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सोर्स जागरण
संजय गुप्त : भ्रष्टाचार के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों की सक्रियता के बीच उच्चतम न्यायालय मनी लांड्रिंग से संबंधित कानून पीएमएलए के दो प्रविधानों पर फिर से विचार करने के लिए सहमत हो गया है। इसका कारण यह है कि कई दलों ने उसके उस फैसले से असहमति जताई है, जिसमें उसने इस कानून के तहत प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी को मिली शक्तियों को वैध ठहराया था। इस फैसले के खिलाफ कार्ति चिदंबरम ने जो पुनर्विचार याचिका दाखिल की है, उसमें इस पर आपत्ति जताई गई है कि एक तो ईसीआइआर यानी प्रवर्तन मामले की सूचना रिपोर्ट की प्रति नहीं दी जाती और दूसरे, यह जिम्मेदारी आरोपित की ही होती है कि वह खुद को निर्दोष साबित करे।
काले धन पर रोकथाम की अंतरराष्ट्रीय कानूनी प्रतिबद्धता के तहत पीएमएलए कानून 2002 में लाया गया था, जो 2005 में प्रभावी हुआ। इसके बाद उसमें कई संशोधन कर उसे कठोर बनाया गया। इनमें से एक संशोधन तब हुआ था, जब पी चिदंबरम गृहमंत्री थे। अब वह और उनके बेटे इस कानून की गिरफ्त में हैं। इस कानून में कुछ संशोधन मोदी सरकार के कार्यकाल में भी हुए, क्योंकि अवैध तरीके से की गई काली कमाई को सफेद करने और बैंकों से धोखाधड़ी करने के सिलिसले पर लगाम नहीं लग रही थी।
हाल के समय में ईडी और उसके साथ सीबीआइ की सक्रियता जिस तरह बढ़ी है, उससे विपक्षी दलों को यह कहने का अवसर मिला है कि इन एजेंसियों का मनमाना इस्तेमाल किया जा रहा है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि नेताओं और नौकरशाहों के भ्रष्टाचार के मामले भी थमने का नाम नहीं ले रहे हैं। पिछले दिनों सीबीआइ ने रेलवे में नौकरी के बदले जमीन घोटाले और ईडी ने खनन घोटाले को लेकर बिहार, झारखंड समेत देश के अन्य हिस्सों में नेताओं और उनके करीबियों के तमाम ठिकानों पर छापेमारी की। इसी तरह के एक छापे में ईडी को रांची में दो एके-47 राइफलें मिलीं।
इसके पहले शराब घोटाले को लेकर दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के घर सीबीआइ ने छापेमारी की। इससे आक्रोशित आम आदमी पार्टी ने मोदी सरकार पर यह आरोप मढ़ा कि उसके विधायकों को तोड़ने के इरादे से छापेमारी की गई। आम आदमी पार्टी की मानें तो केंद्र सरकार को यह रास नहीं आया कि शिक्षा मंत्री के रूप में मनीष सिसोदिया ने स्कूली शिक्षा का जो कायाकल्प किया, उसकी प्रशंसा न्यूयार्क टाइम्स ने की। उसका यह भी आरोप है कि उसके विधायकों को 25-25 करोड़ रुपये का लालच दिया गया। विपक्षी दल ऐसे आरोप तब से कुछ ज्यादा ही लगा रहे हैं, जब से महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे ने शिवसेना के विधायकों को तोड़कर सरकार बनाई। जैसा आरोप आम आदमी पार्टी ने लगाया, वैसा ही नीतीश कुमार ने भाजपा का साथ छोड़कर राजद से हाथ मिलाने के बाद लगाया। ऐसे आरोप नए नहीं। ये भारतीय राजनीति का हिस्सा हैं।
दिल्ली के शराब घोटाले, झारखंड के खनन घोटाले और लालू यादव के समय हुए नौकरी के बदले जमीन घोटाले का सच जो भी हो, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि प्रधानमंत्री एक अर्से से भ्रष्टाचार के खिलाफ बोल रहे हैं। उन्होंने 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से भी भ्रष्टाचार को नासूर बताते हुए यह संकल्प लिया कि वह इसे मिटाने के लिए हर संभव कदम उठाएंगे। इससे यही स्पष्ट होता है कि उन्होंने राजनीतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ कमर कस ली है और इसीलिए ईडी और सीबीआइ की सक्रियता बढ़ी है। इस सक्रियता के बीच यह तय है कि मोदी सरकार को ऐसे आरोपों से दो-चार होना पड़ेगा कि विपक्ष के खिलाफ ईडी और सीबीआइ का इस्तेमाल राजनीतिक कारणों से किया जा रहा है। पता नहीं विपक्षी दलों के इस आरोप से जनता कितना सहमत होती है, पर इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि नेताओं और नौकरशाहों का भ्रष्टाचार रुकने का नाम नहीं ले रहा है।
मोदी सरकार ने आम आदमी को भ्रष्टाचार से निजात दिलाने के लिए तमाम सेवाओं का डिजिटलीकरण करने के साथ डीबीटी के जरिये सीधे खाते में पैसे भेजने की जो व्यवस्था की है, उसका कुछ सकारात्मक असर पड़ा है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि इससे सरकारी भ्रष्टाचार पर पूरी तौर पर लगाम लग गई है। सरकारी ठेकों के आवंटन, टेंडर प्रक्रिया, नौकरियों की भर्तियों से लेकर रोजमर्रा के उन कामों में सुविधा शुल्क या कमीशनखोरी के रूप में भ्रष्टाचार कायम है, जिनमें आम आदमी या खास आदमी का सरकारी कर्मियों से संपर्क होता है। इस मामले में भाजपा शासित अथवा गैर भाजपा शासित राज्यों में आम जनता के अनुभव करीब-करीब एक जैसे हैं।
भ्रष्टाचार देश के विकास में सबसे बड़ा रोड़ा है। भ्रष्टाचार से अर्जित धन सरकारी अफसरों और नेताओं की जेबों में जाता है। इसका अधिकांश हिस्सा चुनावों में खर्च होता है। जब तक चुनावी खर्च में पूर्ण पारदर्शिता नहीं आती, तब तक देश में भ्रष्टाचार रुकने वाला नहीं है। सरकार ने पार्टियों की फंडिग के लिए चुनावी बांड के रूप में जो व्यवस्था की है, वह पारदर्शी नहीं कही जा सकती। इसका प्रमाण एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म्स नामक संस्था के इस आकलन से मिलता है कि बीते 17 वर्षों में आठ राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को 15 हजार करोड़ रुपये से अधिक का चंदा अज्ञात स्रोतों से मिला। कोई भी प्रत्याशी चुनावी खर्च का सही-सही विवरण नहीं देता।
विधायक-सांसद का चुनाव लड़ने वाले यही दावा करते हैं कि उन्होंने तय सीमा में धन खर्च किया, पर सच यह है कि वे कहीं अधिक पैसा खर्च करते हैं। यह किसी से छिपा नहीं कि अब रैलियों में जो भीड़ आती है, वह बिना पैसे नहीं आती। तमाम प्रत्याशी मतदाताओं को चोरी-छिपे पैसा बांटते हैं। अगर भ्रष्टाचार नियंत्रित करना है तो यह सब बंद करना होगा। इसके लिए सरकार को एक तो निजीकरण की तरफ बढ़ना होगा और दूसरे, ऐसी व्यवस्था करनी होगी, जिससे भ्रष्टाचार के मामलों की जांच और अदालतों से उनका निस्तारण जल्द हो। वर्षों और कई बार दशकों तक जांच और सुनवाई होते रहने का कोई मतलब नहीं। चूंकि भ्रष्टाचार के मामलों का निस्तारण बहुत देर से होता है इसलिए न तो भ्रष्ट तत्वों को कोई सही संदेश जाता है और न ही जनता को।
Rani Sahu
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