विश्व स्वास्थ्य संगठन एवं मानवाधिकार परिषद पर भी लगातार उठ रहे हैैं। वैश्विक व्यवस्था को न्यायपूर्ण तथा लोकतांत्रिक बनाए रखने के लिए इन संस्थाओं में सुधार को लंबे समय तक टाला जाना वैश्विक शांति के हित में नहीं है।
Rani Sahu

Rani Sahu

    Next Story